________________
उपादान कारण - अर्थ एवं परिभाषा
द्रव्य का स्वयं कार्यरूप परिणमन करना उपादान कारण है। द्रव्य की निजी शक्ति को उपादान कहते हैं। अष्टसहस्त्री में उपादान कारण को परिभाषित करते हुए कहा है
त्यक्तात्यक्तात्मरूपं यत्पूर्वेण वर्तते। कालत्रयेऽपि तद्रव्यमुपादनमिति स्मृतम्॥
जो पौर्वापर्य रूप से अपने आत्मरूप को त्यागता भी है और नहीं भी त्यागता, तीनों कालों में अपने पूर्व रूप से और अपूर्व रूप से वर्त रहा है वह उपादान कारण है।
स्वामी विद्यानन्दजी ने भी उपादान कारण और कार्य के स्वरूप को बहुत ही संक्षेप में वर्णित करते हुए अष्टसहस्त्री टीका में कहा है- उपादानस्य पूर्वाकारेण क्षयः कार्योत्पाद एवं हेतोर्नियमात्।
___ उपादान का पूर्वाकार से कार्य का उत्पाद ही है, क्योंकि ये दोनों एक हेतु से होते हैं, ऐसा नियम है।
इस प्रकार अनन्तर पूर्व पर्याय विशिष्ट द्रव्य की उपादान संज्ञा है और जो अनन्तर उत्तर पर्यायविशिष्ट द्रव्य है उसकी कार्य संज्ञा है। जैसे पाषाण का पाषाण रूप पर्याय से मूर्ति रूप पर्याय में परिणमन क्रमशः उपादान कारण रूप द्रव्य एवं कार्य है।
__ प्रत्येक द्रव्य में दो अंश होते हैं- एक शाश्वत और एक क्षणिक। गुण शाश्वत होने के कारण अपने स्वरूप को त्रिकाल में नहीं छोड़ते और पर्याय क्षणिक होने के कारण अपने स्वरूप को प्रतिक्षण छोड़ती है। यह दोनों ही अंश उस द्रव्य से पृथक् कोई अर्थान्तर रूप नहीं है। इन दोनों से समवेत द्रव्य ही कार्य का उपादान कारण है। द्रव्य का न तो केवल सामान्य अंश उपादान होता है और न केवल विशेष अंश उपादान होता है। इसी को प्रमाणित करते हुए आचार्य विद्यानन्दजी ने अष्टसहस्त्री में कहा है
यत् स्वरूपं त्यजत्येव यन्न त्यजति सर्वथा। तन्नोपादानमर्थस्य क्षणिकं शाश्वतं यथा॥
जो पूर्णरूप से अपने स्वरूप को छोड़ ही देता है (पर्याय) एवं जो सर्वथा अपने स्वरूप में ही रहता हुआ परिणमित नहीं होता है वह उपादान नहीं हो सकता, क्योंकि सर्वथा क्षणिक एवं सर्वथा शाश्वत कोई पदार्थ नहीं हो सकता।
इस प्रकार शाश्वतता एवं क्षणिकता दोनों समान रूप से उपादान कारण अर्थात् कारण रूप द्रव्य की विशेषताएं हैं। सर्वथा क्षणिक पदार्थ प्रतिक्षण विनष्ट ही हो जाता है तब उसमें
66
-
- तुलसी प्रज्ञा अंक 132-133
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org