Book Title: Tulsi Prajna 2006 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 65
________________ यह जानकर रुचिकर होगा कि आचार्य हेमचन्द्र अपने अभिधान-चिन्तामणि-कोश में चौबीस जिनों के लांछनों के बारे में सुनते हुए उन्हें अर्हतम् ध्वज से अभिधारित करते हैं। यही दृष्टिकोण दिगम्बर लेखक पण्डित आशाधर का भी है जो कहते हैं कि प्रत्येक जिन की क्षत्रिय कुटुम्ब के या वंश के उसका लांछन हो गया है। व्ही. एस. अग्रवाल द्वारा प्रकाशित अहिच्छत्र मृण्मूर्ति फलक से हमें ज्ञात होता है कि दो महाभारत के युद्ध करते हुए योद्धाओं की निजी ध्वजाओं पर दो भिन्न प्रतीक (सुअर तथा चंद्र कला) थे। जैन परम्पराओं के अनुसार सभी तीर्थंकरों का जन्म क्षत्रिय वंशों में हुआ था। अतः, उनकी ध्वजाओं पर प्रतीकों से उनके संज्ञान चिह्न माने जाते थे जो लगभग चौथी या पांचवीं ईस्वी सदी के पश्चात तीर्थंकरों की मूर्तियों पर दृष्टिगत होने लगे ताकि उनकी पहिचान सुविधाजनक हो सके। यह आवश्यक हो गया, क्योंकि विभिन्न तीर्थंकरों के सभी मूर्तिशिल्प एक निश्चित रूप किये रहते हैं, चाहे वे कायोत्सर्ग मुद्रा में हो या पद्मासन पर तथा मूर्तिशिल्प में नहीं हों। कुषाण काल में तीर्थंकरों के बिम्बों पर लांछन उकेरे नहीं जाते थे और वे तभी पहिचाने जा सकते थे जब उनके नाम उनकी पादपीठ पर शिलालेखों में उल्लिखित किये जाते थे। इसलिये यह निष्कर्ष निकाला गया कि कुषाण काल के पश्चात् लांछनों की प्रस्तुति हुई। किन्तु अब कुषाण कालावधि में मथुरा के जैनियों में सिंह-ध्वज पूज्य वस्तु रही है, अत: यह कल्पना करना तर्क योग्य होगा कि कुषाण अवधि में और कम से कम लगभग प्रथम या द्वितीय सदी में विभिन्न तीर्थंकरों के तीर्थ मंदिरों के हेतु विभिन्न ध्वज-स्तम्भों पर ध्वज प्रतीकों का अस्तित्व था। सिद्धानादिक द्वारा समर्पित आयात पट्ट (क्रमांक जे. 249, प्रदेश संग्रहालय, लखनऊ), जो कंकाली टीला मथुरा से खोजा गया था, उसमें केन्द्र में जिन बैठे हुए हैं और पट के सिरों पर दो स्तम्भ हैं, एक के ऊपर धर्म चक्र है और दूसरे के ऊपर एक हाथी है। जैन परम्परा में हाथी को दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ का लांछन माना जाता है। यहाँ वह जिन के ध्वजप्रतीक के रूप में प्रदर्शित है। भद्रनन्दि द्वारा प्रतिष्ठित आयागपट (क्रमांक जे. 252, स्टेट म्युजियम, लखनऊ) पर हमें उसी प्रकार एक स्तम्भ प्राप्त हुआ है जिस पर धर्म चक्र है और दूसरे स्तम्भ पर एक सिंह आरूढ़ है। इस आयाग पट के केन्द्र में जिन आकृति है, इसलिये अवश्य ही महावीर के रूप में पहिचाना जाना चाहिये। अत: हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि कम से कम प्रथम या द्वितीय ईस्वीपूर्व सदी में जैनियों में प्रथानुसार तथा व्यवहार से भी तीर्थंकरों के मंदिरों के समक्ष ध्वज-स्तम्भ निर्मित किये जाते थे और बाद में ये ही ध्वज-प्रतीकों तीर्थंकरों के क्रमश: बिम्बों पर लांछनों के रूप में प्ररूपित किये जाने लगे। 60 60 - - - - तुलसी प्रज्ञा अंक 132-133 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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