Book Title: Tulsi Prajna 2006 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 27
________________ 4 दोनों नयों में अपेक्षादृष्टि रखने वाले को ही मिलता है, एकान्तवादी को नहीं ।' प्राचीन ग्रन्थों में भी कहा गया है कि यदि जिनमत में स्थिर होना चाहते हो तो व्यवहारनय एवं निश्चयनय को मत छोड़ो, क्योंकि व्यवहार नय को छोड़ने से व्रत, संयम, दान-पूजा, तप, आराधना आदि तीर्थ रूप धर्म की हानि होगी और निश्चयनय को छोड़ने से शुद्ध आत्मस्वरूप तत्त्व का बोध नहीं होगा जड़ जिणमयं पठिज्जह तो मा ववहार- णिच्छयं मुंच । एकेण विणा छिज्जड़ तित्थं, अण्णेण तच्वं च ॥ स्वयं में स्वयं की लीनता पुरुषार्थसिद्ध्युपाय नामक आचार्य अमृतचन्द्रसूरि का ग्रन्थ व्यवहार और निश्चय नय का प्रतिनिधि ग्रन्थ है। इसमें श्रावकाचार और मुनिधर्म दोनों का वर्णन है । आचार्यश्री ने ग्रन्थ के नाम की सार्थकता स्पष्ट करते हुए कहा है कि पुरुष के प्रयोजन की सिद्धि (प्राप्ति) के उपाय को बताने वाला यह ग्रन्थ है। यह आत्मा ही पुरुष है, जो स्पर्श-रस-गंध-वर्ण से रहित, गुण एवं पर्यायों से विशिष्ट, उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य से सहित चैतन्यमय है । यही पुरुषरूप आत्मा जब अपने शुद्ध स्वरूप का अनुभव करता है तब उसका प्रयोजन सिद्ध होता है, वीतरागपना तभी प्रकट होता है। इस प्रयोजन की सिद्धि का उपाय है- विपरीत श्रद्धान् को दूर करना तथा सम्यक् आत्म स्वरूप को समझकर फिर उससे चलायमान नहीं होना । स्वयं में स्वयं की लीनता ही परम लक्ष्य है। श्रावकाचार के पालन के बाद अलौकिक मुनिवृत्ति को धारण करने से यह स्वयंलीन होने का अनुभव प्राप्त होता है । आत्म-स्वरूप में निष्कंप लीन होने की स्थिति जितनी उच्च श्रेणी पर है, उतनी ही सबसे निम्न श्रेणी पर सकषाय की प्रवृत्ति है, जो हिंसा का मूल कारण है । अत: हिंसा को तिरोहित किये बिना व्रतों के अन्य सोपानों पर आरोहण नहीं हो सकता है । पुरुषार्थ की सिद्धि में हिंसा सबसे अधिक बाधक है और अहिंसा सबसे अधिक सहायक । इस कारण आचार्य इस ग्रन्थराज में हिंसा-अहिंसा के स्वरूप की सूक्ष्म व्याख्या की है। हिंसा किन-किन प्रवृत्तियों में हो सकती है, इसकी मौलिक खोज आचार्यश्री ने इस ग्रन्थ में प्रस्तुत अमृतचन्द्र की है और अहिंसा की उपलब्धि के मार्ग को प्रशस्त किया है। विकृत भाव : हिंसा आत्मा के परिणामों का पीड़ा जाना ही हिंसा है । जिस मन-वचन-काय से अपने अथवा पर के अथवा दोनों के परिणामों में आघात पहुंचे, दुःख हो, सन्ताप हो, कष्ट हो, उसी का नाम हिंसा है। जीव के परिणामों की पीड़ा को छोड़ कर हिंसा और कोई वस्तु नहीं है, इसी तुलसी प्रज्ञा अंक 132-133 22 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122