Book Title: Tulsi Prajna 2006 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 55
________________ ग्वाले की णमोकार मंत्र की कथा से भी ज्ञात होता है कि ग्वाला णमोकार मंत्र की श्रद्धा के पुण्य से अगले जन्म में उसके ही सेठ के यहां पुत्र बनने का निदान करता है और यह निदान फलीभूत होता है। ऋणात्मक या प्रतिशोध संबन्धित निदान के उदाहरण भी मिलते हैं "वशिष्ठ तापस ने उग्रसेन को मारने का निदान किया था। इस निदान के फल से वह मरकर उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ और उसने पिता को जेल में डालकर राज्यपद प्राप्त किया। बाद में कृष्ण के द्वारा स्वयं भी मारा गया।"14 उक्त वर्णन से यह अर्थ नहीं लेना है कि प्रत्येक प्राणी का प्रत्येक निदान फलीभूत होता है। सब कुछ प्राणी के भावों के अनुसार कर्म व्यवस्था पर निर्भर करता है। जैसे उदयपुर से दिल्ली जाते हुए कोई मालिक कहे कि इन्दौर लेते हुए चलो तो पर्याप्त पैट्रोल की व्यवस्था हो व अन्य बाधाएं न हो तो ड्राईवर इन्दौर लेते हुए जा सकता है, किन्तु इस प्रक्रिया में उदयपुर से दिल्ली जाने में समय ज्यादा लगेगा। इसी तरह प्राणी की संसार से सिद्धालय की यात्रा निदान-बंध के कारण जटिल हो जाती है। यदि अज्ञानी व्यक्ति को यह मालूम ही न हो कि उसकी मंजिल दिल्ली है तो इन्दौर आकर वह कह सकता है कि अब बम्बई चलो, अब कलकत्ता चलो...। अज्ञानी प्राणी भी जाने-अनजाने में कभी डिग्री चाहता है, कभी नौकरी चाहता है, कभी शादी चाहता है, कभी बच्चे चाहता है, कभी यश चाहता है, कभी करूणावश अन्य की सेवा की शक्ति चाहता है। कभी बच्चों की शादी चाहता है, कभी बाधा पहुंचाने वालों को हानि पहुंचाने की भावना करता है, कभी बीमारी के दुःखों से घबराकर या अपमान एवं अवहेलना में त्रस्त होकर मनुष्य जीवन से छुटकारा चाहता है। इसके विपरीत ज्ञानी को अपनी मंजिल मालूम रहती है किन्तु यदि पूर्व संस्कारों के जोर से सीधी मंजिल पर न जाते हुए अन्य प्राणियों की सेवा, सत्य के मार्ग के प्रचार-प्रसार आदि की मनोकामनाएं हो जाए तो उसकी सिद्धालय की यात्रा इन मनोकामनाओं से प्रभावित हो जाती है। इसलिए आचार्य देव हमें सावधान करते हुए कहते हैं कि किसी भी प्रकार का निदान एक शल्य है जिससे आत्मा का सहज सुख अनुभव करने में बाधा आती है। "नाम लेत सब दुःख मिट जाय", "पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम्" "सद्यः स्वयं विगत बन्धभया भवन्ति", "तुम पद पंकज पूजते, विध्न रोग टर जाय", "अपराजित मन्त्रोऽयं सर्व-विघ्न विनाशनं:''.... आदि कई कथन जैन ग्रन्थों में इस तथ्य का समर्थन करते हैं कि सच्चे भक्त को बिना मांगे ही भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है। फिर निदान की क्या आवश्यकता? 50 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 132-133 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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