Book Title: Tulsi Prajna 2006 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 68
________________ कारण का स्वरूप : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में - सुश्री श्वेता जैन 'यह जगत् परमार्थ दृष्टि से सत्य हो या मिथ्या' इस तथ्य की उपेक्षा नहीं की जा सकती कि जगत के इस स्वरूप का सबको अनुभव होता है। अत: सभी दर्शनों का यह एक आवश्यक विषय रहा है कि वे इस प्रत्यक्ष जगत की तर्क संगत व्याख्या करें। परिवर्तन अर्थात् प्रतिक्षण किसी वस्तु की उत्पत्ति और किसी का विनाश इस जगत का अनुभव सिद्ध स्वभाव है। इसलिए यह प्रश्न बहुत ही सहज है कि इस जगत् में होने वाला उक्त परिवर्तन कैसे होता है। दूसरे शब्दों में यह परिवर्तन आकस्मिक है, बिना किसी कारण के हो जाता है या इसका कुछ कारण है? चिरकाल से इस प्रश्न के विषय में समाधान रूप में कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद, यदृच्छावाद, भूतवाद, पुरुषवाद का उल्लेख मिलता है। न्यायसूत्र में गौतम ने भी अनेक वादों का निर्देश किया है जिनमें कुछ तो उपनिषद् के वादों के ही समान्तर हैं और कुछ अतिरिक्त वाद भी हैं। उपर्युक्त वादों में स्वभाववाद जिसे न्यायसूत्र में 'अनिमित्तवाद' कहा गया है, चार्वाकों का सिद्धान्त है। इसके अनुसार उक्त परिवर्तन स्वभावत: अपने आप हो जाता है। इसका कोई कारण नहीं है। अन्य वाद भी किसी रूप में कारणता सिद्धान्त से दूर ही हैं। कार्य की उत्पत्ति में नियमितता को देखकर कार्य-कारण सिद्धान्त की अनिवार्यता सुस्पष्ट है। इसलिए दार्शनिकों ने उपयुक्त सभी वादों की उपेक्षा कर कार्य कारण सिद्धान्त पर आश्रित पक्षों का अवलम्बन अपने-अपने तर्क के आधार पर किया है। उदयनाचार्य ने अपनी न्यायकुसुमाञ्जलि नामक पुस्तक के प्रथम स्तबक में कार्य-कारण सिद्धान्त की अनिवार्यता का प्रबल तर्को द्वारा समर्थन किया है। दार्शनिक सम्प्रदायों में कार्य-कारण सिद्धान्त की एकरूपता नहीं है। कार्यकारण का सम्बन्ध क्या है? क्या कार्य-कारण से पूर्ण रूप में अभिन्न है या दोनों तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2006 0 - 63 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122