Book Title: Tulsi Prajna 2006 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 17
________________ ___ आज विज्ञान के क्षेत्र में यह बात उभर कर आयी है कि स्थूल स्तर पर हमारा समस्त व्यवहार न्यूटन के सिद्धान्तों के आधार पर चलता है और वह खरा भी उतरता है किन्तु परापरमाणु के स्तर पर न्यूटन के सिद्धान्त गलत सिद्ध होते हैं और वहां हमें आईन्स्टीन के सिद्धांत लागू करने पड़ते हैं। न्यूटन के और आईन्स्टीन के सिद्धान्तों में परस्पर विरोध है किन्तु क्या इस कारण हम इनमें से किसी एक को मिथ्या मान सकते हैं? वस्तुत: भिन्न-भिन्न परिप्रेक्ष्य में दोनों ही सिद्धान्तों को सत्य मानना होगा। ___ 3. अब तक न्यूटन युग की अवधारणाओं में बंधे रहकर जो एक रेखा को दूसरी रेखाओं की अपेक्षा बड़ा-छोटा दोनों बताया जा रहा था वहां ऐसा लगता था कि सिद्धसाधन दोष है। 5 फुट की रेखा 4 फुट की रेखा की अपेक्षा बड़ी तथा 6 फुट की रेखा की अपेक्षा छोटी है, यह इतनी स्पष्ट बात है कि यह कहकर हम किसी गंभीर तथ्य का उद्घाटन करने का दावा नहीं कर सकते थे। किन्तु आईन्स्टीन द्वारा यह कहे जाने पर कि एक ही छड़ किसी परिस्थिति में छोटी और किसी परिस्थिति में बड़ी हो जाती हम एक ऐसे तथ्य को जान पाये हैं जो अब तक अज्ञात था। विज्ञान के सापेक्षता के सिद्धान्त द्वारा हमें अपूर्वार्थ का बोध होता है, उस पर सिद्ध-साधन का दोष नहीं लगाया जा सकता। 4. स्याद्वाद के अन्तर्गत जब हम यह कहते हैं कि "स्याद् घट है, स्याद् घट नहीं है", "स्याद् घट अवक्तव्य है", तो यह सब शब्दों का मायाजाल सा प्रतीत होता है। आईन्स्टीन के सापेक्षता सिद्धान्त के अनुसार स्याद्वाद की यह प्रणाली विज्ञान की उपलब्धियों को अभिव्यक्त करने में समर्थ एकमात्र प्रणाली है। उदाहरणतः खड़े हुए देवदत्त को किन्हीं दो घटनाओं के बीच का अन्तराल 5 घंटे ज्ञात हो रहा है और प्रकाश की गति जैसी तीव्र गति से चल रहे यज्ञदत्त को उन्हीं दो घटनाओं के बीच का अन्तराल 3 घंटे ज्ञात हो रहा है, तब इन दोनों समयों के बीच जो (5-3=2) घंटे का समय है वह वास्तव में है या नहीं? उत्तर यही होगा कि देवदत्त की अपेक्षा वह समय है तथा यज्ञदत्त की अपेक्षा वह समय नहीं है और यदि यह पूछा जाये कि वास्तव में वह समय है या नहीं तो यही उत्तर होगा कि यह बतलाना संभव नहीं है अर्थात् यह अवक्तव्य है। इन तीनों भागों के मेल (Permutation Combination) से सात भाग बन जायेंगे और सत्य को कहने का वही सर्वोत्तम उपाय सिद्ध होगा। ___5. हमें यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि आईन्स्टीन ने सापेक्षता के कुछ ऐसे नये आयाम उद्घाटित किये हैं जो प्राचीन जैन आचार्यों को भी ज्ञात नहीं थे किन्तु इससे अनेकान्त का सिद्धान्त और अधिक पुष्ट हुआ है और उसके मूलभूत ढांचे को कोई क्षति नहीं पहुंची है, यद्यपि देश और काल संबंधी जैन परम्परा में प्रचलित मान्यताओं में संशोधन करना आवश्यक हो गया है। दर्शन के क्षेत्र में ऐसे संशोधन पहले भी होते रहे हैं। 12 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 132-133 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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