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किसी भी पदार्थ को द्रव्य और भाव रूप सभी ओर से ग्रहण करना या ममत्व बुद्धि से रखना परिग्रह है। दशवैकालिक सूत्र में कहा है- साधु-साध्वी जो भी पात्र, वस्त्र, कम्बल या पाद-पौंछन आदि धर्मोपकरण रखते हैं या धारण करते हैं वे संयम-पालन और लज्जा - निवारण के लिए हैं। इसलिए प्राणि मात्र के उद्धारक ज्ञातृपुत्र महावीर ने उक्त धर्मोपकरण समूह को परिग्रह नहीं कहा है। सभी तीर्थंकरों द्वारा मूर्छा को ही परिग्रह कहा गया है। यही बात महावीर ने कही है। भारतीय चिन्तन परम्परा में भी इस तरह का उल्लेख प्राप्त होता है
मूर्छायाच्छन्नधियां सर्वं जगदेव परिग्रहः। मूर्च्छया रहितानां तु जगदेवा परिग्रहः॥
अर्थात् मूर्छा से जिनकी बुद्धि आच्छादित हो गई है उनके लिए सारा जगत ही परिग्रह रूप है और जिनके मन-मस्तिष्क मूर्छा से रहित है उनके लिए सारा जगत ही अपरिग्रह है। महाभारत में भी कहा है- बन्ध और मोक्ष के लिए दो ही पद अधिकतर प्रयुक्त होते हैं- 'ममनिर्मम' अर्थात् जब किसी पदार्थ के प्रति मम (ममत्व-मेरापन)-मेरा है, यह भाव आ जाता है तब प्राणी कर्मबन्ध से बंध जाता है एवं किसी पदार्थ के प्रति निर्मम (मेरा नहीं है) भाव आता है तब बन्धन से मुक्त हो जाता है।
उक्त चर्चा से यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि बाह्य-परिग्रह के साथ आभ्यन्तर में ममत्व परिणाम का त्याग करना अनिवार्य है, क्योंकि बाह्य-परिग्रह बिना भी मूर्छा करने वाला पुरुष निश्चित रूप से परिग्रह सहित है, लेकिन अन्तरंग में ममत्व नहीं है तो निश्चित रूप से परिग्रह रहित है, यह शाश्वत सत्य है।
__ जैन परम्परा में परिग्रह के मुख्यत: दो भेद प्राप्त होते हैं - बाह्य परिग्रह एवं आभ्यन्तर परिग्रह। आभ्यन्तर परिग्रह के चौदह भेद हैं एवं बाह्य परिग्रह के दस भेद हैं। यही भेद पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय में भी प्राप्त होते हैं। बाह्य परिग्रह के दो भेद आगम परम्परा में प्राप्त होते हैं। “चित्तमचित्तं वा परिगिज्झ"। चेतन और अचेतन के भेद से बाह्य परिग्रह के दो भेद है। सचित्त परिग्रह (चेतन) में मनुष्य, पशु, पक्षी (द्विपद, चतुष्पद) तथा वृक्ष, पृथ्वी, वनस्पति फल, धान्य आदि समस्त सजीव वस्तुओं का समावेश हो जाता है और अचित्त (अचेतन) परिग्रह में क्षेत्र, वास्तु (मकान), सोना, चाँदी, मणि, वस्त्र, वर्तन, सिक्के, नोट आदि सभी निर्जीव वस्तुओं का समावेश हो जाता है। बाह्य-परिग्रह के जो सचित्त और अचित्त भेद है उनको अल्प मात्रा में भी रखता है अथवा दूसरे को अनुज्ञा देता है वह दुःख से मुक्त नहीं होता है। एक बात यह भी स्पष्ट हो जाती है कि परिग्रह का मूर्छा लक्षण करने से व्याप्ति भली प्रकार घटित होती है, क्योंकि बाह्य-परिग्रह बिना मूर्छा करने वाला पुरूष निश्चय से
तुलसी प्रज्ञा जुलाई -दिसम्बर, 2006 -
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