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नर-लोकसे किन्नर-लोकतक
- जतनलाल रामपुरिया
दैनिक जीवन में कुछ बातें सहज रूप से सामने आती हैं- इतने सहज रूप से कि उस क्षण उन पर ध्यान नहीं आता। What is the life that full of care, we have no time to stand and stare - नवमी कक्षा के मेरे पाठयक्रम की एक कविता की इन प्रारंभिक पंक्तियों में चित्रित, यंत्र युग की व्यस्तता में अस्त जीवन की विवशता भी बहुत बार चीजों को अनदेखा, अनसुना करने का कारण बनती है। बाद में घटी घटनाएं अथवा समय का अन्तराल उनकी गंभीरता का बोध कराता है, ठीक वैसे ही जैसे कई बार चोट लगने के एक दो दिन बाद उसकी पीड़ा का अनुभव होता है। भाग्योदय की वेला में, हमारे पास समय होता है to stand and stare । मनन चिंतन के लिए अवकाश के ऐसे क्षणों में भी वे बातें बालसखा-सी बिना पूछे अचानक आकर गले में बाहें डाले कानों में कुछ फुसफुसाती-सी अपना अर्थ बतलाती हैं। अवचेतन मन से चेतन मन में स्थानांतरित होकर वे फिर अनवरत विचारों को झकझोरती रहती हैं। मन में उनकी व्याख्या करने की, उनकी संबद्धता खोजने की विकलता होती है, परन्तु दूसरे छोर पर वे उतने ही तीखेपन से व्याख्यातीत-सी होने का आभास देती रहती हैं।
__ अपने कुछ ही अनुभवों के बारे में मैं बहुत दिनों से लिखने का सोच रहा था, पर वही कठिनाई मुझे घेरे रही, जिसका उल्लेख मैंने ऊपर किया है। जो भावगत रहा उसे शब्दगत करने का सिरा जैसे मैं पकड़ नहीं पा रहा था। अचानक 9 जुलाई 2005 का The Telegraph समाचार पत्र हाथ में आया।सम्पादकीय के नीचे SCRIPSI में Stephen Harold Spender के इस उद्धरण को मैंने पढ़ा
But reading is not idlencess.... it is passive, receptive side of civilization without which the active and creative world be meaningless. It is the immortal spirit of the dead realised within the bodies of the living.
तुलसी प्रज्ञा जुलाई --दिसम्बर, 2006
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