Book Title: Tulsi Prajna 2006 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 22
________________ विचार एक भौतिक पदार्थ है। जब हम विचार करते हैं तो कुछ परमाणु उसमें प्रभावित होते हैं और फिर वे परमाणु आकाश में फैल जाते हैं। यदि हम उन परमाणुओं को पढ़ना सीख सकें तो अतीत के विचार को भी वर्तमान में जान सकते हैं। यही सार्वभौम मन का अर्थ है। हर विचार अपने आने के साथ एक चित्र लेकर आता है। यदि दूरदर्शन के द्वारा एक स्थान का चित्र दूसरे स्थान पर आ जाता है तो केवल ज्ञान द्वारा अतीत और भविष्य का चित्र भी वर्तमान में देखा जा सकता है। इसीलिए केवली का भूतकाल और भविष्यकाल समाप्त हो जाता है। अनन्तज्ञान का यही अर्थ है। अनाग्रह ___ अनेकान्त विचार का लचीलापन है। यह स्वीकार्य है, यह स्वीकार्य नहीं है-यह राग, द्वेष की दृष्टि है। वीतरागता में स्वीकार्यता और अस्वीकार्यता-दोनों सापेक्ष हो जाती है। यह एक तीसरा मार्ग है-समता का मार्ग। समता के मार्ग में सोचा यह जाता है कि हम प्रत्येक परिस्थिति में कैसे अविचलित रह सकते हैं। यह नहीं सोचा जाता कि हम परिस्थिति को कैसे बदल सकते हैं। यदि हम कुछ समय के लिए परिस्थिति को अनुकूल बना भी लें तो वह अनुकूलता सदा रहने वाली नहीं है। फिर किसी दूसरे प्रकार की प्रतिकूलता आ धमकेगी और यह शृंखला कभी समाप्त नहीं होगी। परिस्थति अपने आप में जैसी है वैसी है। उसमें अनुकूलता-प्रतिकूलता हम अपनी राग-द्वेष की दृष्टि के कारण आरोपित करते हैं। वह परिस्थिति का अपना धर्म नहीं है। यह अनेकान्त का साधना पक्ष है। जन्म-मृत्यु हमें दो चर्म-चक्षुओं से जन्म और मृत्यु दिखती है। यह उत्पाद-व्यय है। यदि पुनर्जन्म को जानना हो तो उत्पाद-व्यय की लड़ी के बीच से गुजरने वाली ध्रुवता को जानना होगा उसके लिए तृतीय नेत्र खुलना चाहिए। विज्ञान ने सूक्ष्म पर्यायों को उद्घाटित करके हमारे तीसरे नेत्र को खोलने में सहायता की है। ___अनेकान्त हमे बताता है कि साधना में किसी के लिए ध्यान अनुकूल, किसी के लिए जप, किसी के लिए प्राणायाम होता है। सबके लिए एक ही उपाय करना कारगर नहीं हो सकता, क्योंकि सब व्यक्ति एक जैसे नहीं होते। तृतीय नेत्र इस प्रकार अनेकान्त के अनेक स्तर हैं। तत्व मीमांसा में वह अनित्यतायुक्त ध्रुवता है, आचार मीमांसा में वह समता है और विचार मीमांसा में वह तटस्थता। प्रसिद्ध है कि शिव के तुलसी प्रज्ञा जुलाई -दिसम्बर, 2006 - 017 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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