Book Title: Tirth Mala Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Parshwawadi Ahor

View full book text
Previous | Next

Page 117
________________ ११० तीर्थ माला संग्रह पूख यात्रा मई करी, संभारि परिवार ||मधुकर।। दिज्यो दरिसण आपणु, वलि मुज वीजी वार मधुकरापूर॥११०॥ आंकणी मांनि निहोरउ माहरउ, करि मुज पांख नु दांन ।मधुकर।। पांखवली ऊडी मिलू, इहां थी करस्यू ध्यान |मधु.।।१११।। भलि ए मानव भव लाउ, धर्माधर्म विचार ॥मधु.। तीरथ यात्रा म्हि करी, (पाठांतरं) भेटी तीरथ भूमिका, जनम लगी अविसार ।।मधुकर।।११२।। घरनइं सिद्धि सवणा हुआ, कासी थी कोस साव्ठिव ॥म.।। अडक अयोध्या, प्रावीया, जे वासी वड काठि ।म. पू.॥११३।। पांच तीर्थकर जनमीया, मूल अयोध्या दूरि ॥म.॥ जांणी थित वापी इहां, इम बोलि बहू सूरि ।।म. पू.॥११४॥ बहुल कतूहल लोकनां, राम घरणि धीज कुंड ॥म.॥ हरिचंदइ दीधू इहां, हरिणी हत्यादंड ।म. पू.॥११५।। सत कोसे सरजू तटइं, धरम जिणेसर जनम ॥म.॥ रंगिरुणाही प्रणमीइं, भाजि भव भय भरम ।।म. पू.॥ ११६।। देखू दरियावाद थी, दुर्ग दिशि कोस त्रीस । म.॥ सावत्या संभारिई, संभव जनम जगोस ।।म. पू॥११७॥ खंदक मुनी पील्ह्या इहाँ, तिहां ऊगि विस जाति म.॥ ऊगि किरिबातु कडू, दंडक वन अवदाति ॥म. पू.। ११८॥ पिटिं भारीपुर कंपिला, विमल जनम वंदेसि ।।म.॥ चुलणी चरित संभाल हो, ब्रह्मदत्त परवेसि ।।म. पू.११६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 115 116 117 118 119 120