Book Title: Tulsi Prajna 2006 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 79
________________ बाह्य-परिग्रह सहित है। दूसरे शब्दों में जहां-जहां मूर्छा है वहां-वहां परिग्रह अवश्य है और जहां मूर्छा नहीं है वहां परिग्रह भी नहीं है। मूर्छा की परिग्रह के साथ व्याप्ति है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि बाह्य-परिग्रह त्याग के पूर्व अन्तरंग परिग्रह रूप ममत्व परिणाम छोड़ना अनिवार्य है। वर्तमान में जो मनुष्य परिग्रह में सुख मानते हैं वे मूों में शिरोमणि है। अधिक सम्पत्ति सदाचार की शिक्षिका नहीं अपितु दुराचार की देन है। जिसकी हमें आज आवश्यकता नहीं उसे भविष्य की चिन्ता से संग्रह करना परिग्रह है। परिग्रह का नाम संग्रहवृत्ति भी है। संग्रहवृत्ति के पीछे कारण होते हैं- लोभ, इच्छा, स्वार्थ एवं तृष्णा। इन कारणों में से तृष्णा को प्रबल कारण माना है, क्योंकि बाकी कारण इसी में ही समाहित हो जाते हैं। भगवान महावीर ने उत्तराध्ययन सूत्र में जागतिक दुखों का कारण तृष्णावृत्ति को माना है वहां कहा गया है कि जिसकी तृष्णा समाप्त हो जाती है उसका मोह समाप्त हो जाता है, जिसका मोह समाप्त हो जाता है उसके दुःख भी मिट जाते हैं। तृष्णा असीम है और भौतिक साधन सीमित है अतः सीमित साधनों से असीमित तृष्णा की पूर्ति नहीं हो सकती। तृष्णा ही परिग्रह का मूल है। आसक्ति ही परिग्रह है। आसक्ति की ही दूसरी संज्ञा लोभ है और सद्गुणों का विनाशक है।” परिग्रह इच्छुक मनुष्य गर्मी, सर्दी, धूप, वायु, वर्षा, प्यास, भूख, श्रम, मार्ग चलना आदि का दुस्सह कष्ट सहन करता है और अपनी शक्ति से भी अधिक भार ढोता है।18 लोभ के बारे में हिन्दी-साहित्य के प्रख्यात निबन्धकार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने लेख "लोभियों का दमन" में लिखा है "लोभियों का दमन (संयम) योगियों के दमन से किसी प्रकार कम नहीं होता है। लोभ के वश से वे काम-क्रोध को जीतते हैं, सुख की वासना का त्याग करते हैं, मान-अपमान में समान भाव रखते हैं। अब और चाहिए क्या? जिससे वे कुछ पाना चाहते हैं, यदि वह उन्हें दस गालियां भी देता है तो उनकी आकृति पर कोई रोष का चिह्न प्रकट नहीं होता है और न मन में ग्लानि होती है, न उन्हें मक्खी चूसने में दया, सुन्दर से सुन्दर रूप देखकर वे अपनी एक कोड़ी भी नहीं भूलते। तुच्छ से तुच्छ व्यक्ति के सामने हाथ फैलाने में वे लज्जित नहीं होते। क्रोध, दया, घृणा, लज्जा आदि करने से क्या मिलता है कि करने जाए। वे शरीर सुखाते हैं, अच्छाभोजन, अच्छे वस्त्र आदि की आकांक्षा नहीं करते, लोभ के अंकुश से अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में रखते हैं। लोभियों! तुम्हारा अक्रोधक, तुम्हारा इन्द्रिय-निग्रह, तुम्हारी मानापमान समता, तुम्हारा तप अनुकरणीय है। तुम्हारी निष्ठुरता, तुम्हारी निर्लज्जता, तुम्हारा अविवेक, तुम्हारा अन्याय विगर्हणीय है। तुम धन्य हो। तुम्हें धिक्कार है।" 74 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 132-133 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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