Book Title: Tirth Mala Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Parshwawadi Ahor

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Page 14
________________ तीर्थ माला संग्रह दीक्षा, केवलज्ञान तथा निर्वाण नामक तीन कल्याणक होने का प्रतिपादन किया गया है, आवश्यक सूत्रान्तर्गत सिद्धस्तव की निम्नोद्ध त गाथा में भी भगवान् नेमिनाथ के दीक्षा, ज्ञान और निर्वाण कल्याणक होने का सूचन मिलता है, जैसे उज्जित सेल सिहरे दिक्खा नाणं निसीहि आ जस्स । तंधम्म चक्क वहिं अरिठ्ठ नेमि नमसामि ॥४॥ अर्थात्-उज्जयंत पर्वत के शिखर पर जिसकी दीक्षा, केवल ज्ञान और निर्वाण हुआ उस धर्म चक्रवर्ती भगवान् नेमिनाथ को मैं नमस्कार करता हूं।' १. सिद्धस्तव की यह तथा इसके बाद की “चत्तारि अट्ट" यह दोनों गाथाएँ प्रक्षिप्त मालूम होती है, परन्तु ये कब और किसने प्रक्षिप्त की यह कहना कठिन है, प्रभावक चरित्रान्तर्गत आचार्य बप्प भट्टि के प्रबन्ध में एक उपाख्यान है, जिसका सारांश यह है कि-एक समय शत्रुजयउज्जयन्त तीर्थ की यात्रा के लिए राजा "आम" संघ लेकर उज्जयन्त की तलहटी में पहुँचा, वहाँ दिगम्बर जैन-संघ भी आया हुआ था, उन्होंने आम को ऊपर जाने से रोका, तब आम सैनिक बल का प्रयोग करने को उद्यत हुआ तो बप्प भट्ट सूरि ने उसको रोक कर कहा धार्मिक कार्यों के निमित्त प्राणी संहार करना अनुचित है इस झगड़े का निपटारा दूसरे प्रकार से होना चाहिए, इन्होंने कहा दो कुमारी कन्याओं को बुलाना चाहिए । श्वेताम्बरों की कन्या दिगम्बर संघ के पास और दिगम्बर संघ की कन्या श्वेताम्बर संघ के पास रखी जाय फिर दोनों संघ के अग्रेसर धर्माचार्य कन्याओं को तीर्थ का निर्णय करने के प्रमाण पूर्छ, आचार्य बप्प भट्टि सूरि ने श्वेताम्बर संघ की तरफ खड़ी दिगम्बर संघ की कन्या के मुख से श्री अम्बिका देवी द्वारा (उज्जि०) यह गाथा कहलाई, और तीर्थ श्वेताम्बर संप्रदाय को स्थापित किया। परन्तु यह उपाख्यान ऐतिहासिक दृष्टि से मूल्यवान नहीं है, क्योंकि आचार्य बप्प भट्टि विक्रम संवत् ८०० में जन्मे थे और नवमी शताब्दी में उनका जीवन व्यतीत हुआ था तब आचार्य हरिभद्र सूरिजी जो इनके सौ वर्ष से अधिक पूर्ववर्ती थे। सिद्धस्तव की टीका में लिखते हैं कि सिद्धस्तव की आदि की तीन गाथाएं नियम पूर्वक बोली जाती हैं, अन्तिम दो गाथाओं के बोलने का नियम नहीं है, इससे यह सिद्ध होता है कि ये गाथाएं हैं तो हरिभद्र सूरि जी के पूर्व काल की परन्तु है प्रक्षिप्त इसलिए आचार्य ने इनका बोलना अनियत बताया है, हरिभद्र सूरिजी के परवर्ती आचार्य हेमचन्द्र सूरिजी आदि ने भी अपने ग्रन्थों में यही आशय व्यक्त किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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