Book Title: Tulsi Prajna 2006 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 47
________________ उपलब्ध नहीं होते किंतु उसमें सिद्धों के प्रसंग में बारह अनुयोग द्वारों का विवेचन किया गया है। जिनके आधार पर सिद्धों के पन्द्रह से भी अधिक भेद किए जा सकते हैं। तत्त्वार्थसूत्रगत अनुयोग द्वारों की व्यापकता को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन जैन वाङ्मय में अन्य विषयों के समान सिद्धों की विक्षेप एवं अनुयोगविधि से व्याख्या की गई होगी। अनुयोग पद्धति से व्याख्या करना जैन विवेचन शैली की अपनी विशेषता रही है। अनुमान यह भी किया जाता है कि यह पूर्वो की व्याख्या शैली का ही उपदर्शन है। स्मृति, मेधा आदि की अल्पता के कारण जैसे-जैसे अपृथक्त्वानुयोग की पद्धति संकुचित होती गई, पूर्व साहित्य का भी लोप होता गया तथा अल्पमति पुरुषों की बोधगम्यता के लिए विषय विवेचना में संक्षिप्त शैली का उपयोग किया जाने लगा। सम्भवतः श्यामाचार्य ने उसी उपयोगिता की दृष्टि से सिद्धों के इन पन्द्रह भेदों का अवतरण किया हो। ___ मलयगिरी ने अनन्तरसिद्धों का सत्पदप्ररूपणा, द्रव्य प्रमाण, क्षेत्र, स्पर्शना, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व- इस आठ तथा परम्पर सिद्धों का सन्निकर्ष सहित नौ अनुयोग द्वारों का क्षेत्र, काल, गति, वेद, तीर्थ, लिंग, चरित्र, बुद्ध, ज्ञान, अवगाहना, उत्कर्ष, अन्तर, अनुसमय, गणना एवं अल्प बहुत्व- इन पंद्रह-पंद्रह द्वारों से विवेचन किया है। उमास्वाति के समान उनका भी आधार सिद्धप्राभृत है। विस्तार भय से उनका वर्णन यहां नहीं किया जा रहा है। अनन्तर सिद्धों की अपेक्षा से केवलज्ञान के पंद्रह भेद है -- 1. तीर्थसिद्ध- तीर्थ का शब्दिक अर्थ है- घाट। संसार समुद्र से पार पाने के लिए चातुर्वर्ण धर्मसंघ को तीर्थ से उपमित किया जाता है। तीर्थ प्रवर्तन के पश्चात् उस श्रमण संघ में प्रवज्या प्राप्त कर, केवलज्ञान एवं सिद्धगति को प्राप्त होने वाले जीव तीर्थसिद्ध कहलाते हैं।' तत्त्वार्थसूत्र में भी पांचवां अनुयोगद्वार तीर्थ है। 2. अतीर्थसिद्ध- जो तीर्थंकर प्रवर्तित श्रमणसंघ के अनस्तित्वकाल में मुक्त होते हैं वे अतीर्थसिद्ध कहलाते हैं। चूर्णिकार ने मरुदेवी को अतीर्थसिद्ध कहा है। तीर्थस्थापना से पूर्व कोई मोक्षमार्ग को कैसे प्राप्त करता है? कौन उसका मार्गोपदेशक होता है? इस विषय में हरिभद्र का मत है कि जातिस्मरण आदि अतीन्द्रिय ज्ञानों से प्राप्त बोधि हो उनकी मार्गदर्शिका है। मलयगिरी ने अतीर्थ के दो अर्थ किए हैं- 1. तीर्थ की अनुत्पत्ति एवं 2. तीर्थ विच्छेद। मरुदेवी माता तीर्थ स्थापना से पूर्व सिद्ध हुई, अतः अतीर्थसिद्ध है। वैसे ही चन्द्रप्रभु एवं सुविधि प्रभु के अन्तराल काल में तीर्थविच्छेद होने पर सिद्धगति को प्राप्त करने वाले भी अतीर्थ सिद्ध है। सिद्धसेनगणि ने तीर्थ-अनुयोगद्वार में सिद्धप्रामृत' को उद्धृत करते हुए तीर्थकरीतीर्थसिद्ध, नोतीर्थसिद्ध आदि अन्य भेदों का उल्लेख भी किया है। 42 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 132-133 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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