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मिस कैथराईन आस्ट्रिया के एक सम्भ्रांत ईसाई परिवार की महिला थीं। अपने देश में ही उन्होंने संस्कृत और हिन्दी का बहुत अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। भारतीय विद्याओं के प्रति असीम अनुराग के वशीभूत, अड़सठ वर्ष की आयु में वे भारत आईं और आठ वर्षों तक यहाँ के ऐतिहासिक स्थानों का अथक भाव से भ्रमण करती रहीं। आचार्य हजारीप्रसाद जी उन्हें दीदी कहा करते थे जो उनके अंचल में दादी का एकार्थक है। उस वृद्धा का भी उन पर पौत्र के समान ही स्नेह था। अपनी कष्ट-साध्य यात्राओं के बाद जब वे आचार्य जी के उधर से निकलती तब अपनी पाली हुई बिल्ली के अलावा उनके पास जगह-जगह से इकट्ठी की हुई बहुत-सी पुरातन चीजें होतीं। उनका इतिहास बताते समय उनका चेहरा श्रद्धा से गद्गद् हो जाता और उनकी छोटी-छोटी नीली आँखें भावों के उद्रेकवश गीली हो जातीं। उनकी बाल-सुलभ निर्मलता भोलेपन की सीमा को छूती थी। उसका लाभ उठा कर कुछ लोग उनके बहुमूल्य संग्रह में से कुछ चीजें दबा लेते। उन्हें उसका पता भी नहीं चलता।
भारत और भारतीय संस्कृति के साथ उनका गहन लगाव किसी पूर्व जन्म के संस्कारों से अनुबन्धित-सा लगता था। जब वे ध्यानस्थ होती तो उनका वलीकुचित मुखमंडल बहुत ही आकर्षक लगता और वे साक्षात् सरस्वती-सी जान पड़तीं। समाधि के उपरान्त उनकी बातों में अनूठी दिव्यता होती।
___ अंतिम बार में राजगृह से लौटीं। द्विवेदी जी से मिली और बोली "देख, इस बार शोण नद के दोनों किनारों की पैदल यात्रा कर आई हूँ। थकी हुई हूँ। तुम कल आना। दूसरे दिन आचार्य जी जब उनके स्थान पर पहुंचे, तब नौकर ने बतलाया कि उस रात वे दो बजे तक चुपचाप बैठी रहीं और फिर एकाएक अपनी टेबल पर आकर लिखने लगीं। रात भर लिखती रहीं। लिखने में इतनी तन्मय रहीं की दूसरे दिन आठ बजे तक लालटेन बुझाए बिना ही लिखती रहीं। फिर टेबल पर ही सिर रख कर सो गईं और अपराह्न तीन बजे तक सोई रहीं। अब वे स्नान कर के चाय पीने जा रही थीं। आचार्य जी को देखकर बहुत प्रसन्न हुईं और बोली “शोण-यात्रा में मिली सामग्री का हिन्दी रूपान्तर मैंने कर लिया है।... आनन्द से इसका अंग्रेजी में उथला करा ले... और कल पाँच बजे की गाड़ी से कलकत्ते जाकर टाइप करा ला। परसों मुझे इसकी कापियाँ मिल जानी चाहिए।" ।
आचार्य जी ने सकुचाते हुए पूछा-"दीदी! कोई पाण्डुलिपि मिली है क्या?"
दीदी ने डाँटते हुए कहा, "एक बार पढ़के तो देख।... तू बड़ा आलसी है। देख रे, बड़े दुःख की बात बता रही हूँ।... स्त्रियाँ चाहें भी तो आलस्यहीन होकर कहाँ काम कर सकती हैं?... तू... बाद में पछतायेगा। पुरुष होकर इतना आलसी होना ठीक नहीं। तू समझता है,
तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2006 -
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