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(जण्णाण) यशोनो [लाभं] लाभ [कि'] शु[लहित्य] पामश? हवे उपाध्याय जवाय आपे छे.१७ उत्तराध्य
B भाषांतर पनसूत्रम्
च्या०-यदि मे ममेहारिमन् यज्ञपाट के शुद्ध मेषणीयमाहारमस्मिन्नवसरे न दास्यथ, तदा यज्ञानां लाभ पुण्य- अध्य०१२
प्राप्तिरूपं फलं किं लप्स्यथ? अपि तु न किमपीत्यर्थः. पात्रदानं विना किमपि न फलमित्यर्थः कथंभूतस्य मम? तिम॥६८२॥ भिर्गुप्तिभिर्गुप्तस्य, पुनः कीदृशस्य मम? पंचभिः समितिभिः सु अत्यंतं समाहितस्य युक्तस्य, पुनः कीदृशस्य मम?
॥६८१॥ जितेन्द्रियस्य, जितानींद्रियाणि येन स जितेन्द्रियस्तस्य. अत्र चतुर्थीस्थाने षष्टी, एतादृशाय पात्राय मा येन यूयं पासुकमाहारं न दास्यथ तदा भवतां सर्वमपि वृधा, फलस्याभावात्. ॥ १७ ॥ अथोपाध्याय आह
यदि जो मने अहीं आ यक्षबाटमां शुद्ध एपणीय आहार आ अवसरे देशो नहि तो पछी यक्षानो लाभ-पुण्यपाप्तिरूप फळ शु मेळवशो? कइ पण नहि. हुं केवो? पांच समितिवढे अत्यंत युक्त तथा जितेंद्रिय जेणे इंद्रियो जितेल छे एवो, (अहीं चतुर्थीने Jtil स्थाने षष्ठी विभक्ति छे) आवा पात्ररूप मने जो पासुक आहार आपशो नहिं तो पछी तमा सर्व वृथा छेकंड पण फळ नथी थवानुं.
के इत्थ खप्ता उवजोइया वा । अज्झाया वा सह खंडिएहि ।।
एवं तु दंडेग फलेण हता। कंटंमि धितूंण खलिज तो णं ।। १८॥ [इत्थ] अहीं (के) कया [खत्ता] क्षत्रियो छे? (उवजोइ। वा) अथवा गंधवानु काम करनार कोण छे? अथवा [ख डिएदि सह] | विद्यार्थीओ सहित (अज्झावयवा) अध्यापको कोण छे? [जोण] जे कोइ होय ते (एअतु) आ साधुने (दडेण) लाकडीथी [फलेण] बीला आदिक फलथी (हता) मारीने [क ठम्मि] कंठने विषे [वित्तूण पकडीने खलेज तेने स्थलना पमाडो. १८
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