________________
नहीं भी है किन्तु प्रमादयोग है वहां पर हिंसा कहलाती है। उसके हिंसारूप परिणाम नहीं है किन्तु वीतरागरूप हैं और यत्नाचार-पूर्वक उनकी क्रिया है। जहां ये दोनों बातें हैं वहां हिंसा कदापि नहीं हो सकती। इस कारण जो मुनिराज सदा वीतराग परिणामों के साथ यत्नाचारपूर्वक गमनागमन आदि की क्रियाएं करते हैं, उसमें सूक्ष्म जीववध होने पर भी उन्हें हिंसा का पाप नहीं लगता जबकि सरागी व्यक्ति को प्रमाद का योग होने से प्राणाघात न होने पर भी हिंसा का पाप लगता है। इसलिए जैनशास्त्रों में यत्नाचार पर विशेष बल दिया गया है।
व्यक्ति के चारों ओर जीवराशि के सूक्ष्म जीव विद्यमान हैं, जो हलन-चलन, श्वास आदि की क्रियाओं से भी नष्ट होते रहते हैं। ऐसे में कोई व्यक्ति अहिंसक कैसे बने? इस समस्या के समाधान के लिए भी जैनाचार्यों ने यत्नाचार के पालन का उपदेश दिया है। यथा
जदं चरे जदं चिढ़े जदं मासे जदं सये। जदं भुंजेज भासेज एवं पावं न बज्झई ॥ - मूलाचार, गाथा, 1013
सावधानी पूर्वक चलने, सावधानी पूर्वक खड़ा होने, सावधानी पूर्वक बैठने, सावधानी पूर्वक सोने, सावधानी पूर्वक भोजन करने और सावधानी पूर्वक बोलने वाला संयमी व्यक्ति पाप कर्मों का बन्ध नहीं करता है। ___आचार्य अमृतचन्द्रसूरि यहां साधक को सचेत करते हैं कि यद्यपि बाह्य पदार्थों में हिंसा नहीं है, प्रमादयुक्त परिणामों में ही हिंसा है, फिर भी अहिंसा के पालक व्यक्ति को उन समस्त बाह्य पदार्थों, निमित्तों से सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए जो हिंसा को बढ़ाने में सहायक हों, जिनसे भावों में कषाय उत्पन्न होती हों। अतः हिंसा के निमित्तों को हटाना भी जरूरी है, तभी परिणामों में शुद्धता आ सकती है। यथा
सूक्ष्मापि न खलु हिंसा परवस्तुनिबंधना भवति पुंसः।
हिंसायतननिवृत्तिः परिणामविशुद्धये तदपि कार्या ॥ 49॥ हिंसा के ठिकाने और बहाने
पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रन्थ में आचार्य अमृतचन्द्रसूरि ने हिंसा के स्वरूप का विवेचन कर यह बतलाने का प्रयत्न किया है कि अहिंसक बनने के लिए हिंसा के ठिकानों को जानना जरूरी है, ताकि उन-उन हिंसक प्रवृत्तियों में अहिंसक व्यक्ति लिप्त न हो। इसी प्रकार दैनिक व्यवहार एवं धार्मिक कार्यों के नाम पर भी कई बहानों से जो हिंसा होती रहती है, उसे भी त्यागना जरूरी है। ग्रन्थ में प्रतिपादित इस विवरण को संक्षेप में इस प्रकार ज्ञात किया जा सकता है
तुलसी प्रज्ञा जुलाई -दिसम्बर, 2006
-
- 25
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org