Book Title: Tulsi Prajna 2006 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 52
________________ भगवती आराधना में निदान वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में निदान का अभिप्राय क्या है ? निदान कितनी तरह के होते हैं ? निदान उचित है या अनुचित ? यदि निदान अनुचित है तो प्रार्थना में क्या मांगा जाये ? निदान फलता है या नहीं ? आधुनिक वैज्ञानिक चिन्तन इस विषय में क्या कहता है ? मनोकामनाएं पूर्ण होने के मामले में क्या किसी तरह के वैज्ञानिक प्रयोग हुए हैं ? आधुनिक मनोवैज्ञानिक इस विषय में क्या कहते हैं ? इत्यादि प्रश्नों का संक्षिप्त विश्लेषण भगवती आराधना, अन्य जैन ग्रन्थ एवं अन्य प्रकाशित जानकारी के आधार पर इस लेख में दिया जा रहा है। निदान का अभिप्राय भगवती आराधना' में आचार्य श्री शिवार्य लिखते हैं- 'इदमेव स्यादनागते काले इति मनसः प्रणिधानं न च तदसंज्ञिष्वस्ति' अर्थात् आगामी काल में यही होना चाहिए, इस प्रकार के मन के उपयोग को निदान कहते हैं। असंज्ञियों में इस प्रकार का निदान नहीं होता । भगवती आराधना में यह भी कहा है- "रत्नत्रय अथवा अनन्त ज्ञानादिरूप मुक्ति से अन्यत्र चित्त का उपयोग लगाना कि इसका यह फल मुझे मिले, निदान है।" निदान न केवल अगले भव के लिए होता है अपितु इस भव के लिए भी होता है। भगवती आराधना में निम्नांकित कथन द्रष्टव्य है "इस व्रतशील आदि के प्रभाव से इस भव में और पर भव में इस प्रकार के भोग मुझे प्राप्त हों, इस प्रकार मन के संकल्प को भोग निदान कहते हैं । असंयत सम्यग्दृष्टि अथवा संयतासंयत के निदान शल्य कहलाते हैं। " - डॉ. पारसमल अग्रवाल निदान का उल्लेख तत्त्वार्थसूत्र के निःशल्यो व्रती की व्याख्या करते हुए राजवार्तिक में आचार्य अकलंक देव लिखते हैं- " विषयभोगाकांक्षा निदानम्' 113 तुलसी प्रज्ञा जुलाई - दिसम्बर, 2006 Jain Education International For Private & Personal Use Only 47 www.jainelibrary.org

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