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तृष्णा का एक रूप इच्छा भी है। जैन विचारधारा में इच्छा एक ऐसी खाई है जिसकी पूर्ति कभी नहीं हो सकती है। आत्मानुशासन में कहा है
'आशागर्तः प्रतिप्राणी यस्मिन् विश्वमणूपमम् ।
कस्य किं कियदायाति वृथा वो विषयैषिता ॥36॥"
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अर्थात् आशा रूपी (इच्छा) गड्ढा प्रत्येक प्राणी में पाया जाता है। अनन्तानन्त जीव है। उन सभी के आशा पायी जाती है तथा वह आशा रूपी गड्ढा कैसा है ? उस एक गड्ढे में समस्त लोक अणु समान है और लोक तो एक ही है तो अब कहो किसको कितना दिया जाए या किसके हिस्से में कितना आये। इसलिए तुम्हें जो यह विषयों की इच्छा सो व्यर्थ है । इसी प्रकार का विवेचन उत्तराध्ययन सूत्र में भी प्राप्त होता है- यदि सोने और चाँदी के कैलाश के समान असंख्य पर्वत भी खड़े कर दिये जाये तो भी तृष्णा शान्त नहीं हो सकती है, क्योंकि धन चाहे कितना भी हो किन्तु सीमित है। लेकिन तृष्णा वा इच्छा अनन्त है । अतः पूर्ति नहीं हो सकती ।
तृष्णा का एक रूप 'स्वार्थपूर्ति' भी है। वर्तमान में मनुष्य व्यक्तिगत रूप से अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए परिग्रह को संग्रहीत करता है । जिसके कारण लोग उसको सम्मान एवं ऊँचा दर्जा दें, क्योंकि आज बड़ा वह कहलाता है जिसके पास विलासिता के सभी साधन उपलब्ध हों, जिसके पास मकान, नौकर चाकर, कारखानें हों। वही व्यक्ति समाज की दृष्टि और सरकार की दृष्टि में बड़ा होता है । अतः समाज में ऊँचा दर्जा प्राप्त करने के लिए आज व्यक्ति मजदूरों का अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए शोषण करता है। धन-संग्रह के लिए पाँचोंपापों में लिप्त रहता है- व्यक्ति धन संग्रह के लिए हिंसा करता है, असत्य बोलता है, चोरी करता है, मैथुन का सेवन करता है एवं अत्यधिक मूर्च्छा करता है ।" परिग्रहवृत्ति के कारण आज व्यक्ति को रिश्वत लेना साधारण-सी बात हो गई है। छोटे से लेकर बड़ा अफसर तक सभी रिश्वत लेने से नहीं हिचकते हैं। सरकार रोकथाम कहाँ तक करे, समझाते - समझाते थक चुकी हैं। चोरी - बाजारी का बोलबाला भी बहुत देखने में आता है- गेहूं, चीनी, कपड़े आदि कहां तक गिनाया जाये, पग-पग पर प्रत्येक वस्तु में चोर बाजारी का जोर है।
सर्वत्र परिग्रह वृत्ति के कारण झूठ, छल-प्रपंच ही दृष्टिगत होता है। धन की लगन में मनुष्य धर्मध्यान और ईमान तक भुला बैठा है। स्वार्थ ने मनुष्य को सभी ओर से जकड़ लिया है । ग्लोबलाइजेशन के इस युग में व्यापार - विस्तार की प्रतियोगिता एवं अपने उत्पादित वस्तुओं की ब्रिकी के लिए बाजारों की खोज और होड़ आज के विश्व की सबसे बड़ी समस्या है। इसमें भी व्यक्ति का अपना स्वार्थ एवं 'लाभ-का-लोभ' की पुष्टि करने के लिए करता है।
तुलसी प्रज्ञा जुलाई - दिसम्बर, 2006
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