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कुषाण काल के मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त मूर्तिशिल्प पर तीर्थंकरों के लांछन नहीं पाये जाते हैं। जैसा कि ऊपर बतलाया जा चुका है कि गुप्तकाल के राजगिर से प्राप्त मूर्तिशिल्प पर वे दिखाई दिये हैं, परन्तु उनकी स्थिति अंतिम रूप से निर्णीत नहीं हुई थी।
वैभर पहाड़ी से गुप्तोत्तर काल का मूर्तिशिल्प आदिनाथ को प्ररूपित करती हुई लगभग सातवीं आठवीं सदी (ए.डी.) प्राप्त हुई है जिसकी पादपीठ पर प्रत्येक बाजू में ऋषभ के द्वारा घेरे हुए धर्म-चक्र है। ऋषभ, आदिनाथ का लांछन है जिन्हें अपने कंधों पर छाये हुए केश कुंडल के द्वारा भी पहिचाना गया है। (देखिये, “Jaina Art and Architecture, A. Ghosh " द्वारा सम्पादित भाग 1 प्लेट 90) तत्पश्चात् धर्म चक्र को बाजू से घेरे हुए दो हिरण हैं जबकि लांछन धर्मचक्र के या तो ऊपर या नीचे, पादपीठ पर है।
छन कुठर के निकट सीता पहाड़ी से, मध्य भारत में दो मूर्तिशिल्प हैं, जिनमें से एक कायोत्सर्ग मुद्रा में ऋषभनाथ हैं और अन्य पद्मासन मुद्रा में महावीर है।
Jaina Art and Arehitecture, भाग-1, जहाँ पादपीठ के दोनों सिरों पर लांछन प्रत्येक पर है जबकि धर्मचक्र सामान्यतया केन्द्र में है।
दोनों मूर्तिशिल्प कुषाणकाल से गुप्तकाल शैली में हुई संक्रमण की प्रकम श्रेणी को प्ररूपित करते हैं।
राजगिर मूर्ति शिल्पों में से एक अत्यंत जिज्ञासापूर्ण नमूना खोजा गया है। जहाँ पद्मासन पर स्थित तीर्थंकर के सिर के ऊपर सात सर्प फण है- और इसलिये वह या तो पार्श्वनाथ अथवा सुपार्श्वनाथ होने चाहिए, क्योंकि अन्य कोई भी तीर्थंकर के सिर पर सर्पफण नहीं होते हैं। धर्म-चक्र के प्रत्येक ओर एक शंख है जो दोनों सम्प्रदायों के अनुसार नेमिनाथ का लांछन है। इसलिये स्पष्ट है कि या तो यह मूर्ति शिल्पी की भूल हुई थी या लांछन तब तक अंतिम रूप से निर्णीत नहीं हुए थे। यह मूर्तिशिल्प पालकालीन कला का अपरिष्कृत नमूना है। __यद्यपि चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियों में से एक मूर्ति का भी वर्णन जैन आगमिक अंग ग्रन्थों में नहीं मिलता है, तथापि सिद्धायतन भी कहे जाने वाले शाश्वत चैत्यों में शाश्वतजिनप्रतिमाओं के थोक वर्णन से जिन-प्रतिमा की पूर्व अवधारणा प्राप्त कर सकते हैं। दोनों सम्प्रदायों की जैन परम्पराएं सिद्धायतनों का निर्देश करती हैं। इन शाश्वत-जिनों की मूर्तियां हैं। ये मूर्तियां चार जिनों की है, नामतः चन्द्रानन, वारिषेण, ऋषभ और वर्द्धमान उन्हें शाश्वत जिन इसलिये कहते हैं, क्योंकि प्रत्येक उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी काल में इनके नाम सदैव पुनरावृत्त किये जाते हैं और वे पन्द्रह कर्म भूमियों में से किसी में भी विकसित होते हैं।
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_तुलसी प्रज्ञा अंक 132-133
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