Book Title: Tulsi Prajna 2006 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 62
________________ ' से व्यवहत किया जाना है। इस वर्तमान ग्रन्थ की तिथि, इस ग्रन्थ के सम्पादक स्वर्गीय प्रोफेसर आदिनाथ उपाध्ये द्वारा इसकी तिथि लगभग छठी सदी (A.D.) निकाली गयी। इन परिस्थितियों में दोनों सम्प्रदायों के द्वारा प्रदत्त लांछनों की सूची की तुलना करना आवश्यक है। परिशिष्ट में दी गयी सूची से ज्ञात होगा कि हेमचन्द्र के अनुसार चौदहवें जिन अनन्तनाथ का लांछन श्येन या बाजपक्षी (Falcon) जो अन्तर के बिन्दुओं को दर्शाता है। यह दिगम्बरों के अनुसार सेही (bear) है। दशवें जिन शीतलनाथ का श्रीवत्स लांछन हेमचन्द्र के अनुसार है किन्तु दिगम्बरों के अनुसार स्वस्तिक (तिलोयपण्णत्ति) या श्रीद्रुम (प्रतिष्ठा सारोद्धार) है। पुनः अरनाथ, अठारहवें जिन का लांछन दिगम्बर परम्परा में मत्स्य है किन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार नन्द्यावर्त है। चूंकि दोनों जिन सम्प्रदायों में से किसी में भी लांछनों के लिये सर्वपूर्व उपलब्ध साहित्यक उद्गम उनके मूल से पश्चात् का है और चूंकि उनकी सूचियों में कुछ अन्तर (भिन्नताएं) हैं, हमें लांछनों के मूल स्रोत के काल के बारे में शुद्ध हल तक पहुँचने हेतु पुरातात्त्विक साक्ष्य को भी खोजना चाहिए। जहाँ तक साहित्यक साक्ष्य के विश्लेषण का सम्बन्ध है, यह काल कम से कम मूर्ति पूजा के सम्बन्ध में दोनों सम्प्रदायों के अंतिम रूप से जुदा होने काल से सम-सामयिक होना चाहिए और यह काल (युग) जैसा कि मैंने अन्यत्र पूर्व में दिखलाया है, पांचवी सदी के अंतिम चतुर्थांश के आस-पास होना चाहिये। यह काल द्वितीय वलभि परिषद् के निकट कहीं होना चाहिये, अन्यथा सामान्य सहमति संतुष्टिपूर्वक समझायी नहीं जा सकती है। यह काल सम्भवतः दो भिन्न सूचियों के अंतिम निर्णय का होना चाहिये और न कि आवश्यक रूप से लांछनों की अवधारणाओं के उद्गम का। यह निम्नलिखित परिचर्चा से अधिक स्पष्ट हो जाएगा। अभी तक ज्ञात, सर्वपूर्व मूर्तिशिल्प राजगिर से प्राप्त नेमिनाथ का मूर्ति-शिल्प है जिसकी पादपीठ पर लांछन है, जिसे सर्व प्रथम रामप्रसाद चंदा द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसका सिर अलग कर दिया गया है तथा बुरी तरह विरूपित कर दिया गया है, किन्तु मूर्तिशिल्प का शेष भाग भलीभांति सुरक्षित है। पादपीठ के केन्द्र में एक युवा व्यक्ति किसी आयताकार चक्र के समक्ष खड़ा है, दोनों गुप्त काल की अचूक शैली में सुन्दरतापूर्वक उकारे गये हैं। प्रत्येक बाजू में एक शंख है जो दोनों सम्प्रदायों के अनुसार नेमिनाथ का लांछन है। जैसा कि चन्दा ने पढ़ा है, पादपीठ की किनार पर एक शिलालेख की आंशिक रूप से सुरक्षित लकीर, उस चंद्रगुप्त को निर्दिष्ट करती है जिसे शिलालेख की लिपि के साक्ष्य से चंद्रगुप्त द्वितीय के रूप में पहिचाना है। तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2006 - - 57 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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