Book Title: Tulsi Prajna 2006 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 18
________________ 6. परापरमाणु के क्षेत्र में एक symetry के सिद्धान्त ने विरोध में अविरोध देखने की दृष्टि दी। निम्न चार चित्रों को देखें इस चित्र में एक वर्तुल को दो भागों में बांटा गया है अ और ब। यदि यह पूछा जाये कि अ और ब भिन्न हैं या अभिन्न तो कहना होगा कि क्षेत्र की दृष्टि से अ और ब भिन्न किन्तु आकृति की दृष्टि से अभिन्न है। इन दोनों में बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव है। उत्पाद और व्यय में परस्पर ऐसा ही बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव है। इनमें एक दूसरे के बिना नहीं रह सकता। वे विरोधी हैं किन्तु इन दोनों का सह-अस्तित्व भी बना है। यही विरोध में अविरोधी की स्थापना है जिसे देखने की दृष्टि हमें अनेकान्त देता है। ___7. साधना के क्षेत्र में देश-काल की समन्वित अवधारणा ने एक नयी दृष्टि दी है हम सबका देश और काल पृथक्-पृथक् है किन्तु समन्वित देश-काल सबका एक है। यह समन्वित देश-काल अब और यहीं को एक मात्र सत्य मानता है जो कि व्यक्ति निरपेक्ष है। जब तक हम अब और यहीं अर्थात् वर्तमान में हैं तब तक हम वीतरागता की स्थिति में हैं जैसे ही हम भूत की स्मृति और भविष्य की कल्पना में जाते हैं वैसे ही राग-द्वेष हमें आकर घेर लेते हैं। राग-द्वेष में हमारी दृष्टि रञ्जित हो जाती है। अत: हम सबका सत्य अलग-अलग हो जाता है किन्तु वीतरागता की दृष्टि से हम सबका सत्य एक ही रहता है। द्वन्द्वों की दुनिया पदार्थ का नाम और रूप उस पदार्थ को दूसरे पदार्थ से भिन्न बनाता है। भेद का आधार है-विषमता। यह विषमता ही द्वैत का आधार है। अंधकार है, इसलिए प्रकाश का नाम प्रकाश है। अंधकार न हो तो प्रकाश शब्द ही न बन पाये। प्रकाश और अंधकार को साथ-साथ रहना होता है। यदि अंधकार में प्रकाश का अंश न हो तो अंधकार भी दृष्टिगोचर नहीं हो सकेगा। प्रकाश में भी तरतमता रहती है। प्रकाश की यह तरतमता प्रकाश में रहने वाले अंधकार के अंश के कारण है। अंधकार जैसे-जैसे कम होता जायेगा प्रकाश वैसे-वैसे बढ़ता जायेगा। यह द्वन्द्व सब स्तरों पर काम कर रहा है। व्यक्ति के स्तर पर प्राण और अपान के बीच द्वन्द्व है। व्यान इन दोनों में समन्वय स्थापित करता है। जब यह सामञ्जस्य टूट जाता है तो प्राण और अपान भी समाप्त हो जाते हैं और इनके समाप्त होने पर जीवन ही समाप्त हो जाता है। तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2006 - - 13 Jain Education International. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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