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पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में अहिंसा-विमर्श
- प्रोफेसर प्रेम सुमन जैन
जैन संस्कृति का मूलाधार अहिंसा है। समता, संयम, स्वानुभूति आदि सब अहिंसा का ही विस्तार है। प्राचीन जैन ग्रन्थों में अहिंसा की जो व्याख्या है, उसे आचार्य अतचन्द्रसूरि ने दशमी शताब्दी के भारत में एक नए परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया है। अध्यात्म और अहिंसा का घनिष्ठ सम्बन्ध उन्होंने स्थापित किया है, जिसका प्रतिनिधि ग्रन्थ है- पुरुषार्थसिद्धयुपाय। पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रन्थराज में आचार्य अमृतचन्द्र ने उस अनेकान्त को नमस्कार किया है, जो परमागम का प्राण है, जन्म से अन्धे व्यक्तियों द्वारा हाथी के एकांश स्वरूप के कथन को जो निषेध करता है तथा जो सकल नयों से विभूषित पदार्थों के स्वरूप में प्रतिभाषित होने वाले विरोध को दूर करने वाला है। यथा -
परमागमस्य जीवं निषिद्धजात्यंधसिंधुरविधानम्। सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम्॥2॥
आचार्यश्री ने यह ग्रन्थ विद्वानों, समझदारों के लिए लिखा है और तीनों लोकों के लिए नेत्रस्वरूप परमागम को सावधानी पूर्वक अध्ययन करके इस ग्रन्थ में अहिंसादि व्रतों का निरूपण किया गया है। फिर भी आचार्य कहते हैं कि इसमें मेरा कुछ नहीं है। अनेक प्रकार के वर्षों से पद बन गये, पदों से वाक्य बन गये और वाक्यों से यह पवित्र शास्त्र बन गया, इसमें हमने कुछ नहीं किया है
वर्णेः कतानि चित्रैः पदानि तु पदैः कृतानि वाक्यानि। वाक्यैः कृतं पवित्रं शस्त्रमिदं न पुनरस्माभिः ॥ 226॥
इस प्रकार यह ग्रन्थ आचार्य श्री की विनयशीलता और आध्यात्मिक अनुभव का निचोड़ है। आचार्य अमृतचन्द्रसूरि तत्त्वज्ञान के अभिलाषी व्यक्ति को एक महत्त्वपूर्ण सूत्र ग्रहण करने को कहते हैं कि आगमज्ञान निश्चय और व्यवहार
तुलसी प्रज्ञा जुलाई -दिसम्बर, 2006 -
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