Book Title: Tulsi Prajna 2006 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 69
________________ परस्पर भिन्न हैं? कार्य किसी भावात्मक कारण से उत्पन्न होता है या अभावात्मक कारण से? कार्य की उत्पत्ति की प्रक्रिया क्या है? इत्यादि प्रश्नों के समाधान में मतभेद के आधार पर दार्शनिकों के कार्य-कारण सिद्धान्त में विभिन्नरूपता आ गई है। दार्शनिकों में भी सांख्य, वेदान्त बौद्ध (माध्यमिक) और न्याय-वैशेषिक मुख्य हैं, जिन्होंने इस जटिल समस्या का तर्कपूर्ण समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। सांख्य का सिद्धान्त परिणामवाद, वेदान्त का विवर्तवाद, बौद्ध का शून्यवाद और न्याय- वैशेषिक का आरम्भवाद' तथा जैन का सदसद्कार्यवाद नाम से प्रसिद्ध है। इन सभी वादों में कारण एवं कार्य के सम्बन्ध की भिन्नता के साथ-साथ कारण के स्वरूप में भी भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। जैन दर्शन में भी कारण के स्वरूप के सन्दर्भ में विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। विभिन्न वादों में एकान्तिक काल, स्वभाव, नियति, पुरूषार्थ को कारण मानकर सृष्टि अथवा जगत की व्याख्या की जाती है, जबकि जैन दर्शन काल, स्वभाव, नियति, पुरूषार्थ इनमें से मात्र किसी एक को जगत का कारण न मानकर पंचसमवाय (काल, स्वभाव, नियति, पुरूषार्थ, कर्म) की सम्मिलित अवधारणा को निरूपित करते हुए जगत् के कारण की व्याख्या करता है। किन्तु जैन-दर्शन में मुख्य रूप से जगत् में घटने वाली विभिन्न घटनाओं एवं होने वाले विभिन्न कार्यों के पीछे दो प्रमुख उपादान एवं निमित्त कारणों को स्वीकार किया गया है। पंचसमवाय रूप कारणों को उपादान एवं निमित्त कारण के अन्तर्गत ही स्वीकार किया जाता है। ___ 'संसरणं संसारः परिवर्तनमित्यर्थः" अर्थात् संसरण करने को संसार कहते हैं, जिसका अर्थ है परिवर्तन । संसार अथवा जगत् का प्रत्येक पदार्थ परिणमनशील है। पदार्थों के इस परिणमन को पर्याय या कार्य कहते हैं। जगत् में होने वाले विभिन्न कार्यों के पीछे परिवर्तन की एक लम्बी श्रृंखला दृष्टिगोचर होती है। पर्याय की दृष्टि से विचार करने पर जगत में प्रतिक्षण निरन्तर परिवर्तन हो रहा है। जैन वैचारिक इन परिवर्तनों को दो रूपों में विभक्त करते हैं- (1) वैनसिक (2) प्रयोगिक।। कुछ परिवर्तन अथवा कार्य हमें ऐसे दृष्टिगत होते हैं जो स्वतः हो जाते हैं, उन्हें किसी विशिष्ट कर्ता अथवा अन्य प्रयत्न की कोई अपेक्षा नहीं होती है, वे स्वमेव घटित होते हैं। ईश्वरवादी दर्शन जिन परिवर्तनों अथवा कार्यों का कर्ता ईश्वर को मानते हैं, जैन दर्शन उन्हें स्वाभाविक अथवा वैस्रसिक परिवर्तन की कोटि में रखता हैं। पदार्थों में होने वाला निरन्तर सूक्ष्म परिवर्तन स्वाभाविक परिवर्तन है जो कि द्रव्य की स्वाभाविक शक्ति के कारण बिना किसी दूसरे द्रव्य अथवा पदार्थ की अपेक्षा के स्वतः होता है। इसी प्रकार कुछ परिवर्तन ऐसे होते हैं जो प्रयत्नजन्य होते हैं। उन्हें किसी बाह्य हेतु की अपेक्षा होती है, वे प्रायोगिक परिवर्तन कहलाते हैं। जैसे मूर्तिरूप कार्य के लिए बाह्य पदार्थ 64 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 132-133 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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