Book Title: Tulsi Prajna 2006 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 83
________________ में 'तेन त्यक्तेन भुंजीथा' एवं "मा गृधः कस्य स्विद् धनम्" कहकर परिग्रह त्याग का मार्ग प्रशस्त किया है। जो इस प्रकार है The purport of the Upnishad is that whatever life there is in this world is filled with God. Nothing exist without God. Speaking in terms of Kingdom, Only he reigns. He alone is the master. Understanding that it is our duty to offer everthing to him, and whatever we reciever from him. We must joyfully accept his gracious gift. Nothing belongs to me, everything belongs to him. This must be our attitute. Whosoever lives in this way considering nothing to be his own, everything God's he will recieve every thing. Whatever he recieves he will be satisfied with. He will not envy others. He will not cover the wealth of others.22 अंततः निष्कर्ष स्वरूप कहना चाहता हूँ कि यह सत्य है कि मानव को इस जगत में सुख और स्वाभिमान से जीने के लिए आर्थिक साधनों एवं भोग-सामग्री की आवश्यकता रहती है लेकिन संग्रह की भावना अनुचित है। यदि संग्रह पर अंकुश नहीं होगा तो हमारी तृष्णा बढ़ती ही जाती है तथा उन्हें सन्तुष्ट करना असंभव हो जाता है। असंतुष्टि का परिणाम दुखों और क्लेशों को बढ़ाना ही होता है। व्यक्तिगत दृष्टिकोण से जैन नैतिकता तो आवश्यकता से अधिक किसी भी प्रकार के संग्रह के विरुद्ध है। नैतिकता तो यहाँ तक कहती है कि शारीरिक जरूरत से ज्यादा अधिक खाना और आवश्यकता से अधिक वस्त्र रखना भी परिग्रह है। परिग्रह की भावना को परिमाणित करने की बात यह भी कही है कि अगर विशिष्ट सीमा से आगे संपत्ति का संग्रह हो तो हमें स्वेच्छा से दान कर देना चाहिए। इसीलिए श्रावक के षट्-आवश्यक के अंतर्गत दान को लिया है। दान का उद्देश्य समाज में ऊँच-नीच कायम करना नहीं बल्कि जीवन रक्षा के लिए आवश्यक वस्तुओं का समवितरण होना चाहिए। दान केवल अर्थदान तक सीमित नहीं रहे बल्कि आहारदान, औषधिदान, ज्ञानदान तथा अभयदान इन रूपों में भी दान को जैन दृष्टिकोण से समझाया गया है। अतः अर्थ का सर्जन के साथ-साथ विसर्जन करके समाज को नया रूप दिया जा सकता है, क्योंकि यह सामाजिक पहलू से भी उचित है अर्थात् जब सभी लोगों के पास अपनी आवश्यकता के अनुसार होगा तो अमीर एवं गरीब का भेदभाव समाज में समाप्त हो जायेगा तथा सभी लोगों को आर्थिक न्याय और आर्थिक समानता की प्राप्ति होगी। 78 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 132-133 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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