Book Title: Tulsi Prajna 2006 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 20
________________ लक्ष्य यह बनाया जाना चाहिए कि हम सुख और दुःख में व्याकुल न हों। दोनों को एक ही सत्य के दो रूप मानकर स्वीकार करें। यथा आगत तथागत हम प्रकृति के नियम के विरुद्ध नहीं जा सकते। विश्व की व्यवस्था ही ऐसी है कि उसके मूल में विरोधी युगल एक साथ रहते हैं। हमारी कठिनाई यह है कि हम उनमें से एक को अनुकूल और दूसरे को प्रतिकूल माने हुए हैं। हमने यह मान लिया है कि जीवन अनुकूल है, मृत्यु प्रतिकूल। हमें यह भी समझना चाहिए कि जीवन मृत्यु के बिना टिक नहीं सकता। जन्म होता रहे और मृत्यु न हो तो संसार नरक हो जाये। महात्मा बुद्ध का एक नाम है तथागत। तथागत का शब्दार्थ है जैसा आया वैसा गया। आना और जाना परस्पर पूरक हैं। न आने की प्रसन्नता, न जाने का दुःख-दोनों के प्रति केवल जैसे हैं, उस रूप में उन्हें जानने का भाव तथागतता है। कोई भी एक भाव एक क्षण के लिए टिकता है तो दूसरे क्षण उसका विरोधीभाव उसे पदच्युत कर देता है। इस क्षणिकता को समझकर महात्मा बुद्ध तथागत बन गयें। भेदाभेद भेद में छिपे अभेद को तब जाना जा सकता है जब हम सूक्ष्मता में जायें। स्थूल स्तर पर भेद ही दृष्टिगोचर होता है। वस्तुस्थिति यह है कि पूरा सत्य स्थूल और सूक्ष्म जोड़कर बना है, इसलिए जो सूक्ष्म को नहीं जान पाता उसके लिए भिन्नता शत्रुता का पर्यायवाची बन जाती है। जब यह सूक्ष्म को जान लेता है तब भेद उसके लिए परिपूरकता का पर्यायवाची बन जाता है। व्यक्ताव्यक्त हममें से हर एक के व्यक्त रूप के पीछे एक अव्यक्त रूप भी छिपा है। परिवर्तन का अर्थ है-अव्यक्त का व्यक्त हो जाना और व्यक्त का अव्यक्त हो जाना। यही हमारे लिए नयी संभावनाओं का द्वार खोलता है। ध्यान इसलिए रूपान्तर का साधन बन सकता है कि वह हममें छिपे हुए को उद्घाटित कर सकता है। रोग एक पर्याय है। निरोगता उसके पीछे छिपी है, इसलिए कोई भी रोगी स्वस्थ हो सकता है। इस संभावना को समझकर आत्मविश्वास जगाने की आवश्यकता है। प्राय: समझा जाता है कि जैन दर्शन द्वैतवादी है। वस्तुतः जैन दर्शन द्वैताद्वैतवादी है। इसी आधार पर प्राणी मात्र के अद्वैत को समझा जा सकता है। स्थावर-त्रस-पशु-मनुष्य ये सब व्यक्त पर्याय हैं और भिन्न-भिन्न हैं। इनके पीछे छिपी हुई एक ही चेतना है। तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2006 - 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122