________________
मानते हैं) अथवा अनित्यता ही सत्य है, नित्यता मिथ्या है (जैसा कि बौद्ध मानते हैं)। इसके विरुद्ध जैन का कथन है कि यदि हमारे अनुभव में कोई ऐसी घटना आती है जो हमारी समझ के विरुद्ध है तो हमें अपने अनुभव का अपलाप नहीं करना चाहिए-प्रत्युत् अपनी समझ को बदलना चाहिए।आईन्स्टीन ने यही किया। हमने अपनी समझ यह बना रखी कि किसी भी पदार्थ की गति उस पदार्थ को देखने वाले के अनुताप में बदल जाती है-अर्थात् उस पदार्थ को देखने वाला यदि (1) स्थिर है अथवा (2) पदार्थ की ओर गति कर रहा है अथवा (3) पदार्थ से विपरीत दिशा में गति कर रहा है तो तीनों शाखाओं में पदार्थ की गति उस देखने वाले की परिस्थिति के अनुसार भिन्न होगी किन्तु जब यह पाया गया कि प्रकाश के साथ ऐसा नहीं होता तो आईन्स्टीन ने अनुभव का अपलाप नहीं किया बल्कि हमारी इस समझ को बदल दिया कि घड़ियों में कालावधि तथा मानदण्ड की लम्बाई सदा एक ही रहती है। परिणाम यह हुआ कि सापेक्षता के सिद्धान्त का जन्म हो गया और प्रकाश की गति की हर परिस्थिति में एक समान रहने की पहेली का हल ढूंढ लिया गया। निश्चय ही यह जैन दृष्टिकोण का अवलम्बन लेने से हुआ। यदि अनुभव का ही अपलाप कर दिया जाता तो हम न्यूटन के युग में रह रहे होते और आईन्स्टीन का युग आता ही नहीं। प्रत्ययवादी दर्शन मायावाद अथवा मानसिक कल्पना का सहारा लेकर दो विरोधी तत्त्वों में एक को-नित्यता अथवा अनित्यता को मिथ्या अथवा दृष्टिभ्रम अथवा मन की सृष्टि मान लेते हैं। विज्ञान के आलोक में, ऐसी परिस्थिति में हमें एक तत्व को झूठा कहने का अधिकार नहीं है। दृष्टिभ्रम का यह तो अर्थ हो सकता है कि हम पदार्थ को वैसा नहीं देख पा रहे हैं जैसा कि वह वस्तुत: है किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि पदार्थ है ही नहीं। जैन इसे व्यवहार नय तथा निश्चय नय के माध्यम से स्पष्ट करता है। उदाहरणत: यदि भ्रमर में सभी रंग हैं और हमें वह काला नजर आता है तो ये दोनों परस्पर विरोधी तत्त्व हुए किन्तु इस कारण इनमें से किसी को झूठा मानना उचित नहीं होगा। कहना यह होगा कि निश्चय नय से तो भ्रमर में सभी रंग हैं किन्तु व्यवहार में वह काला ही दिखता है। ये दोनों दृष्टियां ही उपयोगी हैं। यदि हम निश्चय को न जानेंगे तो हम इस अज्ञान में ही जीते रहेंगे कि भ्रमर में केवल काला रंग है और यदि हम व्यवहार नय को मिथ्या माने लेंगे तो फिर यह कहना ही असम्भव हो जायेगा कि भ्रमर काला है।
। तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2006
-
1 11
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org