Book Title: Tulsi Prajna 2006 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 81
________________ आज का युग वैश्वीकरण और भोग-प्रधान है। इस युग में समाज में बढ़ते हुए विद्वेष, संघर्ष, शोषण, गरीबी, छल-कपट, वर्गभेद, चोर-बाजारी, मुनाफाखोरी, पूंजीवाद आदि के लिए हमारी आवश्यकता से अधिक संग्रह करने की मनोवृत्ति ही उत्तरदायी है। उक्त समस्याओं के समाधान के लिए भगवान् महावीर ने 'अपरिग्रह' का उपदेश दिया। जो वर्तमान जीवन में प्रासंगिक भी है। अपरिग्रह को चरितार्थ करने के लिए इच्छाओं पर नियन्त्रण करना या परिग्रह को परिमित करना अतिआवश्यक है। परिमाण से अधिक का उपभोग अपने लिए नहीं वरन् समाज के लिए होना चाहिए, क्योंकि जिस प्रकार अहिंसा का वैचारिक आधार अनेकान्त दृष्टि है उसी प्रकार इसका सामाजिक आधार अनासक्ति या अपरिग्रह है। जैनाचार्यों ने परिग्रह परिमित करने के लिए बड़ी ही सूक्ष्मता से अपरिग्रहव्रत के अतिचारों का उपदेश दिया ताकि व्यावहारिक जीवन में अपरिग्रह की साधना करने के लिए व्यक्ति को निर्देश मिल सके। क्षेत्र-वास्तु, हिरण्य-स्वर्ण, धन-धान्य, दास-दासी एवं कुप्यभांड के प्रमाणों का अतिक्रम- ये परिग्रह-परिमाणव्रत के अतिचार हैं अभिप्राय यह है कि इन वस्तुओं का परिमाण निश्चित करना चाहिए। लोभवश इनका अतिक्रम नहीं करना चाहिए। रत्नकारण्ड श्रावकाचार में गृहस्थ के परिग्रह परिमाणव्रत के पाँच अतिचारों का सामयिक वर्णन प्राप्त होता है "अतिवाहनातिसंग्रहविस्मय लोभातिभारवाहनानि। परिमित परिग्रहस्य च विक्षेप पञ्च लक्ष्यन्ते।" . परिमित परिग्रह के नाम में पाँच अतिचार1. घोड़ा, ऊँट, बैल इत्यादि तिर्यञ्चों तथा दास-दासी, सेवक आदि को अतिलोभ के वश मर्यादा रहित अतिदूर की मंजिल तक ले जाना, बहुत चलाना आदि अतिवाहन नाम का अतिचार है। अपने घर में बिना प्रयोजन ही बाह्य पदार्थों का संग्रह करना। भोजन, पात्र, वस्त्र इत्यादि थोड़े की आवश्यकता हो किन्तु संग्रह बहुत करना, धान्य, वस्त्र, औषधि, काष्ठ, पाषाण, धातु इत्यादि का बहुत संग्रह करने में ही परिणामों का रहना अतिसंग्रह नाम का अतिचार है। 3. दूसरों के यहाँ बहु-संपत्ति, बहु-परिग्रह, अनेक देशों की वस्तुएं तथा कभी नहीं देखी ऐसी वस्तुओं को देखकर, सुनकर आश्चर्य करना। वह विस्मय नाम का अतिचार है। 76 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 132-133 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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