Book Title: Tulsi Prajna 2006 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 35
________________ अनर्थदण्ड का त्यागी नहीं है उस पुरुष से कभी भी अहिंसाव्रत नहीं पल सकता। अहिंसाव्रत का नहीं पलना हिंसा में प्रवृत्ति रखना है, उससे आत्मा को पापों का घर बनाना है, उसका परिणाम दुर्गति को प्राप्त होना है, इसलिए सुगति एवं आत्मीय पवित्रता चाहने वालों को अनर्थदण्डत्यागी बनना परमावश्यक है। यथा एवंविधमपरमपि ज्ञात्वा मुञ्चत्यनर्थदंडं यः। तस्यानिशमनवद्यं विजयमहिंसाव्रतं लभते ॥ 147॥ अहिंसा की आधारभूमि आजकल पर्यावरण-संरक्षण की बात सभी क्षेत्रों में की जाती रही है। जैन दर्शन के आचार्यों ने प्रारम्भ से ही पर्यावरण की रक्षा करने की बात विभिन्न रूपों में की है। रात्रिभोजन-त्याग, शाकाहार का विधान-सप्त शीलों का पालन, शुद्ध आजीविका का समर्थन, जैनमुनि की संयमित जीवनचर्या- ये सब जैनदर्शन की प्रवृत्तियां पर्यावरण-संरक्षण के ही आयाम हैं। बाहरी रूप से पर्यावरण के संरक्षण का प्रयत्न अस्थायी रहेगा, किन्तु जिन अशुद्ध भावों से पर्यावरण प्रदूषित होता है उन पर नियन्त्रण करने की शिक्षा एवं क्रियान्विति पर्यावरण-संरक्षण का स्थायी समाधन देगी। तृष्णा का क्षय और अभय अहिंसा का वातावरण इसके लिए सही मार्ग है। आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि जो व्यक्ति नियमित किये गये भोगों में संतुष्ट होता हुआ अधिक भोगों को त्याग देता है, उसकी बहुत-सी होने वाली हिंसा छुट जाती है। इस कारण वह विशेष अहिंसा का पालक बन जाता है। यथा इति यः परिमितभोगैः संतुष्टस्त्यजति बहुतरान् भोगान्। बहुतरहिंसाविरहात्तस्याऽहिंसा विशिष्टा स्यात् ॥ 166॥ अहिंसा की आधारभूमि संविभाग में है। लोभ हिंसा का पर्याय है तो दान अहिंसा का जनक, क्योंकि अतिथि को दान देने में उसकी आरम्भजनक प्रवृत्तियों में कमी आती है और दाता की तृष्णा घटती है। ममत्व घटता है और प्रसन्नता होती है। ये सब हिंसा को बढ़ाने वाले हैं। अपने लिये तैयार किये हुए भोजन को जो गृहस्थ भावपूर्वक मुनि-महाराज को देता है उसके उस समय अरति, विषाद और लोभ तीनों ही नष्ट हो जाते हैं और इन तीनों के नष्ट हो जाने से उस समय आत्मा के अहिंसामय भाव रहते हैं, इसलिये दान को अहिंसा स्वरूप समझना चाहिये। यथा कृतमात्मार्थ मुनये तदाति भक्तमिति भावितस्त्यागः। अरतिविषादविमुक्तः शिथिलितलोभो भवत्यहिंसैव ॥ 174॥ 30 - तुलसी प्रज्ञा अंक 132-133 Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122