Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Sudharmaswami, Lakshmivallabh Gani
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 255
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य - यनसूत्रम् ॥८२५ ॥ 毛毛能兼 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कीदृशी श्रमणो ? गुणौघधारिणौ ज्ञानदर्शनचारित्ररूपगुणसमूहधारिणौ किं कृत्वा ? बहिर्विहारमधिगम्य, द्रव्यतो | यहिग्रमाकरनगरादिभ्य एकांतमाश्रित्य भावतो वहिः कचिदप्रतिबद्धत्वमाश्रित्य तस्मादावयोर्धनेन किं ? अथवा | स्वजनेन किं ? च पुनः कामगुणैरिन्द्रियसुखैः किं ? धनस्वजनविषया हि न परलोसुखाय स्युरित्यर्थः यदुक्तं वेदेऽपि न प्रजया धनधान्येन त्यागेनैकेनामृतत्वमानशुरित्यादि ॥ १७ ॥ अथ भृगुस्तयोर्धर्मनिराकरणाय परलोकनिराकरणाय च आत्मनोऽभावमाह हवे पुत्रो बोल्या - हे तात! धर्म धुराधिकार = दशविथ यतिधर्मनी घोंसरी वहन करवाना अधिकारमां अमे बन्ने श्रमण थइथं. केवा श्रमण ? गुणौधधारी = ज्ञानदर्शन चारित्ररूप गुण समूहने धारण करनारा. केम करीने? वहिर्विहार = द्रव्यश्री गामनी बहार एकांतस्थाने आश्रय लड्ने, भावथी क्यांयथी अप्रतिबद्धपणाने अवलंबीने तो पछी अमने धनवडे के स्वजनवडे अथवा इन्द्रियसुखजनक कामगुणोवडे शुं करवानुं होय ? धन, स्वजन तथा विषयो कंइ परलोकसुख माटे नज होय वेदमां क छे के 'प्रजा अथवा धनधान्यथी नहिं किंतु केवळ ज्ञानथीज अमृतत्व = मोक्षने पाम्या इत्यादि १७ वे भृगु ते बे पुत्रो धर्म तथा परलोकना निराकरणार्थ आत्मानो अभाव कहे छे - जहा य अग्गी अरणीओ असंतो। खीरे घयं तिलमहातिलेसु । एमेव जाया सरीरंमि सत्ता । संमुच्छई नासह नावचिठ्ठे जेम अनि अरणी [काष्ठ]मां प्रथम नहि छतां उत्पन्न थाय छे तथा क्षीर दूधमां प्रथम न देखातुं घी उत्पन्न थाय छे; वळी जेम तिलमां प्रथम न जणातु तेल उत्पन्न थाय छे. एमने एम हे पुत्रो ! शरीरने विषये पण प्रथम न छता सत्व-जीवो उत्पन्न धाय हे For Private and Personal Use Only भाषांतर मध्य०१४ ||८२५॥

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