Book Title: Tirth Mala Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Parshwawadi Ahor
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तीर्थ माला संग्रह संपादक पं. कल्याणविजय गणि प्रकाशक श्री पाश्र्ववाड़ी पोस्ट ग्राहो (राज.) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तीर्थ माला संग्रह 卐 प्रथमावृति १००० संपादक पं. कल्याणविजय गणि श्री प्राहोर नगरीय श्री चतुर्थ स्तुतिक संप्रदाय की श्रार्थिक सहायता से छपवाकर प्रसिद्ध किया वीर संवत् विक्रम संवत् २४६६ २०३० इसवी सन् १६७३ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक श्री पाववाड़ी पोस्ट आहोर (राजस्थान) प्रथम संस्करण : १६७३ मूल्य सदुपयोग मुद्रक प्रतापसिंह लूणिया जोब प्रिंटिंग प्रेस,ब्रह्मपुरी Education अजमेर-६-७३ Jain Education Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्ताविक दो शब्द इस पुस्तक में ग्रहण किये हुए प्राचीन तीर्थमालाएं और चैत्य परिपाटियां अपने हाथ से शिलानों ऊपर से लिखी हैं । अगर कोई शिला खोदने में भूल हुई होगी तो भी लिखने के समय उस भूल को भी ठीक कर दिया गया है। खास विचारणीय बात इतनी है कि इन तीर्थमालाओं के मुद्रण होने के समय में इनके प्रूफ हम नहीं देख सके इसके कारण से गलती रह गई हो तो पाठकगण पढ़ते समय भूल को सुधार कर पढ़ें। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम १. प्राचीन जैन तीर्थ - उपक्रम २. श्री शत्रुंजय तोर्थ मार्ग चैत्य परिपाटी ३. जालोर नगर चैत्य परिपाटी ४. पाटण चैत्य परिपाटी ५. श्री राजनगर तीर्थमाला ६. तीर्थाधिराजे श्री शत्रुंजय गिरी तोर्थमाला ७. श्री शत्रुंजय तीर्थ चैत्य परिपाटी ८. श्री तपगच्छ एवं खरतरगच्छक शत्रुंजय ६. श्री गिरनार तीर्थमाला १०. श्री नाडोल पंचतीर्थी की तीर्थमाला ११. श्री समेत शिखर चैत्य परिपाटी १२. श्री समेत शिखर तीर्थमाला पृ० 2 ३४ ३७ xx ४१ ४६ ५७ ६३ ७८ ८१ ८६ && १०१ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AMSTER MPPRENERALHEREMIRRORIEHENN A M FASNAHESHA EENETHERINEERHITTERINEETIRE R E EVENTS TOSAREENSH EHREMIER BRITHEREPRIMAESTHE HARSETTE PECAREEEETA EMANGARH SARAN SAHANENTERIONEHREWARE शEिATREENER AUNREEMBBSMEENADHEE SERIAMONIAHINEHEREREAL MAHARMIREONE HEHESHWAREERMANANE METAITHIVES 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। तीर्थ का शब्दार्थ यहां नदी समुद्र में उतरने अथवा उनसे बाहर निकलने का सुरक्षित मार्ग होता है आज की भाषा में इसे चाट और बन्दर कह सकते हैं। संसार समुद्र को पार कराने वाले जिनागम को और "जैनश्रमण-संघ' को भाव तीर्थ बताया गया है और इसकी व्युत्पत्ति 'तीर्यते संसार सागरो येन तत्-तीर्थम्" इस प्रकार की गई है तब नदी समुद्रों को पार कराने वाले तीर्थों को द्रव्य तीर्थ माना है। उपर्युक्त तीर्थों के अतिरिक्त जैन-आगमों में कुछ और भी तीर्थ माने गए हैं जिन्हें पिछले ग्रन्थकारों ने स्थावर-तीर्थों के नाम से निर्दिष्ट किया है, और वे दर्शन की शुद्धि करने वाले माने गये हैं। इन स्थावर तीर्थों का निर्देश प्राचाराङ्ग आवश्यक मादि सूत्रों की नियुक्तियां में मिलता है, जो मौर्य राज्य कालीन ग्रन्थ हैं। (क) जैन स्थावर तीर्थों में अष्टापद-(१) उज्जयन्त (२) गजाग्रपद (३) धर्मचक्र (४) अहिच्छत्रा पार्श्वनाथ (५) रथावर्त-पर्वत (६) चमरोत्पात (७) शत्रुञ्जय (८) सम्मेत शिखर (8) और मथुरा का देव-निर्मित-स्तूप (१०) इत्यादि तीर्थाका संक्षिप्त अथवा विस्तृत वर्णन जैन-सूत्रों तथा सूत्रों की नियुक्तियों भाष्यों में मिलता है। (ख) हस्तिनापुर (१) शौरीपुर (२) मथुरा (३) अयोध्या (४) काम्पिलपुर (५) बनारस (काशी) (६) श्रावस्ति (७) क्षत्रियकुण्ड (८) मिथिला (8) राजगृह (१०) अपापा (पावापुरी) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह ( ११ ) भद्दिलपुर ( १२ ) चम्पापुरी (१३) कौशाम्बी (१४) रत्नपुर (१५) चन्द्रपुरी (१६) आदि तीर्थंकरों की जन्म, दीक्षा, ज्ञान, निर्वाण, की भूमियों होने के कारण ये स्थान भी जैनों के प्राचीन तीर्थ थे, परन्तु वर्तमान समय में इनमें से अधिकांश विलुप्त हो चुके हैं, कुछ कल्याणक भूमियों में आज भी छोटे-बड़े जिन मंदिर बने हुए हैं, और यात्रिक लोक दर्शनार्थ जाते भी हैं । परन्तु इसका पुरातन महत्व आज नहीं रहा इन तीर्थों को हम "कल्याणक भूमि" कहते हैं । और (ग) उक्त तीर्थों के अतिरिक्त कुछ ऐसे भी स्थान जैन तीर्थों के रूप में प्रसिद्धी पाये थे जो कुछ तो श्राज नाम शेष हो चुके हैं कुछ विद्यमान भी हैं इनकी संक्षिप्त नाम सूची यह हैप्रभास-पाटन-चन्द्रप्रभ ( १ ) स्तम्भ तीर्थ-स्तम्भनक पार्श्वनाथ (२) भृगु कच्छ अश्वाव बोध शकुनिका - विहार मुनिसुव्रत ( ३ ) सूपारक ( नाला सोपारा) (४) शंखपुर - शंखेश्वर पार्श्वनाथ ( ५ ) चारूप पार्श्वनाथ ( ६ ) तारङ्गाहिल - अजितनाथ ( ७ ) अर्बुद गिरि ( आबू माउन्ट ) ( ८ ) सत्यपुरीय महावीर ( 8 ) स्वर्णगिरि महावीर (१०) करटक - पार्श्वनाथ ( ११ ) विदिशा (भिलसा) (१२) नासिक्य - चन्द्रप्रभ (१३) अन्तरिक्ष- पार्श्वनाथ (१४) कुल्पाक आदिनाथ (१५) खन्डगिरि ( भुवनेश्वर ) (१६) श्रमण बेलगोल ( १७ ) इत्यादि अनेक जैन प्राचीन तीर्थ प्रसिद्ध हैं इनमें जो विद्यमान है उनमें कुछ तो मौलिक हैं तब कतिपय प्राचीन तीर्थों के स्थानापन्न नव निर्मित जिन चैत्यों के रूप में अवस्थित हैं। तीसरी श्रेणी के जैन तीर्थों को हम पौराणिक तीर्थ कहते हैं, इनका प्राचीन जैन साहित्य में वर्णन न होने पर भी कल्पों जैन चरित्र ग्रन्थों तथा प्राचीन स्तुति स्तोत्रों में इनकी महिमा गाई गई है । उक्त तीन वर्गों में से इस लेख में हम प्रथम वर्ग के सूत्रोक्त तीर्थों का ही संक्षेप में निरूपण करेंगे । सूत्रोक्त तीर्थ आचाराङ्ग निर्युक्ति की निम्न लिखित गाथानों में प्राचीन जैन तीर्थों का नाम निर्देश मिलता है Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह " हंसरण नाण चरित तव वेरग्गेय होइउ पसत्था । जाय तहा ताय तहा लक्खणं वुच्छं सलक्खर प्रो ||३२|| तित्थगरारण भगव श्री पवयरण पावयरिण इसइड्डीणं । अभिगमरण नमरण द्ररिसण कित्तण संपूरणा थुरगणा ||३३०|| जम्मा भिसे निक्खमरण चरण नाणु प्पयाय निव्वाणे । दिय लोअ भवरण मंदर नंदीसर भोम नगरे सुं ||३३१|| अठावय मुज्जिते गयग्ग पयए य धम्म चक्के यं । पास रहा बत्तनगं चमरुप्पायंच वंदामि ।।३३२॥” अर्थात् - दर्शन, सम्यक्त्व ज्ञान, चारित्र, तप, वैराग्य, विनय विषयक भावनाऐं जिन कारणों से शुद्ध बनती हैं, उनको स्वलक्षणों के साथ कहूँगा ||३२|| तीर्थंकर भगवन्तों के उनके प्रवचन के प्रवचन प्रचारक, प्रभावक प्राचार्यों के केवल मनपर्यव अवधि ज्ञान वैक्रयादि अतिशायी लब्धिधारी, मुनियों के सन्मुख जाने, नमस्कार करने, उनका दर्शन करने, उनके गुणों का कीर्तन करने उनकी अन्न वस्त्रादि से पूजा करने से दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, वैराग्य, सम्बन्धी गुणों की शुद्धि होती है ॥ ३३० ॥ जन्म कल्याण स्थान जन्माभिषेक स्थान दीक्षा स्थान श्रमणावस्था की विहार भूमि केवल ज्ञानोत्पत्ति का स्थान और निर्वाण कल्याणक भूमिको तथा देव लोग प्रसुरादि के भवन मेरू पर्वत नन्दीश्वर के चैत्यों और व्यन्तर देवों के भूमिस्थ नगरों में रही हुई जिन प्रतिमाओं को तथा अष्टापद ( १ ) उज्जयन्त ( २ ) गजाग्रपद (३) धर्मचक्र (४) अहिच्छत्रास्थित पार्श्वनाथ (५) रघावर्तपदतीर्थ ( ६ ) चमरोत्पात ( ७ ) इन नामों से प्रसिद्ध जैन तीर्थों में स्थित जिन प्रतिमानों को मैं वन्दन करता हूँ । ( ३३१।३३२ ) नियुक्तिकार भगवान भद्रबाहु स्वामी ने तीर्थङ्कर भगवन्तों के जन्म, दीक्षा, विहार ज्ञानोत्पत्ति निर्वाण आदि के स्थानों को तीर्थ स्वरूप मानकर वहां रहे हुए जिन चैत्यों को वन्दन किया है, यही नहीं परन्तु राज प्रश्नीय जीवाभिगम, स्थानांग, भगवती आदि सूत्रों में वर्णित देव लोक स्थित प्रसुर भवन स्थित मेरू पर्वत स्थित Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह नन्दीश्वर द्वीप स्थित और व्यंतरदेवों के भूमिगर्भ स्थित नगरों में रहे हुए चैत्यों की शाश्वत जिन प्रतिमानों को भी वन्दन किया है । नियुक्ति की गाथा तीन सो बत्तीसवीं में नियुक्तिकार ने तत्कालीन भारतवर्ष में प्रसिद्धि पाये हुए सात शाश्वत जैन तीर्थों को वंदन किया है, जिनमें एक छोड़कर शेष सभी प्राचीन तीर्थ विच्छिन्न हो चुके हैं । फिर भी शास्त्रों तथा भ्रमण वृतान्तों से इनका जो वर्णन मिलता है उनके आधार पर इनका यहाँ संक्षेप में निरूपण किया जायगा । (१) अष्टापद - प्रष्टापद पर्वत ऋषभ देव कालीन प्रयोध्या से उत्तर की दिशा में अवस्थित था, भगवान ऋषभदेव जब कभी अयोध्या की तरफ पधारते तब " अष्टापद" पर्वत पर ठहरते थे और अयोध्यावासी राजा प्रजा उनकी धर्मसभा में दर्शन, वन्दनार्थ तथा धर्म श्रवरणार्थ जाते थे परन्तु वर्तमान कालीन प्रयोध्या के उत्तर दिशा भाग में ऐसा कोई पर्वत दृष्टिगोचर नहीं होता जिसे अष्टापद माना जा सके । इसके कारण अनेक ज्ञात होते हैं, पहला तो यह है कि उत्तर दिग् विभाग में भारत के रही हुई पर्वत श्रेणियां उस समय में इतनी ठंडी और हिमाच्छादित नहीं थी, जितनी प्राज हैं । दूसरा कारण यह है कि अष्टापद पर्वत के शिखर पर भगवान् ऋषभ देव उनके गणधर तथा अन्य शिष्यों का निर्वारण होने के बाद देवतात्रों ने तीन स्तूप और भरत चक्रवर्ती ने "सिंह निषद्या" नामक जिन चैत्य बनवाकर उसमें चौबीस तीर्थङ्करों की वर्णं मानोपेत प्रतिमाएं प्रतिष्ठित करवाके चैत्य के द्वारों पर लोहमय यान्त्रिक द्वारपाल स्थापित किये थे | इतना ही नहीं परन्तु पर्वत को चारों और से छिलवा कर सामान्य भूमि गोचर मनुष्यों के लिए शिखर पर पहुँचना अशक्य बनवा दिया था । उसकी ऊँचाई के प्राठ भाग कर क्रमशः आठ मेखलाएँ बनवाई थी, इसी कारण से इस पर्वत का 'अष्टापद' यह नाम प्रचलित हुआ था, भगवान् ऋषभदेव के इस निर्वाण-स्थान के दुर्गम बन जाने के बाद देव, विद्याधर, विद्याचारण, लब्धिधारी मुनि और जंघा चारण मुनियों के सिवाय अन्य Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थं माला संग्रह कोई भी दर्शनार्थी प्रष्टापद पर नहीं जा सकता था । और इसी कारण से भगवान महावीर स्वामी ने अपनी धर्म सभा में यह सूचित किया था कि जो मनुष्य अपनी प्रात्मशक्ति से अष्टापद पर्वत पर पहुँचता है वह इसी भवमें संसार से मुक्त होता है । अष्टापद के अप्राप्य होने का तीसरा कारण यह भी है, कि सगर चक्रवर्ती के पुत्रों ने अष्टापद पर्वत स्थित जिन चैत्य स्तूप आदि को अपने पूर्वज वंश्य भरत चक्रवर्ती के स्मारक के चारों तरफ गहरी खाई खुदवा कर उसे गंगा के जल प्रवाह से भरवा दिया था, ऐसा प्राचीन जैन कथा साहित्य में किया गया वर्णन आज भी उपलब्ध होता है ! उपर्युक्त अनेक कारणों से हमारा अष्टापद तीर्थ कि जिसका निर्देश श्रुत केवली भगवान् भद्रबाहु स्वामी ने अपनी आचाराङ्ग नियुक्ति में सर्व प्रथम किया है, हमारे लिये आज प्रदर्शनीय और लभ्य बन चुका है । आचाराङ्ग निर्युक्ति के अतिरिक्त श्रावश्यक नियुक्ति की निम्नलिखित गाथाओं से भी 'अष्टापद तीर्थ' का विशेष परिचय मिलता है अह भगवं भव महणो पुव्वाण मणूरणगं सय सहस्सं । अणु पुब्वि विहरिकरणं पत्तो अठ्ठा वयं सेलम् ।। ४३३ || अठ्ठा वयंमि सेले चउदस भत्तेण सो महरि सीगं । दसहि सहस्से हि समं निव्वाण मणुत्तरं पत्तो ॥ ४३४ ॥ निव्वाणं १ चिइ गागिई जिरणस्स इक्खाग सेसयाणं च २ । सहा ३ घूभ जिणहरे ४ जायग ५ तेणाहि श्रग्गिति ॥ ४३५ || J सब संसार दुःख का अन्त करने वाले भगवान् ऋषभदेव सम्पूर्ण एक लाख पूर्व वर्षों तक पृथ्वी पर विहार करके अनुक्रम से 'अष्टापद' पर पहुँचे और छः उपवास के तप के अन्त में दस हजार मुनिगरणों के साथ सर्वोच्च निर्वाण को प्राप्त हुए । ४३३।४३४ । भगवान् और उनके शिष्यों के निर्वारणानन्तर चतुरनिकायों के देवों ने आकर उनके शवों के अग्नि संस्कारार्थं तीन चिताऐं बनवाई पूर्व में गोलाकार चिता तीर्थंकर शरीर के दाहार्थ, दक्षिरण में त्रिकोणाकार चिता इक्ष्वाकु वंश्य के गणधरों के तथा महामुनियों के शव दाहार्थं बनवाई और पश्चिम दिशा की तरफ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह चौकोण चिता-शेष श्रमण गरण के शरीर संस्कारार्थ बनवाई । और तीर्थंकर आदि के शरीर यथा स्थान चिताओं पर रखवा कर अग्नि कुमार देवों ने उन्हें अग्नि द्वारा सुलगाया, वायु कुमार देवों ने वायु द्वारा अग्नि को जोश दिया और चर्म मांस के जल जाने पर, मेघ कुमारों ने जल वृष्टि द्वारा चिताओं को ठण्डा किया। तब भगवान् के उपरि बायें जबड़े की शक्रन्द्र ने, दाहिनी तरफ की ईशानेन्द्र ने तथा निचले जबड़े की बांई तरफ की चमरेन्द्र ने और दाहिनी तरफ की दाढायें बलीन्द्र ने ग्रहण की। इन्द्रों के अतिरिक्त शेष देवों ने भगवान् के शरीर की अन्य अस्थिएं ग्रहण करलीं, तब वहां उपस्थित राजादि मनुष्य गणने तीर्थंकर तथा मुनियों के शरीर दहन स्थानों की भस्मी को भी पवित्र जान कर ग्रहण कर लिया। चिताओं के स्थान पर देवों ने तीन स्तूप बनवाये और भरत चक्रवर्ती ने चौबीस तीर्थङ्करों की वर्ण मानोपेत सपरिकर मूर्ति स्थापित करने योग्य जिन गृह बनवाये उस समय जिन मनुष्यों को चिताओं से अस्थि, भस्मादि नहीं मिला था उन्होंने उसकी प्राप्ति के लिए देवों से बड़ी नम्रता के साथ याचना की जिससे इस अवसपिणी काल में याचक शब्द प्रचलित हुआ । चिता कुण्डों में अग्नि चयन करने के कारण तीन कुण्डों में अग्नि स्थापन करने का प्रचार चला, और वैसा करने वाले 'आहिताग्नि' कहलाये । उपर्युक्त सूत्रोक्त वर्णन के अतिरिक्त भी अष्टापद तीर्थ से सम्बन्ध रखने वाले अनेक वृत्तान्त सूत्रों चरित्रों तथा (पौराणिक प्रकीर्णक) जैन ग्रन्थों में मिलते हैं, परन्तु उन सबके वर्णनों द्वारा विषय को बढ़ाना नहीं चाहते । (२) उज्जयन्त ___ उज्जयन्त यह गिरनार पर्वतका प्राचीन नाम है, इसका दूसरा प्राचीन नाम रैवतक पर्वत भी कहते हैं "गिरनार" यह इसका तीसरा पौराणिक नाम है जो कल्पों, कथाओं आदि में मिलता है । उज्जयन्त तीर्थ का नाम निर्देश प्राचाराङ्ग नियुक्ति में किया गया है, जो ऊपर बता पाये हैं, इसके अतिरिक्त कल्पसूत्र (दशाश्रुत स्कन्ध अष्टमाध्ययन) आवश्यक सूत्र आदि में भी इसके उल्लेख मिलते हैं। कल्पसूत्र में इस पर भगवान 'नेमिनाथ' के Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह दीक्षा, केवलज्ञान तथा निर्वाण नामक तीन कल्याणक होने का प्रतिपादन किया गया है, आवश्यक सूत्रान्तर्गत सिद्धस्तव की निम्नोद्ध त गाथा में भी भगवान् नेमिनाथ के दीक्षा, ज्ञान और निर्वाण कल्याणक होने का सूचन मिलता है, जैसे उज्जित सेल सिहरे दिक्खा नाणं निसीहि आ जस्स । तंधम्म चक्क वहिं अरिठ्ठ नेमि नमसामि ॥४॥ अर्थात्-उज्जयंत पर्वत के शिखर पर जिसकी दीक्षा, केवल ज्ञान और निर्वाण हुआ उस धर्म चक्रवर्ती भगवान् नेमिनाथ को मैं नमस्कार करता हूं।' १. सिद्धस्तव की यह तथा इसके बाद की “चत्तारि अट्ट" यह दोनों गाथाएँ प्रक्षिप्त मालूम होती है, परन्तु ये कब और किसने प्रक्षिप्त की यह कहना कठिन है, प्रभावक चरित्रान्तर्गत आचार्य बप्प भट्टि के प्रबन्ध में एक उपाख्यान है, जिसका सारांश यह है कि-एक समय शत्रुजयउज्जयन्त तीर्थ की यात्रा के लिए राजा "आम" संघ लेकर उज्जयन्त की तलहटी में पहुँचा, वहाँ दिगम्बर जैन-संघ भी आया हुआ था, उन्होंने आम को ऊपर जाने से रोका, तब आम सैनिक बल का प्रयोग करने को उद्यत हुआ तो बप्प भट्ट सूरि ने उसको रोक कर कहा धार्मिक कार्यों के निमित्त प्राणी संहार करना अनुचित है इस झगड़े का निपटारा दूसरे प्रकार से होना चाहिए, इन्होंने कहा दो कुमारी कन्याओं को बुलाना चाहिए । श्वेताम्बरों की कन्या दिगम्बर संघ के पास और दिगम्बर संघ की कन्या श्वेताम्बर संघ के पास रखी जाय फिर दोनों संघ के अग्रेसर धर्माचार्य कन्याओं को तीर्थ का निर्णय करने के प्रमाण पूर्छ, आचार्य बप्प भट्टि सूरि ने श्वेताम्बर संघ की तरफ खड़ी दिगम्बर संघ की कन्या के मुख से श्री अम्बिका देवी द्वारा (उज्जि०) यह गाथा कहलाई, और तीर्थ श्वेताम्बर संप्रदाय को स्थापित किया। परन्तु यह उपाख्यान ऐतिहासिक दृष्टि से मूल्यवान नहीं है, क्योंकि आचार्य बप्प भट्टि विक्रम संवत् ८०० में जन्मे थे और नवमी शताब्दी में उनका जीवन व्यतीत हुआ था तब आचार्य हरिभद्र सूरिजी जो इनके सौ वर्ष से अधिक पूर्ववर्ती थे। सिद्धस्तव की टीका में लिखते हैं कि सिद्धस्तव की आदि की तीन गाथाएं नियम पूर्वक बोली जाती हैं, अन्तिम दो गाथाओं के बोलने का नियम नहीं है, इससे यह सिद्ध होता है कि ये गाथाएं हैं तो हरिभद्र सूरि जी के पूर्व काल की परन्तु है प्रक्षिप्त इसलिए आचार्य ने इनका बोलना अनियत बताया है, हरिभद्र सूरिजी के परवर्ती आचार्य हेमचन्द्र सूरिजी आदि ने भी अपने ग्रन्थों में यही आशय व्यक्त किया है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह उज्जयन्त तीर्थ के सम्बन्ध में अन्य भी अनेक सूत्रों तथा उनकी टीकाओं में उल्लेख मिलते हैं, परन्तु इन सबका यहां वर्णन करके लेख को बढ़ाना उचित न होगा। प्राचार्य जिन प्रभसूरि कृत 'उज्जयन्त महा तीर्थ कल्प' तथा अन्य विद्वानों के रचे हुए प्रस्तुत तीर्थ के 'स्तव' आदि के कतिपय उपयोगो उद्धरण देकर इस विषय का निरूपण करना ही पर्याप्त समझा जाता है। उज्जयन्त पर्वत के अद्भुत खनिज पदार्थों से समृद्धिशाली होने के सम्बन्ध में प्राचार्य जिन प्रभ ने अपने कल्प में बहुत सी बातें कही हैं, जिनमें से कुछेक मनोरंजक नमूने पाठकों के अवलोकनार्थ नीचे दिये जाते हैं 'अवलोअण सिहर सिला अवरेणं तत्थगर रसोसवइ । सु अपक्ख सरिस वण्णो करेइ सुव्वं वरं हेमम् ।।२७।। गिरि पजुन्न बयारे अंबिअ आसम पयं च नामेण । तत्थ विपीपा पुहवी हिमवाए धमियाए वा होइवर हेमं ॥२८॥ (वि. ती. क. पृ. ८) उज्जित पढम सिहरे प्रारूहिउं दाहिणेन अवपरिउं । तिण्णि धणूसय मित्ते पूइकरं जं बिलं नाम ॥३०॥ उग्धाडिडं बिलं दिक्खिऊण निउणेन तत्थ गंतव्वं । दण्डं तराणि बारस दिव्व रसो जंबु फल सरिसो॥३१॥ (वि. ती. क. पृ. ८) उज्जिते नाण सिला विक्खाया तत्त्थ अत्त्थि पाहाणं । ताणं उत्तर पासे दाहिणय अह मुहो विवरो ॥३६॥ तस्स य दाहिण भाए दस धणु भूमीइ हिंगुल य वण्णो। अत्थि रसो सयवेही विधइ सुव्वं न संदे हो ॥३७॥ (वि. ती. क. पृ९) इय उज्जयन्त कप्पं अवि अप्पं जो करेइ जिण भत्तो। कोहंडिकय पणामो सो पावइ इच्छि अं सुक्खं ॥४१॥ (वि. ती. क. पृ. ६) अर्थात्-अवलोकन शिखर की शिला के पश्चिम दिग विभाग में शुक की पांखकासा हरे रंग का वेधक रस झरता है जो ताम्र को श्रेष्ठ सुवर्ण बनाता है ॥२७॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह उज्जयन्त पर्वत के प्रद्युम्नावतार तीर्थ स्थान में अम्बिका श्रम पद नामक वन है, जहां पर पति वर्ण की मिट्टी पाई जाती जिसे तेज आग की आँच देने से बढ़िया सोना बनता है ।२८। उज्जयन्त पर्वत के प्रथम शिखर पर चढ़कर दक्षिण दिशा में न सो धनुष अर्थात् बारहसो हाथ नीचे उतरना वहाँ पूति करज्ज मक एक बिल अर्थात भू विवर मिलेगा, उसको खोलकर सावधानी साथ उसमें प्रवेश करना और अड़तालीस हाथ तक भीतर जाने र लोहे को सोना बनाने वाला दिव्य रस मिलेगा जो जंबुफल दृश रंग का होगा ।।३०।३१।। उज्जयन्त पर्वत पर 'ज्ञानशिला' नामसे प्रख्यात एक बड़ो शिला जिस पर एक गण्ड शैलों का जत्था रहा हुआ है उससे उत्तर शा में जाने पर दक्षिण की तरफ जाने वाला एक अधोमुख विवर लेगा, उसमें चालीस हाथ नीचे उतरने पर दक्षिण भाग में हिंगुल । सा रक्त वर्ण शतवैधोरस मिलेगा जो तांबे को वेधकर सोना नाता है इसमें कोई संशय नहीं है ।३६।३७।। इस प्रकार जो जिन भक्त कुष्माण्डी (अंबा) देवो को प्रणाम रके मनमें शंका लाये बिना उज्जयन्त पर्वत पर रसायन कल्प धिना करेगा वह मनोभिलषित सुख को प्राप्त होगा ।४१। जिन प्रभ सूरि कृत उज्जयन्त महाकल्प के अतिरिक्त अन्य ने अनेक कल्प और स्तव उपलब्ध होते हैं, जो पौराणिक होते ए भी ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्व के हैं। हम इन सब द्धरण देकर लेख को नहीं बढ़ायेंगे, केवल उपयोगी संक्षिप्त सारांश कर लेख को पूरा करेंगे। 'रैवतक गिरी' कल्प संक्षेप में इस तीर्थ के विषय में कहा गया । भगवान नेमि नाथ ने छत्रशिला के समीप शिलासन पर दीक्षा हण की सहसाम्र वनमें केवल ज्ञान प्राप्त किया लक्षाराम में म देशना की और अवलोकन नामक ऊँचे शिखर पर निर्वाण प्ति किया। रैवत की मेखला में कृष्ण वासुदेव ने निष्क्रमणादि तीन Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह कल्याणकों का उत्सव करके रत्न प्रतिमानों से शोभित तीन जिन चैत्य तथा एक अम्बा देवी का मंदिर बनवाया। (जि.क.ती.पृ. ६) "रैवतक गिरि'' कल्प में कहा है-पश्चिम दिशा में सौराष्ट्र देश स्थित रैवत पर्वतराज के शिखर पर श्री नेमिनाथ का बहुत ऊँचे शिखर वाला भवन था जिसमें पहले भगवान् नेमिनाथ की लेपमयी प्रतिमा प्रतिष्ठित थी एक समय उत्तरापथ के विभूषण समान काश्मीर देश से अजित तथा रतना नामक दो भाई संघपति बनकर गिरनार तीर्थ की यात्रा करने आये । और भक्तिवश केशर चंदनादि के घोलसे कलशे भरकर उस प्रतिमा को अभिषिक्त किया, परिणाम स्वरूप वह लेपमयी प्रतिमा लेप के गल जाने से बहुत ही बिगड़ गई, इस घटना से संघ पति युगल बहुत ही दुःखी हुआ और आहार का त्याग कर दिया इक्कीस दिन के उपवास के अन्त में भगवती श्री अम्बिका देवी वहां प्रत्यक्ष हुई और संघपति को उठाया, उसने देवी को देखकर जय जय शब्द किया, देवी ने संघपति को रत्नमय प्रतिमा देते हए कहा लो ! यह प्रतिमा ले जाकर बैठा दो पर प्रतिमा को स्थान पर बिठाने के पहले पीछे नहीं देखना, संघपति अजीत सूत के कच्चे धागे के सहारे प्रतिमा को अन्दर लेजा रहा था वह प्रतिमा के साथ नेमि-भवन के सुवर्ण बलानक में पहुँचा और बिंब के द्वार की देहली के ऊपर पहुंचते संघपति का हृदय हर्ष से उमड़ पड़ा और देवी की शिक्षा को भूलकर सहसा उसका मुह पिछली तरफ मुड़ गया और प्रतिमा वहां ही निश्चल हो गई, देवी ने जय जय शब्द के साथ पुष्प वृष्टि की यह प्रतिमा संघपति द्वारा नव निर्मित जिन प्रासाद में वैशाख शुक्ल पूर्णिमा को प्रतिष्ठित हुई । स्नपनादि महोत्सव करके संघपति अजीत अपने भाई के साथ स्वदेश पहुँचा। कलिकाल में मनुष्यों के चित्त की कलुषता जानकर अम्बिका देवी ने उस रत्नमयी प्रतिमा की झलहलती कांति को ढांप दिया। (वि. ती. क. पृ. ६) इसी कल्प में इस तीर्थ सम्बन्धी अन्य भी ऐतिहासिक उल्लेख मिलते हैं जो नीचे दिये जाते हैं 'पुट्वि गुज्जर धराए जयसिंह देवेणं खंगार रायं हणित्ता Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह ११ सज्जरणो दंडा हिवो ठाविप्रो । तेण अ अहिरणवं नेमि जिणंद भवर एगार सय पंचासोए (१९८५) विक्कम राय बच्छरे काराविनं । मालव देस मुह मंडणेणं साहु भावडेणं सोवण्णं आमल सारं कारि । चोलुक्क चक्कि सिरि कुमार पाल नरिन्द संठवि सोरट्ठ दंडा हिवेण सिरि सिरिमाल कुलुब्भवेण बारस सय वीसे (१२२० ) विक्कम संवच्छरे पज्जा काराविना । पज्जाए तेहिं जहिं दाहिण दिसाए लक्खारामो दीसई ।" (वि. ती. क. पृ. 8) अर्थात् - ' पूर्वकाल में गुर्जर भूमिपति चौलुक्य राजा जयसिंह देवने जूनागढ के राजा राव खेङ्गार को मारकर दण्डाधिपति सज्जन को वहां का शासक नियुक्त किया सज्जन ने विक्रम संवत् ११८५ भगवान् नेमिनाथ का शासक नियुक्त किया । सज्जन ने विक्रम संवत् ११८५ में भगवान् नेमिनाथ का नया भवन बनवाया, बाद में मालव भूमि-भूषण साधु भावउ ने उसपर सुवर्णमय आमल सारक बनवाया । ' 'चोलुक्य चक्रवर्ती श्री कुमार पाल देव नियुक्त श्री श्रीमाल कुलोत्पन्न सौराष्ट्र दण्डाधिपति ने विक्रम संवत् १२२० में उज्ज - यन्त पर्वत पर चढ़ने के लिए सोपानमय - मार्ग करवाया और उसके पुत्र घवलने सोपान मार्ग में प्याऊ बनवाई, इस पद्या मार्ग से ऊपर चढ़ने वाले यांत्रिक जनों को दक्षिण दिशा में लक्षाराम नामक उद्यान दीखता है । इन कल्पोंकों के अतिरिक्त उज्जयन्त तीर्थ के साथ सम्बन्ध रखने वाले अनेक स्तुति स्तोत्र भी भिन्न-भिन्न कवियों के बनाये हुये जैन ज्ञान भाण्डागारों में उपलब्ध होते हैं, जिनमें से थोड़े से श्लोक नीचे उद्धृत करके इस तीर्थ का वर्णन समाप्त करेंगे । "योजन द्वय तु गेऽस्य शृंगे जिन गृहावलिः । पुण्य राशि रिवा भाति शरच्चद्रांशु निर्मला ||४|| सौवर्ण दण्ड कलशामल सारक शोभितम् । चारु चैत्यं चकारास्योपरि श्रीनेमिनः प्रभुः ||५|| Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह श्री शिवा सूनु देवस्य पादुकात्र निरीक्षता । स्पृष्टाच्चिता च शिष्टानां पाप व्यूहं व्यापोहति ॥६।। प्राप्यं राज्यं परित्यज्य जर तृण मिव प्रभुः । बन्धून् विधूय च स्निग् धान् प्रपेदेऽत्र महाव्रतम् ।।७।। अत्रैव केवलं देवः स एव प्रति लब्धवान् । जगज्जनहितैषी स पर्यणैवीच्च निर्वृतिम् ।।८।।" अर्थात्-इस उज्जयन्त गिरि के दो योजन ऊँचे शिखर पर बनवाने वालों की निर्मल पुण्य राशि किसी चन्द्र किरण जैसी उज्जवल जिन मन्दिरों को पंक्ति सुशोभित हैं । इसी शिखर पर सुवर्ण मय दण्ड कलश तथा आमल सारक से सुशोभित भगवान नेमिनाथ का सुन्दर चैत्य दृष्टि गोचर हो रहा है । यहीं पर प्रतिष्ठित शैवेय-जिनकी चरण पादुका दर्शन, स्पर्शन, और पूजन से भाविक यात्रिगण के पाप को दूर करती है। और यहीं पर जीर्ण तिनखे को तरह समृद्ध राज्य, तथा विशाल कुटुम्बका त्याग कर भगवान नेमिनाथ ने महाव्रत धारण किये थे । और यहीं पर भगवान केवलज्ञानी हुए तथा जगत् हितचिन्तक भगवान् नेमिनाथ यहीं से निर्वाण पद पाये। "अत एवात्र कल्याण त्रय मन्दिर मादधे । श्री वस्तु पालो मंत्रीश श्चत्कारित भव्य हृत् ॥६॥ जिनेन्द्र बिम्ब पूर्णेन्द्र मण्डपस्था जना इह । श्री नेमेमज्जनं कर्तु मिन्द्रा इव चकासती ॥१०॥ गजेन्द्र पद नामास्य कुण्डं मण्डयते शिरः । सुधा विधैर्जलैः पूर्ण स्नानार्ह त्स्नपन क्षपैः ।।११।। शत्रुञ्जया वतारेऽत्र वस्तु पालेन कारिते । ऋषभः पुण्डरी कोऽष्टा पदो नन्दी श्वरस्तथा ।।१२।। सिंह याना हेमवर्णा सिद्ध बहु सुतान्विता। कम्राम्र लुम्बिभृत् पाणि रत्राम्बा संघ विघ्नहृत् ॥१३।। (वि. ती. क. पृ. ७) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह १३ यहां पर भगवान के तीन कल्याणक होने के कारण से ही मन्त्रीश्वर वस्तुपाल ने सज्जनों के हृदय को चमत्कृत करने वाला तीन कल्याणक मंदिर बनवाया । जिन प्रतिमाओं से भरे इस इन्द्र मण्डप में रहे हुए भगवान नेमिनाथ स्नपन कराने वाले पुरुष इन्द्र की शोभा पाते हैं । इस पर्वत की चोटी को गजेन्द्र-पद- नामक कुण्ड, जो अमृत के से जलसे भरा और स्नपनीय जिन प्रतिमाओं का स्नपन कराने में समर्थ हैं—भूषित कर रहा है । यहाँ वस्तुपाल, द्वारा कारित शत्रुञ्जयावतार विहार में भगवान ऋषभ देव गणधर पुण्डरीक स्वामी अष्टापद- चैत्य, तथा नन्दीश्वर चैत्य यात्रियों के लिए दर्शनीय चीज हैं । इस पर्वत पर सुवर्ण की कान्तिवाली, सिंहवाहनपर प्रारूढ़ सिद्ध-बुद्ध नामक अपने पूर्व भविक दो पुत्रों को साथ लिए कमनीय ग्रामकी लुम्ब जिसके हाथ में है, ऐसी अम्बा देवी यहाँ रही हुई संघ के विघ्नों का विनाश करती है । उज्जयन्त तीर्थ सम्बन्धी उक्त प्रकार के पौराणिक तथा ऐतिहासिक वृत्तान्त बहुतेरे मिलते हैं, परन्तु उनके विवेचन का यह योग्य स्थल नहीं, हम इसका विवेचन यहीं समाप्त करते हैं । (३) गजाग्रपद तीर्थ गजाग्रपद भी आचारांग निर्युक्ति निर्दिष्ट तीर्थों में से एक है, परन्तु वर्तमान काल में व्यवच्छिन्न हो चुका है, इसकी अवस्थिति सूत्रों में दशार्णंपुर नगर के समीपवर्ती दशार्ण- कूट पर बताई गई | आवश्यक चूरिंग में भी इस तीर्थ को दशार्ण देश के दशार्णपुर के समीपवर्ती पहाड़ी तीर्थ लिखा है । और इसकी उत्पत्ती का वर्णन भी दिया है, जिसका संक्षेप सार नीचे दिया जाता है । एक समय श्रमण भगवान महावीर विचरते हुए अपने श्रमण संघ के साथ दशार्णपुर के समीपवर्ती एक उपवन में पधारे । राजा दशार्णभद्र को उद्यान पालक ने भगवान के पधारने की बधाई दी । श्री भगवान का आगमन सुनकर राजा बहुत ही हर्षित हुआ । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह उसने सोचा कल ऐसी तैयारी के साथ भगवन्त को वन्दन करने जाऊँगा, और ऐसे ठाट से वन्दन करूँगा जैसे ठाट से न पहले किसी ने किया होगा न भविष्य में करेगा । उसने सारे नगर में सूचित करवा दिया कि कल अमुक समय में राजा अपने सर्व परिवार के साथ भगवान महावीर को वन्दन करने जावेंगे, और नागरिकगणों को भी उसका अनुगमन करना होगा । राजकीय कर्मचारीगण उसी समय से नगर की सजावट चतूरंगिनी सेना के सज्ज करने तथा अन्यान्य समयोचित तय्यारियां करने के कामों में जुट गए । नागरिक जन भी अपने-अपने घर हाट सणगारने, रथ, यान तथा पालकियों को सज्ज करने लगे। दूसरे दिन प्रयाण का समय आने के पहले ही सारा नगर ध्वजाओं, तोरणों, पुष्प मालाओं से सुशोभित था, मुख्य मार्गों में जल छिड़काकर फूल बिखेरे गए थे । राजा दशार्णभद्र उसका सम्पूर्ण अन्तःपुर और दास-दासीगण अपने योग्य यानों, वाहनों से भगवान् के वन्दनार्थ रवाना हुए, उनके पीछे नागरिक भो रथों, पालकियों आदि में बैठकर राज कुटुम्ब के पीछे उमड़ पड़े। महावीर की धर्म सभा की तरफ जाते हुए राजा के मन में सगर्व हर्ष था । वह अपने को भगवान महावीर का सर्वोच्च शक्तिशाली भक्त मानता था, ठीक उसी समय स्वर्ग के इन्द्र ने भगवान महावीर के विहार-क्षेत्र को लक्ष्य करके अवधि-ज्ञान का उपयोग किया और देखा कि भगवान् दशार्ण कूट पहाड़ी के निकटस्थ उद्यान में विराजमान हैं, और राजा दशार्ण भद्र अद्वितीय सज-धज के साथ उन्हें वन्दन करने जा रहा है। इन्द्र ने भी इस प्रसंग से लाभ उठाना चाहा, वह अपने ऐरावत हाथी पर आरूढ होकर दिव्य परिवार के साथ क्षण भर में भगवान के पास आ पहुँचा, उसने तीन प्रदक्षिणा देकर दशार्ण कूट पर्वत की एक लंबी-चौड़ी चट्टान पर अपना वाहन ऐरावत हाथी उतारा । दिव्य शक्ति से इन्द्र ने हाथी के अनेक दांतों पर, अनेक-अनेक बावडियां, बावडियां में अनेक-अनेक कमल और कमलों की कणिकाओं पर देव प्रसाद, और उनमें होने वाले बत्तीस पात्र-बद्ध नाटकों के अद्भुत दृश्य Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह दिखला कर राजा को शक्ति और सजावट को निस्तेज बना कर उसके अभिमान को नष्ट कर दिया राजा ने देखा इन्द्र की शक्ति के सामने मेरी शक्ति नगण्य है, भला सूर्य के प्रकाश के सामने छोटा सा सितारा कैसे चमक सकता है । उसने अपने पूर्व भव के धर्म कृत्यों की न्यूनता जानी और भगवान महावीर का वैराग्यमय उपदेशामृत पाकर संसार का मोह छोड़ कर श्रमण धर्म में दीक्षित हो गया। दशार्ण कूटकी जिस विशाल शिला पर इन्द्र का एरावत खड़ा था उस शिला में उसके अगले पैरों के चिन्ह सदा के लिए बन गए, बाद में भक्त जनों ने उन चिन्हों पर एक बड़ा जिन चैत्य बनवाकर उसमें भगवान महावीर की मूर्ति प्रतिष्ठित करवाई, तब से इस स्थान का 'गजाग्रह पद' तीर्थ सदा के लिये अमर हो गया। ___ आज यह गजाग्रह पद तीर्थ भूला जा चुका है, यह स्थान भारत भूमि के किस प्रदेश में था यह भी निश्चित रूप से कहना कठिन है, फिर भी हमारे अनुमान के अनुसार मालवा के पूर्व में और आधुनिक बुन्देलखण्ड के प्रदेश में कहीं होना संभवित है । (४) धर्म चक्र-तीर्थ आचारांग नियुक्ति सूचित यह चौथा धर्मचक्र तीर्थ है, धर्मचक्र तीर्थ की उत्पत्ती का विवरण आवश्यक नियुक्ति तथा उसकी प्राचीन प्राकृत टोका में नीचे लिखे अनुसार मिलता है 'कल्लंस विड्डीए पूए महऽदछु धम्म चक्कं तु । विहरइ सहस्स मेगं छउमत्थो भारहे वासे ।।३३५।।' अर्थात् (भगवान ऋषभदेव हस्तिनापुर से विहार करते हुए पश्चिम में बहली प्रदेश की राजधानी तक्षशिला' के उद्यान में पधारे, वन पालकने राजा बाहुबलि को भगवान के आगमन की बधाइ दो, राजा ने सोचा ! कल सर्वऋद्धि विस्तार के साथ भग१. आधुनिक पश्चिम पंजाब के रावलपिडि जिले में 'शाह की ढेरी' नाम से जो स्थल प्रसिद्ध है वहीं पर प्राचीन तक्षशिला थो ऐसा शोधकों ने निर्णय किया है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ तीर्थ माला संग्रह वान की पूजा करूँगा । राजा बाहुबलि दूसरे दिन बडे ठाठ बाट से भगवान की तरफ गया । परन्तु उसके जाने के पूर्व ही भगवान वहाँ से विहार कर चुके थे । अपने पूज्यपिता ऋषभ को निवेदित स्थान तथा उसके आस-पास न देख कर बाहुबली बहुत ही खिन्न हुआ और वापस लौट कर भगवान रात भर जहाँ ठहरे थे उस स्थान पर एक बड़ा गोल चक्राकार स्तूप बनवाया और उसका नाम 'धर्मचक्र' दिया । भगवान ऋषभदेव छद्मावस्था में एक हजार वर्ष तक विचरे । आवश्यक निर्युक्ति की उपर्युक्त गाथा के विवरण में चूरिंग - कार नं धर्मचक्र के सम्बन्ध में जो विशेषता बताई है वह निम्न लिखित है । 'जहाँ भगवान ठहरे थे उस स्थान पर सवं रत्नमय एक योजन परीधि वाला, जिसपर पांच योजन ऊँचा ध्वज दण्ड खड़ा है, धर्मचक्र का चिन्ह बनवाया ।' बहली डंबइल्ला जोगग विसो सुवण्ण भूमि न । आहिंडिना भगव आ उसभेरण तवं चंरतेणं ॥ ३३६ ॥ बहली जोग पल्ह गाय जे भगवया समरणु सिट्ठा । अन्ते यमिच्छ जाईते तइना भद्दया जाया ||३३७|| तित्थयराणं पढमो उसभरिसि विहरि प्रो निरूव सग्गो । अट्ठाव ओरण गवरो अग्ग (य) भूमि जिग वरस्स ।। ३३८ || छ उमत्थ घरि श्राश्रो वास सहस्सं तम्रो पुरिम ताले । गग्गो हस् य हेट्ठा उपरणं फग्गुण बहुले एक्कार सीइ ग्रह उप्पण्णं मि भरते महव्वया केवरणं नाणं ।। ३३६ ।। अठमेण भत्तेणं । पंच पण्णव ॥ ३४० ॥ | अर्थात् — बहली (ब्ल्ख - बाख्तरिया) ग्रडंब इल्ला ( अटक - प्रदेश ) यवन (यूनान) देश और सुवर्ण भूमि ( ब्रह्म प्रदेश ) इन देशों में भगवान ऋषभ ने तपस्वी जीवन में भ्रमण किया । बल्ख, यवन, पल्हग देश वासी भगवान के अनुशासन से क्रौर्य का त्याग कर भद्र परिणामी Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह बने । तीर्थंकरों में आदि तीर्थंकर ऋषभ मुनि सर्वत्र निरूप सर्गता से विचरे आदि जिनकी अग्र विहार भूमि अष्टापद पर्वत बना रहा अर्थात् पूर्व पश्चिम भारत के देशों में घूमकर मध्य भारत में आते तब बहधा अष्टापद पर्वत पर ही ठहरते । भगवान ऋषभ जिनका छद्मस्थ पर्याय (तपस्वी-जीवन) हजार वर्ष तक बना रहा, बाद में आपको पुरिमताल नगर के वटवृक्ष के नीचे ध्यान करते हुए केवल-ज्ञान प्रकट हुआ, उस समय आपने निर्जल तीन उपवास किये थे, फाल्गुन वदि एकादशी का दिन था। इन संजोगों में अनन्त केवलज्ञान प्रकट हुआ और आपने श्रमण धर्म के पंच महाव्रतों का उपदेश किया। धर्मचक्र को बाहुबलि ने ऋषभदेव के स्मारक के रूप में बनवाया था, परन्तु कालान्तर में उस स्थान पर जिन चैत्य बनकर जिन प्रतिमाएं प्रतिष्ठित हुईं, और इस स्मारक ने एक महातीर्थ का रूप धारण किया, प्रतिष्ठित जिन चैत्यों में "चन्द्रप्रभ नामक आठवें तीर्थंकर" का चैत्य प्रधान था, इस कारण से इस तीर्थ ने चन्द्रप्रभ के साथ अपना नाम जोड़ दिया और लम्बे काल तक वह इसी नाम से प्रसिद्ध रहा । महानिशीथ नामक जैन सूत्र में इसका वृत्तान्त मिलता है जिसमें से थोड़ा सा अवतरण यहां देना योग्य समझते हैं । ___"अहन्नया गोयमा ते साहुणो तं पायरियं भरणंति जहाणं जइ भयवं तुमं प्राणवेहि ताणं अम्हेहिं तित्त्थयतं करि (र) या चंदप्पह सामियं वं दिया धम्म चक्कं गंतूण मागच्छामो ताहे गोयमा अहीण मनसा अणु तालं गंभीर महुराए भारतीए भणियं तेणा यरियेणं जहा इच्छा यारेणं न कप्पई तित्थयंतं गंतु सुविहियाणां ता जावणं बोलेइ जत्त तावणं अहं तुम्हे चंदप्पहं वंदा वेहा मि । अन्नं च जत्ताए गएहिं असंजमें पडिज्जइ एएणं कारणेणं तित्थं यत्ता पडिसेहिज्जइ।” अर्थात्- (भगवान महावीर कहते हैं) हे गोतम ? अन्य समय वे साधु उस प्राचार्य को कहते हैं-हे भगवन् ? यदि आप आज्ञा Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह करें तो हम तीर्थयात्रा' करने तथा चन्द्रप्रभ स्वामी को वन्दन करने धर्म चक्र जाकर आ जाएँ । तब हे गोतम ! उस आचार्य ने दृढ़ मन से सोचकर गम्भीर वाणी से कहा जैसे इच्छा कार से सुविहित साधुओं को तीर्थयात्रा को जाना नहीं कल्पता इस वास्ते जब यात्रा बीत जायगी तब मैं तुम्हें चन्द्रप्रभ का वन्दन करा दूंगा । दूसरा कारण यह भी है तीर्थ-यात्राओं के प्रसंगों पर साधुओं को तीर्थ पर जाने से असंयम-मार्ग में पड़ना पड़ता है । इसी कारण से साधुओं के लिए यात्रा निषिद्ध की जाती है । तक्षशिला का धर्मचक्र बहुत काल पहले से हो जैनों के हाथ से चला गया था इसके कारण दो हैं, विक्रम को दूसरी तथा तीसरी शताब्दी में बौद्ध धर्म का पर्याप्त प्रचार हो चुका था, यही नहीं तक्षशिला विश्वविद्यालय में हजारों बौद्ध भिक्षुक तथा उनके अनुयायी छात्र गण विद्याध्ययन करते थे। इस कारण से तक्षशिला के तथा पुरुष पुर (पेशावर) के प्रदेशों में हजारों की संख्या में बौद्ध उपदेशक घूम रहे थे। इसके अतिरिक्त शशेनियन लोगों के भारत १. यहां 'यात्रा' शब्द तीर्थ पर होने वाले मेले के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, .. महानिशी थमे ही नहीं, अन्य सूत्रों में भी जैन श्रमणों को तीर्थ यात्रा के लिए भ्रमण करना वर्जित किया है । निशीघ सूत्र की चूणि में लिखा है 'उत्तरावहे धम्म-चक्कं मधुराए देव णिम्भि ओ थूभो । कोसलाए वाजियंत पडिमा तित्थ कराणवा जम्म भूमिओ एवमादि कारणेहिं गच्छन्तो णिक्खाणि तो' । (२४३-२) ____ अर्थात्-उत्तरा पथ में धर्मचक्र मथुरा में देव निर्मित स्तूप अयोध्या में जीवंत स्वामी प्रतिमा, अथवा तीर्थंकरों को जन्म भूमियों इत्यादि कारणों से देश भ्रमण करने वाला साधु निष्कारिण कहलाता है। उक्त महानिशीथ के प्रमाण से मेले के प्रसंग पर तीर्थ पर जाना साधु के लिए वजित किया है, परन्तु निशीथ आदि आगमों के प्रमाणों से केवल तीर्थ दर्शनार्थ भ्रमण करना भी जैन श्रमण के लिए निषिद्ध बताया है । जैन श्रमण के लिए सकारण देश भ्रमण करना विहीत है और उस भ्रमण में आने वाली तीर्थ भूमियों का दर्शन वन्दन करना आगम विहीत है । तीर्थ वन्दन के नाम से भड़कने वाले तथा केवल तीर्थ वन्दन के लिए भटकने वाले हमारे वर्तमान कालीन जैन श्रमणों को इस शास्त्रीय वर्णनों से बोध लेना चाहिए । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह १९ पर होने वाले आक्रमण की जैन पंघ को पहले ही सूचना मिल गई थी कि आज से तीसरे वर्ष में तक्षशिला का भंग होने वाला है इससे जैन संघ धोरे-धोरे तक्षशिला से पंजाब की तरफ आ गया था, कुछ लोग दक्षिण को तरफ पहुँच कर जलमार्ग से कच्छ तथा सौराष्ट्र तक चले गये । जाने वाले लोगों ने अपनी धन सम्पत्ति को ही नहीं, अपनी पूज्य देव मूर्तियों तक को वहाँ से हटा ले गये थे, इस दशा में अरक्षित जैन स्मारकों तथा मंन्दिरों पर बौद्ध धर्मियों ने अपना अधिकार कर लिया। तक्ष शिला का धर्मचक्र जो चन्द्रप्रभ का तीर्थ माना जाता था उसको भी बौद्धों ने अपना लिया, था और उसे "बोद्धि सत्वों चन्द्र प्रभ" का प्राचीन स्मारक होना उद्घोषित किया । बौद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग जो कि विक्रम की षष्ठी शताब्दी में भारत में आया था, अपने भारत यात्रा विवरण में लिखता है "यहां पर पूर्व काल में "बौद्धिसत्व चन्द्र प्रभ" ने अपना मांस प्रदान किया था, जिसके उपलक्ष्य में मौर्य सम्राट अशोक ने उसका यह स्मारक बनवाया है।" उक्त चीनी यात्री के उल्लेख से यह तो निश्चित हो जाता है, कि धर्मचक्र विक्रमीय छटी शताब्दी के पहले ही जैनों के हाथ से चला गया था, निश्चित रूप से तो नहीं कह सकते फिर भी यह कहना अनुचित न होगा, कि शशेनियन लोग जो ईसा की तीसरी शताब्दी में प्राक्रामक बनकर तक्षशिला के मार्ग से भारत में आए, उसके लगभग काल में ही धर्मचक्र बौद्धों का स्मारक बन चुका होगा। (५) अहिच्छत्रा पार्श्वनाथ___ आचाराङ्ग नियुक्ति सूचित पार्श्वनाथ अहिच्छत्रा नगरी स्थित पार्श्वनाथ है, भगवान् पार्श्वनाथ प्रवजित होकर तपस्या करते हुए एक समय कुरुजांगल देश में पधारे । वहां शंखावली नगरी के समीप वर्ती एक निर्जन स्थान में आप ध्यान निमग्न खड़े थे तब उनके पूर्व भव के विरोधी कमठ नामक असुर ने आकाश से घनघोर जल बरसाना प्रारम्भ किया, बड़े जोरों को वृष्टि हो रही थी, कमठ की Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह इच्छा यह थी कि पार्श्वनाथ को जलमग्न करके इनका ध्यान भंग किया जाय, ठीक उसी समय धरणेन्द्र नागराज भगवान को वन्दन करने पाया और भगवान पर मूसलधार वृष्टि होती देखी । धरणेन्द्र ने भगवान के ऊपर फण छत्र किया और इस अकाल वृष्टि करने वाले कमठ का पता लगाया, यही नहीं उसे ऐसे जोरों से धमकाया, कि तुरन्त उसने अपने दुष्कृत्य को बंद किया और भगवान पार्श्वनाथ के चरणों में शिर नमाकर उसने धरणेन्द्र से माफी मांगी जलोपद्रव के शान्त हो जाने पर नागराज धरणेन्द्र ने अपनी दिव्य शक्ति के प्रदर्शन द्वारा भगवान का बहुत महिमा किया ! उस स्थान पर कालान्तर में भक्त लोगों ने एक बड़ा जिन प्रासाद बनवाकर उसमें पार्श्वनाथ की नाग फरण छत्रालंकृत प्रतिमा प्रतिष्ठित की। जिस नगरी के समीप उपर्युक्त घटना घटी थी, वह नगरी भी 'अहिच्छत्रानगरी' इस नाम से प्रसिद्ध हो गई। ___अहिच्छत्रा विषयक विशेष वर्णन सूत्रों में उपलब्ध नहीं होता, परन्तु जिनप्रभ सूरि ने “अहिच्छत्रा नगरी कल्प' में इस तीर्थ के सम्बन्ध में कुछ विशेष बातें कही हैं, जिनमें से कुच्छेक नीचे दी जाती हैं___(अहिच्छत्रा) पाव जिन चैत्य के पूर्व दिशा भाग में सात मधु जल से भरे कुण्ड अब भी विद्यमान हैं, इन कुण्डों के जल में स्नान करने वाली मृत वत्सा स्त्रियों की प्रजा स्थिर (जीवित) रहती हैं, उन कुण्डों की मिट्टी से धातुवादी लोग सुवर्ण सिद्धि होना बताते हैं। 'पार्श्वनाथ की यात्रा करने आए हुए याशिक गण अब भी जब भगवान् का स्नपन महोत्सव करते हैं उस समय कमठ दैत्य यहां पर प्रचण्ड' पवन वृष्टि बादलों द्वारा दुर्दिन कर देता है।' . 'मूल चैत्य से थोड़ी दूरी पर सिद्ध क्षेत्र में धरणेन्द्र पद्मावती सेवित पार्श्वनाथ का मन्दिर बना हुआ है ।' - 'नगर के दुर्ग के समीप नेमिनाथ को मूर्ति से सुशोभित सिद्धबु नामक दो बालक रूपकों से समन्वित हाथ में आम्र फलों की डाली लिए सिंह पर आरूढ़ अम्बिका देवी की मूर्ति प्रतिष्ठित है।' Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह 'यहां उत्तरा नामक एक निर्मल जल से भरी बावड़ी है जिसके जल में नहाने तथा उसकी मिट्टी का लेप करने से कोढ़ियों का कोढ़ रोग शांत हो जाता है ।' । 'यहां रहे हुए धन्वन्तरी नामक कुए की पीली मिट्टी से आम्नाय वेदियों के उपदेशानुसार प्रयोग करने से सोना बनता है।' 'यहाँ ब्रह्म कुण्ड के किनारे मण्डुकपर्णी ब्राह्मी के पत्तों का चूर्ण एक वर्णी गाय के दूध के साथ सेवन करने से मनुष्य की बुद्धि और निरोगता बढ़ती है, और उनका स्वर गन्धर्व कासा मधुर बन जाता है।' __'बहुधा अहिच्छत्रा के उपवनों में सभी वृक्षों पर बन्दाक उगे हुए मिलते हैं, जो अमुक-अमुक कार्य साधक होते हैं। यही नहीं वहाँ के उपवनों में जयन्ती, नागदमनी, सहदेवो, अपराजिता, लक्ष्मणा, त्रिपर्णी, नकुलो, सकुली, साक्षी, सुवर्ण शिला, मोहिनी, श्यामा, रवि भक्ता (सूर्यमुखी) निर्विषी, मयूरशिखा, शल्या, विशल्यादि, अनेक महौषधियां यहाँ मिला करतो हैं ।' 'अहिच्छत्रा में विष्णु, शिव, ब्रह्मा, चण्डिकादि के मंदिर तथा ब्रह्मकुण्ड आदि अनेक लौकिक तीर्थ स्थान भी बने हुए हैं, यह नगरी सुगृहीत नाम धेय 'कण्व ऋषि' को जन्म भूमि मानी जाती है।' उपर्युक्त अहिच्छत्रा तीर्थ स्थान वर्तमान में कुरु देश के किसी भूमि भाग में खण्डहरों के रूप में भी विद्यमान है, या नहीं इसका विद्वानों को पता लगाना चाहिये। (६) रथावर्त (पर्वत) तीर्थ प्राचीन जैन तीर्थों में रथावर्त पर्वत को नियुक्ति कार ने षष्ट नम्बर में रक्खा है । यह पर्वत आचाराङ्ग टीका कार शिलाङ्क सूरि के कथनानुसार अन्तिम दृश पूर्वधर आर्य वज्र स्वामी के स्वर्गवास का स्थान था। पिछले कतिपय लेखकों का मंतव्य है कि वज्र स्वामी के अनशन काल में इन्द्र ने आकर इस पर्वत की रथ में बैठकर प्रदक्षिणा की थी, जिससे इसका नाम 'रथावर्त' पड़ा Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ तीर्थ माला संग्रह था। परन्तु यह मन्तव्य हमारी राय में प्रामाणिक नहीं है, क्योंकि आर्य वज्र स्वामी के अनशन का समय विक्रमीय प्रथम शताब्दी का अन्तिम भाग है, जब कि आचारङ्ग नियुक्तिकार श्रुतधर भद्रबाहु स्वामी आर्य वज्र स्वामी से सैकड़ों वर्ष पहले हो गए हैं, इससे पर्वत का रथावर्त यह नाम भद्रबाहु स्वामी के पूर्वकाल का है, इसमें शंका को स्थान नहीं। रथावर्त पर्वत किस भू प्रदेश में था इस बात का विचार करते समय हमें आर्य वज्र स्वामी के अन्तिम समय के बिहार क्षेत्र पर विचार करना होगा, आर्य वज्र स्वामी अपनी स्थविर अवस्था में सपरिवार मालव देश में विचरते थे, ऐसा जैन ग्रन्थों के उल्लेखों से जाना जाता है, उस समय भारत में बड़ा भारो द्वादश वार्षिक दुर्भिक्ष प्रारम्भ हो चुका था, साधुओं को भिक्षा मिलना तक कठिन हो गया था। एक दिन तो स्थविर वज्र स्वामी ने अपने विद्या बल से आहार मंगवा कर साधुनों को दिया, और कहा बारह वर्ष तक इसी प्रकार विद्या पिण्ड से शरीर निर्वाह करना होगा, इस प्रकार जीवन निर्वाह करने में लाभ मानते हों तो वैसा करें, अन्यथा अनशन द्वारा जीवन का अन्त कर दें। श्रमणों ने एक मत से अपनी राय दी कि इस प्रकार दूषित आहार द्वारा जीवन निर्वाह करने से तो अनशन से देह त्याग करना ही अच्छा है । इस पर विचार करके आर्य वज्र स्वामी ने अपने एक शिष्य वज्रसेन मुनि को थोड़े से साधुओं के साथ कोंकण प्रदेश में विहार करने की आज्ञा दी और कहा जिस दिन तुम को एक लक्ष सुवर्ण से निष्पन्न भोजन मिले तब जानना कि दुर्भिक्षा का अन्तिम दिन है। उसके दूसरे ही दिन से अन्न संकट हलका होने लगेगा। अपने गुरुदेव की आज्ञा शिर चढा कर वज्रसेन मुनि ने कोंकण देश की तरफ विहार किया और वज्रस्वामी ने पांच सो मुनियों के साथ रथावर्त पर्वत पर जाकर अनशन धारण किया । वज्र स्वामी के उपर्युक्त वर्णन से जाना जा सकता है कि वज्रसेन के विहार करने पर, तुरन्त आप वहां से अनशन के लिए रवाना हो गए हैं, और निकट प्रदेश में ही रहे हुए रथा Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थं माला संग्रह २३ वर्त पर्वत पर अनशन किया है । प्राचीन विदिशा नगरी ( आज का मिलसा) के समीप पूर्वकाल में "कुजरावर्त" तथा " रथावर्त" नामक दो पहाड़ियां थीं । वज्रस्वामी ने इसी रथावर्त नामक पर्वत पर अनशन किया होगा, और वही "स्थावर्त" पर्वत जैनों का प्राचीन तीर्थ होगा, ऐसा हमारा मानना है । (७) चमरोत्पात भगवान महावीर छद्मस्थावस्था के बारहवें वर्ष में वैशाली को तरफ से विहार करते हुए सूं सुमार पुर नामक स्थान के निकट वर्ती उपवन में अशोक वृक्ष के नीचे ध्यानारूढ़ थे, तब चमरेन्द्र नामक असुरेन्द्र वहाँ आया और महावीर की शरण लेकर स्वर्ग के इन्द्र शक्र पर चढ़ाई कर गया और सुधर्मा सभा के द्वार तक पहुँच कर शक को डराने धमकाने लगा । शकेन्द्र ने भी चमरेन्द्र को मार हटाने के लिए अपना वज्रायुध उसकी तरफ फेंका, आग की चिनगारियां उगलते हुए वज्र को देख कर, चमर प्राया उसी रास्ते भागा । शक्र ने सोचा चमरेन्द्र यहां तक किसी भी महर्षि तपस्वी को शरण लिये बिना नहीं श्रा सकता, देखें यह किसकी शरण ले आया है | इन्द्र ने अवधि ज्ञान से जाना कि चमर महावीर का शरणागत बनकर आया है और वहीं जा रहा है, वह तुरन्त वज्र को पकड़ने दौड़ा, चमरेन्द्र अपना शरीर सूक्ष्म बनाकर भगवान महावीर के चरणों के बोच घुसा, वज्र प्रहार होने के पहले ही इन्द्र ने वज्र को पकड़ लिया । इस घटना से सूं सुमार पुर और उसके आस-पास के गांवों में सनसनी फैल गई, लोगों के झुण्ड के झुण्ड घटना स्थल पर आये और घटना की वस्तुस्थिति को जानकर भगवान महावीर के चरणों में झुक पड़े। भगवान महावीर तो वहां से विहार कर गए, परन्तु लोगों के हृदय में उनके शरणा गत रक्षकत्व की छाप सदा के लिए रह गई, और घटना स्थल भगवान महावीर की उसे बड़ी श्रद्धा से पर एक स्मारक बनवाकर शरणागत वत्सल मूर्ति प्रतिष्ठित की । उस प्रदेश के श्रद्धालु लोग पूजते तथा कार्यार्थी यात्रिकगण सार्थवाह आदि अपनी यात्रा की निर्विघ्नता के लिए भगवान का शरण लेकर आगे बढ़ते थे यह Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ तीर्थ माला संग्रह ही भगवान महावीर का स्मारक मंदिर आगे जाकर जैनों का " चमरोत्पात" १ नामक तीर्थ बन गया, जिसका श्रुतकेवली भद्र बाहु स्वामी ने आचारांग नियुक्ति में स्मरण-वन्दन किया है । चमरोत्पात तीर्थ, आज हमारे विच्छिन्न (भूले हुए) तीर्थों में से एक है, यह स्थान आधुनिक मिर्जापुर जिले के एक पहाड़ी प्रदेश में था, ऐसा हमारा अनुमान है । (८) शत्रुज्जय तीर्थ - शत्रुञ्जय आज हमारा सर्वोत्तम तोर्थ माना जाता है । इसका माहात्म्य गाने में शत्रुञ्जय माहात्म्यकार ने कोई उठा नहीं रक्खा, यह पर्वत भगवान ऋषभदेव का मुख्य विहार क्षेत्र और भरत चक्रवर्त्ती का सुवर्णमय चैत्य निर्माण का स्थान माना गया है । परन्तु हमारे प्राचीन साहित्य सूत्रादि में इसका विशेष विवरण नहीं मिलता, ज्ञाता धर्मकथाङ्ग के सोलहवें अध्ययन में पांच पांडवों के शत्रुञ्जय पर्वत पर अनशन कर निर्वाण प्राप्त करने का उल्लेख मिलता है, इसके अतिरिक्त अन्तकृद् दशांग सूत्र में भगवान नेमि - नाथजी के अनेकों साधुत्रों के शत्रुञ्जय पर्वत पर तपस्या द्वारा मुक्ति पाने का वर्णन मिलता है, इससे इतना तो सिद्ध है कि शत्रुञ्जय पर्वत हजारों वर्षो से जैनों का सिद्ध क्षेत्र बना हुआ है और यह स्थान भगवान ऋषभदेव का विहार स्थल न मानकर नेमिनाथ का तथा उनके श्रमणों का विहार क्षेत्र मानना विशेष उपयुक्त होगा । आवश्यक निर्युक्ति, भाष्य, चूरिंण, आदि से यह प्रमाणित होता है कि भगवान् ऋषभदेव उत्तर-पूर्व, पश्चिम भारत के देशों में ही विचरे थे, दक्षिण भारत में अथवा सौराष्ट्र भूमि में वे कभी नहीं पधारे, जैन शास्त्रोक्त भारतवर्ष के नक्शे के अनुसार आज का १. चमरेन्द्र ने शक्रेन्द्र पर चढ़ाई करने के विषय पर भगवती सूत्र में विस्तृत वर्णन मिलता है, परन्तु उसमें चमरोत्पात के स्थल पर स्मारक बनने और तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध होने की सूचना नहीं है, मालूम होता है भगवान महावीर के प्रवचन का निर्माण होने के समय तक वह स्थल जैन तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध नहीं हुआ था । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थं माला संग्रह सौराष्ट्र ऋषभदेव के समय में जलमग्न होगा अथवा तो एक अन्तरीय होगा, इसके विपरीत नेमिनाथ के समय में यह सौराष्ट्र भूमि समुद्र के बीच होते हुए भी मनुष्यों के बसने योग्य हो चुकी थी, इसी कारण से जरासंघ के आतंक से बचने के लिए यादवों ने इस प्रदेश का आश्रय लिया था, तथा इन्द्र के आदेश से उनके लिये कुबेर ने वहाँ द्वारिका नगरी का निवेश किया था। भगवान् नेमिनाथ ने उसी द्वारिका के बाहर रैवतक पर्वत के समीप प्रव्रज्या ली थी और बहुधा इसी प्रदेश में विचरे थे, इस वास्तविक स्थिति को दृष्टि में रखते हुए सौराष्ट्र प्रदेश तथा उज्जयन्त (गिरनार) और शत्रुञ्जय पर्वत भगवान नेमिनाथ के विहार क्षेत्र मानेंगे तो हम वास्तविकता के अधिक समीप रहेंगे । (९) मथुरा का देव निर्मित स्तूप___ मथुरा के देव निर्मित स्तूप का यद्यपि मूल आगमों में उल्लेख नहीं मिलता, तथापि छेद-सूत्रों तथा अन्य सूत्रों के भाष्य, चूणि आदि में इसके उल्लेख मिलते हैं, इसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में कहा गया है कि 'मथुरा नगरी के बाहर वन में एक क्षपक (तपस्वी जैन साधु) तपस्या कर रहा था, उसकी तपस्या और संतोषवृत्ति से वहाँ को वन देवता तपस्वी-साधु की तरफ भक्ति विनम्र हो गई थी। प्रतिदिन वह साधु को वन्दना करती और कहती मेरे योग्य कार्य-सेवा फरमाना, क्षपक कहता मुझे तुम जैसी अविरत देवी से कुछ कार्य नहीं । देवी जब भी क्षपक को कार्य सेवा के लिये वही वाक्य दोहराती तो क्षपक भी अपनी तरफ से वही उत्तर दिया करता था। एक समय देवी के मन में आया, तपस्वी बार-बार मुझे कोई कार्य न होने का कहा करते हैं, तो अब ऐसा कोई उपाय करूं ताकि ये मेरी सहायता पाने के इच्छुक बनें । उसने मथुरा के निकट एक बड़े विशाल चौक में रात भर में एक बड़ा स्तूप खड़ा कर दिया, दूसरे दिन उस स्तूप को जैन तथा बौद्ध धर्म के अनुयायी अपना-अपना मानकर उसका कब्जा करने के लिये तत्पर हुए। जैन, स्तूप को अपना बताते थे तब बौद्ध अपना । स्तूप में लेख अथवा किसी सम्प्रदाय की देव मूर्ति न होने के कारण, उसने जैन बौद्धों के Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह बीच झगड़ा खड़ा कर दिया। परिणाम स्वरूप दोनों सम्प्रदायों के नेता न्याय के लिये राजा के पास पहुँचे और स्तूप का कब्जा दिलाने की प्रार्थनाएं की। राजा तथा उसका न्याय विभाग, स्तूप जैनों का है अथवा बौद्धों का इसका निर्णय नहीं दे सके । जैन संघ ने अपने स्थान में मिलकर विचार किया कि यह स्तूप दिव्य शक्ति से बना है और देव साहय्य से हो किसी सम्प्रदाय का कायम हो सकेगा। संघ में देव सहायता किस प्रकार प्राप्त की जाय, इस बात पर विचार करते समय जानने वालों ने कहा, वन में अमुक क्षपक के पास वन देवता पाया करती है, अत: क्षपक द्वारा उस देवता से स्तूप प्राप्ति का उपाय पूछना चाहिये । संघ में सर्वसम्मति से यह निर्णय हुआ कि दो साधु क्षपक मुनि के पास भेजकर उनके वन देवता की इस विषय में सहायता मांगी जाय । प्रस्ताव के अनुसार श्रमण युगल क्षपक मुनि के पास गया और क्षपकजी को संघ के प्रस्ताव से वाकिफ किया। क्षपक ने भी यथा शक्ति संघ का कार्य सम्पन्न करने का आश्वासन देकर आए हुए मुनियों को विदा किया। नित्य नियमानुसार बन देवता क्षपक के पास आई और वन्दन पूर्वक कार्य सेवा सम्बन्धी नित्य की प्रार्थना दोहराई । क्षपक ने पूछा एक कार्य के लिये तुम्हारी सलाह आवश्यक है, देवता ने कहावह कार्य क्या है ? क्षपक बोले-- महीनों से मथुरा के देव निर्मित स्तूप के सम्बन्ध में जैन बौद्धों के बीच झगड़ा चल रहा है, राजा का न्यायाधिकरण भी परेशान हो रहा है, पर इसका निर्णय नहीं होता, मैं चाहता हूँ तुम कोई ऐसा उपाय बतानो और सहाय्य करो कि यह स्तूप सम्बन्धी-झगड़ा तुरन्त मिटे और स्तूप जैन सम्प्रदाय का प्रमाणित हो। वन देवता ने कहा-तपस्वीजी महाराज, आज मेरी सेवा की आवश्यकता हुई न ! तपस्वी बोले--अवश्य, यह कार्य तो तुम्हारी सहानुभूति से ही सिद्ध हो सकेगा। देवी ने कहा--पाप अपने संघ को सूचित करें कि वह आयन्दा राजसभा में यह प्रस्ताव उपस्थित करें “यदि स्तूप पर स्वयम् श्वेत Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह ध्वज फरकने लगे तो स्तूप जैनों का समझा जाय और लाल ध्वज फरकने पर बौद्धों का।" क्षपक मुनि ने मथुरा जैन संघ के नेताओं को अपने पास बुलाया और वन देवतोक्त प्रस्ताव की सूचना की। संघनायकों ने न्यायाधिकरण के सामने वैसा ही प्रस्ताव उपस्थित किया । राजा तथा न्यायाधिकारियों को प्रस्ताव पसन्द आया और बौद्ध नेताओं से इस विषय में पूछा, बौद्धों ने भी प्रस्ताव को मञ्जूर किया। राजा ने स्तूप के चारों ओर रक्षक नियुक्त कर दिये, कोई भी व्यक्ति स्तूप के निकट तक न जाय, इसका पूरा-पूरा बन्दोबस्त किया इस व्यवस्था और प्रस्ताव से नगर भर में एक प्रकार का कौतुक मय अद्भुत रस फैल गया। दोनों सम्प्रदाय के भक्त-जन अपनेअपने इष्ट देवों का स्मरण कर रहे थे, तब निरपेक्ष नगर जन कब रात बीते और स्तूप पर फहराती हुई ध्वजा देखें, इस चिन्ता से भगवान् भास्कर से जल्दी उदित होने को प्रार्थनायें कर रहे थे। सूर्योदय होने के पूर्व ही मथुरा के नागरिक हजारों को संख्या में स्तूप के इर्द गिर्द स्तूप की ध्वजा देखने के लिये, एकत्रित हो गये, सूर्य के पहले से ही उसके सारथी ने स्तूप के शिखर पर दण्ड तथा ध्वज पर प्रकाश फेंका, जनता को अरुण प्रकाश में सफेद वस्त्र सा दिखाई दिया, जैन जनता के हृदय में आशा को तरंगें बहने लगीं। इसके विपरीत बौद्ध-धर्मियों के दिल निराशा का अनुभव करने लगे, सूर्य देवने उदयाचल के शिखर से अपने किरण फेंककर सबको निश्चय करा दिया कि स्तूप के शिखर पर श्वेत ध्वजा फरक रही है, जैन धर्मियों के मुखों से एक साथ "जैनम् जयति शासनम्" की ध्वनि निकल पड़ी और मथुरा के देव निर्मित स्तूप का स्वामित्व जैन संघ के हाथों में सौंप दिया गया। ___ मथुरा स्थित देव निर्मित स्तूप को उत्पत्ति का उक्त इतिहास हमने सूत्रों के भाष्यों, चूणियां और टीकात्रों के भिन्न-भिन्न वर्णनों को व्यवस्थित करके लिखा है, प्राचार्य-जिनप्रभ सूरि कृत मथुरा कल्प में पौराणिक ढंग से इस स्तूप का विशेष वर्णन दिया है, Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थं माला संग्रह जिसका संक्षिप्त सार पाठकगरण के अवलोकनार्थ नीचे दिया जाता है- 'श्री सुपार्श्वनाथ जिनके तीर्थवर्ती धर्म घोष और धर्मरुचि नामक दो तपस्वी मुनि एक समय विहार करते हुए मथुरा पहुँचे उस समय मथुरा की लम्बाई बारह योजन तथा विस्तार नव योजन परिमित था । उसके चारों तरफ दुर्ग बना हुआ था और पास में दुर्ग को नहलाती हुई यमुना नदी बह रही थी, मथुरा के भीतर तथा बाहर अनेक कूप बावड़ियाँ बनी हुई थीं । नगरी गृह पंक्तियों, हाट बाजारों और देव मन्दिरों से सुशोभित थी, इसकी बाह्य भाग भूमि अनेक वनों, उद्यानों से घिरी हुई थी, तपस्वी धर्म घोष, धर्मरुचि मुनि युगल ने मथुरा के 'भूत रमण' नामक उद्यान में चातुर्मासिक तप के साथ वर्षा चातुर्मासिक को स्थिरता की, मुनियों के तप ध्यान; शांति आदि गुणों से आकर्षित होकर उपवन की अधिष्ठात्री 'कुबेरा' नामक देवी उनके पास रात्रि के समय जाकर कहने लगी मैं आपके गुणों से बहुत ही सन्तुष्ट हूँ, मुझ से वरदान मांगिये, मुनियों ने कहा हम निस्संग श्रमण हैं, हमें किसी भो पदार्थ की इच्छा नहीं, यह कहकर उन्होंने 'कुबेरा' को धर्म का उपदेश देकर जैन धर्म की श्रद्धा कराई । २८ चातुर्मास्य की समाप्ति के लगभग कार्तिक सुदि अष्टमी को तपस्वियों ने अपने निवास स्थान की स्वामिनी जानकर कुबेरा को कहा - हे श्राविका चातुर्मास्य पूरा होने आया है हम यहाँ से चातुर्मास्य की समाप्ति होते ही विहार करेंगे, तुम जिनदेव की पूजा भक्ति तथा जैन धर्म की उन्नति में सहयोग देते रहना | देवी ने तपस्वियों को वहीं ठहरने की प्रार्थना की परन्तु साधु का एक स्थान पर ठहरना आचार विरुद्ध बताकर उसकी प्रार्थना को अस्वीकृत कर दिया । कुबेरा ने कहा यदि आपका यही निश्चय है, तो मेरे योग्य धर्म कार्य का आदेश फरमाइये, क्योंकि देव दर्शन अमोघ होता है । साधुयों ने कहा - यदि तेरा प्राग्रह है, तो हमें संघ के साथ मेरू पर्वत पर ले जाकर जिन चैत्यों का वन्दन करा दे, देवी ने Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह २६ कहा आप दो को मैं वहां ले जा सकती हूँ। मथुरा का संघ साथ में होगा तो मुझे भय है कि मिथ्यादृष्टि देव मेरे गमन में विघ्न करेंगे । साधु बोले- यदि संघ को वहां ले जाने की तेरी शक्ति नहीं है तो हम दो को वहां जाना उचित नहीं है। हम शास्त्र बल से ही मेरु स्थित जिन चैत्यों का दर्शन वन्दन करेंगे। तपस्वियों के इस उक्त कथन को सुनकर लज्जित सो होकर कुबेरा बोली, भगवन् यदि ऐसा है तो मैं स्वयम् जिन प्रतिमाओं से शोभित मेरू पर्वत का आकार यहां बना देती हूँ, वहां पर संघ के साथ आप देव-वन्दन कर लें, साधुओं ने देवो को बात को स्वीकार किया, तब देवो ने सुवर्णमय नाना रत्न शोभित, अनेक देव पारिवारित, तोरण ध्वज मालाओं से अलंकृत, जिसका शिखर छत्र-त्रय से सुशोभित है ऐसा रात भर में स्तूप निर्माण किया जो मेरू पर्वत की तरह तोन मेखलाओं से सुशोभित था, प्रत्येक मेखला में प्रतिदिग् सम्मुख पंच वर्ण रत्नमय प्रतिमाएं सुशोभित थीं, मूल नायक के स्थान पर भगवान् सुपार्श्वनाथ का बिंब प्रतिष्ठित था। प्रभात होते ही लोग स्तूप के पास एकत्र हुए और आपस में विवाद करने लगे। कोई कहते थे वासुकि नाग लंछन वाला स्वयंभू देव हैं तब दूसरे कहते थे शेषशायी भगवान् नारायण हैं इसी प्रकार कोई ब्रह्मा, कोई धरणेन्द्र (नागराज), कोई सूर्य, तो कोई चन्द्रमा कहकर अपनी जानकारी बता रहे थे । बौद्ध कहते थे यह स्तूप नहीं किन्तु 'बुद्धाण्डक' है, इस विवाद को सुनकर मध्यस्थ पुरुष कहते थे वह दिव्य शक्ति से बना है, और दिव्य शक्ति से ही इसका निर्णय होगा, तुम आपस में क्यों लड़ते हो । अपने-अपने इष्टदेव को वस्त्र पटपर चित्रित करवा कर निज-निज मंडली के साथ ठहरो, जिसका स्तूप स्थित देव होगा उसीका चित्र पट रहेगा, शेष व्यक्तियों के पट्ट-स्थित देव भाग जायेंगे। जैन संघ ने भी सुपार्श्वनाथ का चित्रपट बनवाया, बाद में अपनी मण्डलियों के साथ चित्रित चित्रपटों की पूजा करके सब धार्मिक संप्रदाय वाले उनकी भक्ति करते । अपने-अपने पट सामने रखकर नवम दिन की रात्रि का समय था, सभी संप्रदायों के भक्तजन अपने-अपने ध्येय देव के गुणगान कर रहे थे । बराबर अर्ध रात्रि व्यतीत हुई तब प्रचण्ड Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह पवन प्रारम्भ हुआ, पवन से तृण रेती उड़े इसमें तो बड़ी बात नहीं थी, परन्तु उसकी प्रचण्डता यहां तक बढ़ चली कि उसमें पत्थर तक उड़ने लगे, तब लोगों का धैर्य टूटा । वे प्राण बचाने की चिन्ता से वहाँ से भागे, लोगों ने अपने-अपने सामने जो देव-पूजा पट्ट रक्खे थे वे लगभग सबके सब प्रचण्ड पवन में विलीन हो गये, केवल सुपार्श्वनाथ का एक पट वहाँ रह गया, हवा का बवण्डर शांत हुआ लोग फिर एकत्रित हुए और पाश्र्वनाथ का पट देखकर बोले ये अरिहंत देव हैं और यह स्तूप भी इसी देव को मूर्तियों से अलंकृत है, लोग उस पट को लेकर सारे मथुरा नगर में घूमे, और तब से 'पट यात्रा' प्रवृत्त हुई। ____ 'इस प्रकार धर्मघोष तथा धर्मरुचि मुनि मेरू पर्वताकार देव निर्मित स्तूप में देव वन्दन कर तथा तीर्थ प्रकाश में लाकर, जैन संघ को आनन्दित कर मथुरा से विहार कर गए और क्रमश: कर्मक्षय कर संसार से मुक्त हुए । 'कुबेरा देव स्तूप की तब तक रक्षा करती रही, जबकि पार्श्वनाथ का शासन प्रचलित हुआ'। एक समय भगवान् पार्श्वनाथ विहार क्रमसे मथुरा पधारे, और धर्मोपदेश करते हुए भावि दुष्षमा काल के भावों का निरूपण किया । पार्श्वनाथ के वहां से विहार करने के बाद कुबेरा ने संघ को बुलाकर कहा, भविष्य में समय कनिष्ट आने वाला है, कालानुभाव से राजादि शासक लोग लोभग्रस्त बनेंगे, और इस सुवर्णमय स्तूप को नुकसान पहुँचायेंगे, अतः स्तूप को ईटों के परदे से ढाँक दिया जाय, भीतर की मूर्तियों को पूजा मैं अथवा मेरे बाद जो नयी कुबेरा उत्पन्न होगो वह करेगी। संघ इष्ट का मय स्तूप में भगवान् पार्श्वनाथ को प्रस्तरमय मूर्ति प्रतिष्ठित करके पूजा किया करें । देवी की बात भविष्य में लाभदायक जानकर संघ ने मान्य की और देवी ने विचारित योजनानुसार मूल स्तूप को ईंटों के स्तूप से ढांप दिया।' ___इष्ट का मय स्तूप पुराना हो जाने से उसमें से ईंटें निकलने लगीं थीं, इसलिए संघ ने पुराणे स्तूप को हटाकर नया पाषाण मय स्तूप बनवाने का निर्णय किया, परन्तु कुबेरा ने स्वप्न में कहा Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह इष्टकामय स्तूप को अपने स्थान से न हटाइये इसको मजबूत करना हो तो ऊपर पत्थर का खोल चढवा दो, संघ ने वैसा ही किया आज भी देव निर्मित स्तूप को अदृश्य रूप से देव पूजते हैं, तथा इसकी रक्षा करते हैं, हजारों प्रतिमाओं से युक्त देवलां, रहने के स्थानों, सुन्दर गन्ध कुटी, तथा चेलनिका अंबा अनेक क्षेत्रपाल आदि के नियमां से यह स्तूप सुशोभित है । 'पूर्वोक्त बप्प भट्टि सूरि ने जो कि ग्वालियर के राजा प्राम के धर्म गुरु थे, मथुरा में वि. सं. ८२६ में भगवान् महावीर का बिंब प्रतिष्ठित किया।' मथुरा के देव निर्मित स्तूप की उत्पत्ती का निरूपण शास्त्रीय प्रतीकों तथा मथुरा कल्प के आधार से ऊपर दिया गया है, कल्पोक्त वर्णन अतिशयोक्ति पूर्ण हो सकता है, परन्तु एक बात तो निश्चित है कि यह स्तप अति प्राचीन है, और भारत में विदेशियों के आने के समय यह स्तूप जैनों का एक महिमास्पद तीर्थ बना हुआ था, वर्ष के अमुक समय में यहाँ स्नान महोत्सव होता था। और उस प्रसंग पर भारतवर्ष के कोने-कोने से तीर्थ यात्रिक यहां एकत्र होते थे, ऐसा प्राचीन साहित्य के उल्लेखों से सिद्ध होता है । इस बात के समर्थन में निशीथभाष्य की एक गाथा तथा उसको चूणि का उद्धरण नीचे देते हैं-- ___ 'थूभ मह सढि समणी बोहिय हरणंच निवसुयातावे । मग्गेणय अक्कंदे कयंमि युद्धेण मोएत्ति ।। अर्थात्-'मथुरा के स्तूप महोत्सव पर जैन श्राविकाएं तथा जैन साध्वियें जा रही थीं। मार्ग में बोधिक लोग उन्हें घेर कर अपने साथ ले चले, आगे जाते मार्ग के निकट आतापना करते हुए, एक राजपुत्र प्रवजित जैन मुनि को देखा । उन्हें देखते ही यात्रार्थियों ने आक्रन्दन (शोर) किया, जिसे सुनकर मुनि उनकी तरफ आये, और बोधिकों से युद्ध कर श्राविकाओं को उनके पंजे से छुडाया।' उक्त गाथा को विशेष चूणि नीचे लिखे अनुसार है-- 'महुराए नयरीए थूभो देव निम्मिश्रो तस्स महिमा निमित्तं सड्डी तो-समणीहिं समं निग्गयातो रायपुत्तो तत्त्व अदूरे पायावतो Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ तीर्थ माला संग्रह चिठ्ठइ । तासड्डी समणीतो बोहियेहिं गहियातो तेणं तेणं अगणियातो ता ताहिं तं साहुं दढ्ढूणं अक्कं दो क ो ततो रायपुत्तेण साहुणा युद्ध दाऊण मोईयातो, बोधिका अनार्यम्लेच्छाः । (नि. वि.चू. २६८-२)' अर्थात् चूणिका भावार्थ गाथा के नीचे दिये हुए अर्थ में पा चुका है, इसलिए रिण का अर्थ न लिखकर चूर्णिकार के अन्तिम शब्द 'बोधिक' शब्द पर ही थोड़ा सा ऊहापोह करेंगे । __जैन सूत्रों के भाष्यादि में 'बोहिया' यह शब्द बार-बार आया करता है, प्राचीन संस्कृत टीकाकार बोहिय शब्द का संस्कृत 'बोधिक' शब्द बनाकर कहते हैं-बोधिक पश्चिम दिशा के म्लेच्छों को कहते हैं। प्राकृत टीकाकार कहते हैं---मनुष्यों का अपहरण करने वाले म्लेच्छ बोहिय कहलाते हैं, हमारा अनुमान है कि ‘बोधिक' अथवा 'बोहिय' कहलाने वाले लोग बोहीमिया के रहने वाले विदेशी थे, वे यूनानियों के भारत पर के आक्रमण के समय भारत की पश्चिम सरहद पर इधर-उधर पहाड़ी प्रदेशों में फैल गये थे, मौर्यचन्द्र गुप्त के शासन काल में भारत के पश्चिम तथा उत्तर प्रदेशों में घुस कर ये मनुष्यों को पकड़-पकड़ कर ले जाते थे, और विदेशों में पहुँच कर गुलाम खरीददारों के हाथ बेच दिया करते थे । उपर्युक्त हमारा अनुमान ठोक हो तो इसका अर्थ यही हो सकता है कि मथुरा का स्तूप मौर्य राज काल का होना चाहिये। मथुरा का देव निर्मित स्तूप आज भी मथुरा के कंकाली टीले के रूप में भग्न अवस्था में खड़ा है, इसमें से मिली हुई कुषारण कालीन जैन मूर्तियाँ आयाग पट पर जैन साधुओं की मूर्तियों आदि एतिहासिक साधन आज भो मथुरा तथा लखनऊ के सरकारी संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। इन पर राजा कनिष्क, हुविष्क, वासुदेव के राज्य काल के लेख भी उत्कीर्ण हैं, इससे ज्ञात होता है कि यह तीर्थ विक्रम की दूसरी शताब्दी तक उक्त दशा में था, उत्तर भारत में विदेशियों के आक्रमणों से खास कर श्वेत हणों के समय में जैनश्रमण तथा जैन-गृहस्थ सामूहिक रूप से दक्षिण भारत की तरफ राजस्थान, मेवाड़, मालवा आदि में चले गये,और उत्तर भारत के Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह ३३ अन्य जैन तीर्थं रक्षण के प्रभाव से बेरान हो गए हैं, जिनमें मथुरा का देव निर्मित स्तूप भी एक है । (१०) सम्मेतशिखर (तीर्थ) सूत्रोक्त जैन तीर्थों में सम्मेतशिखर ( पारसनाथ हिल) का नाम भी परिगणित है । श्रावश्यक नियुक्तिकार कहते हैं कि ऋषभदेव, वासुपूज्य, नेमिनाथ और वर्द्धमान ( महावीर ) इन चार तीर्थंकरों को छोड़ शेष अवसर्पिणी समा के बीस तीर्थङ्कर सम्मेत शिखर पर निर्वारण हुए थे, इस दशा में सम्मेतशिखर को तीर्थंकरों की निर्वाणभूमि होने के कारण तीर्थ कहते हैं । पन्द्रहवीं शताब्दी में निगम गच्छ के प्रादुर्भावक प्राचार्य इन्द्रनंदी के बनाये हुए निगमों में एक निगम सम्मेत शिखर के वर्णन में लिखा है जिसमें इस तीर्थ का बहुत ही अद्भुत वर्णन किया है । आज से ४० वर्ष पहले ये निगम पोडाय (कच्छ) के भण्डार में से मंगवाकर हमने पढ़े थे । ऊपर लिखे सूत्रोक्त दश प्राचीन तीर्थों के अतिरिक्त वैभारगिरि, विपुला चल, कोशला की जीवित स्वामी प्रतिमा अवन्ति की जीवित स्वामी प्रतिमा आदि अनेक प्राचीन पवित्र तीर्थों के उल्लेख सूत्रों के भाष्य आदि में मिलते हैं, परन्तु उन सबका एक निबन्ध में निरूपण करना अशक्य जानकर उन्हें छोड़ देते हैं । आचार्य भिक्षु स्मारक ग्रन्थ के सम्पादकों की प्रार्थना को लक्ष्य में लेकर, शारीरिक स्वास्थ्य ठीक न होने की दशा में भी प्राचीन तीर्थों के विषय में कुछ पृष्ठ लिखने का साहस किया है, इस दशा में इस लेख में रही हुई त्रुटियों को पाठक गरण क्षन्तव्य गणेंगे । इस आशा के साथ तोर्थ विषयक लेख यहां पूरा किया जाता है । XX Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री॥ श्रीशजय तीर्थमार्ग चैत्यपरिपाटी मेडता से शत्रुञ्जय तक दुहा:श्री जिन वदनांबुज सुरी, सुणि सरसति रंगरेलि । मुझ मन मानस झीलती, करि मुख कमले केलि ॥१॥ ब्रह्मसुता मुझ मुख वसी वध्योते वचन विलास । जिन गुण माला गुंथतां, अधिक थयो उल्लास ॥२॥ ढाल सोरठि:-- मरुधर धरा भाल ललाम, मेदिनीपुर अति अभिराम । उत्तंग तोरण प्रासाद, मांडे सरग समोवडिवाद ॥३॥ राजा तिहां अरि करि सिंघ, जयवंतो जसवंत सिंघ । तिहाँ बसे रे वडा व्यवहारी, पुन्यवंता पर उपगारी ॥४॥ तिण मांहि धुरंधर धीर हरषाउत गुण गंभीर । संघवी नेमीदास सुजाण सामीदास विमलदासजाण ॥५॥ बंधव मिली करे विचार, निसुरणी शेत्रुजय अधिकार । पूरव पद उज्वल कीजे, लक्षमीरो लाहो लीजे ॥६॥ इम मनह मनोरथ कीघो, संघपतिनो बीडो लीधो । जिन पूजी करे मंडारण, देशमाहि कराव्यउं जाण ॥७॥ शुभ मुहूर्त शकुन प्रमाण, पहिलु हिव कीध प्रयाण । संघ मिलिउ बहुतस मेलो, जालोर थयो सहु भेलो ।।८।। प्रज्या तिहां पंच विहारि जिन फाग रमै नर नारि। सोवन गिरि वीर जुहार्या, भवपातक दूर निवार्या ॥६॥ संघ केरा वंछित फलिया, मुनिजन परिण साथे मिलिया। साचोर थिराने जइये, प्रभु पूजी निर्मल थइये ।।१०।। राधनपुर ने वलि समिइ, अरिहंते कचित्ते नमिई । हवि पास पूजण जण रसिया, एक एक थी पागल धसिया ।।११।। ढाल राग काफी:श्री संखेसर पास जी रे लाल, तु प्रभु त्रिभुवन तात ___ मन मोह युं रे। महिमा महिमा महमहे रे लाल, जगजन प्रावइ जात मन० ।।१२।। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह आज दिवस धन माहरू रे लाल, देख्यो तुझ दीदार ।। मन०।। आधि व्याधि अलगी टली रे लाल, भरिप्रो सुकृत भंडार । आजदि०। केशर चंदन कुकुमारे लाल, अगर अबीर कपूर । मन० नरनारी पूजा करे रे लाल, भावना भावई भूरि आज दि० ॥१३।। हवि विमलाचल वांदवा रे लाल, अलजइउ सहु संघ । मन० मांडल वीरमगाम मारे लाल, तीरथ नमियां तुंग मन आज दि० ।।१४।। धंधु का नांदे दुरां धोलका रे लाल भेट्या तिहां भगवंत । मन० गूजर मरहठ मालवी रे लाल मिलिउ संघ अनंत । आज दि० ॥१५॥ दुहा:काठी भय दूरे करे, रखवाला भडभीम । हय रथ पायक परिवर्यो, संघ पहुतो गिरि सीम ॥१६।। ढाल:देखी डूगर दूर थी, पसरे प्रेम पडूर ।जिनजी ।। पालीताणे ऊतर्यो, वागां मंगल तूर ॥१७॥ विमलाचल मुज मन वस्यो, ज्यू मधुकर अरविंद ।।जि०॥ दोइ दुर्गति दूरे करे, अविहडद्य आनंद ॥जि०॥१८॥यांकणी चैत्र मासरा की तिथै, प्रणम्या ऋशभना पाय । चरचे चंदन फूल स्यू, अंगे जिन गुण गाय ॥ जि०॥१६॥वि० मरुदेवी सुत मांगिइ, मुक्तिदान तुम्ह पास ॥जिन।।। आश पूरवो दासनी, आपु अविचलवास ॥जि०॥२०॥ वि० पुंडरीक गणधर नम्या, प्रतिमा संखन पार ॥जि०॥ डावे जिमणे देहु रे, सुमिरू बारम्बार २१॥ रायण तल संघ पद लियो, उच्छव करे अनेक जि०॥ सिद्ध क्षेत्र फरस्यो सहू, संघ वलि उसुविवेक |जि०॥२२॥ सहस जीभ मुख जो हुवै, कोडि वरस रो आय ॥जि०॥ आप अमर गुरु आइ सइ, गिरिगुण कह्या न जायः जि०॥२३॥वि० Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह हाल:संघ भक्ति संघवी करे, लाहण द्य बहु लोक । मन मनोरथ सवि फल्याए, याचक जन संतोष ॥प्रा०॥ देइ रूपे आरोक ।।मनो०॥२४॥ यात्रा करी पाछा वल्याए, आव्या अहिम्मदावाद ।म०॥ चिंतामणि वीरादि कू ए प्रणमीजे प्रासाद ॥म०॥२५॥ जंगम तीरथ जागतो ए, विजयसिंह सूरिंद ।।म०॥ आचारजपरण प्राविया, वांद्या मन आनंद ॥म०॥२६॥ सिद्धपुरे सरोतरे रोह मुडथला गाम म०॥ कास द्रह ने इनांदिइ ए ल्ये वंदु जिन नाम ।।म०॥२७।। अर्बुद शिखर अचल गढे, श्री जुगादि करूं सेव ।।म०॥ कुमर. विहार निहालिइ ए, देलवाडे बहु देव ॥२८।। विमल वस्तग नां देहुरां ए देखत त्रपति न होय ।।म०॥ मानव गति मानइ नहीं सुरगति साचीए सोय ।।२।। अर्बुद यात्र करी वल्यो ए शिवपुर आव्यो संघ ॥मनो०।। तीर्थ पूज करी तिहाए पुहतो नियपुर रंग ॥३०॥ ढाल:इणपरि कुसले जिनधर आवइ, मोती थाल वधावइ जी। सोहव मिलि-मिलि मंगल गावहिं, धन जे यात्र करावइ जी ॥३१॥ नेमीदास सामीदास, सोभागी, विमलदास कुल दीवो जी। कृष्णदास धर्मदास मनोहर, सपरिवार चिरजीवो जी ॥३२॥ इम तीरथ संखेपइ कहिया विच विचे के पणि रहिया जी। प्रभु गुण मुक्त हियडइ गह गहिया, सुरनर किन्नर महिया जी ॥३३॥ तीरथमाल भगइ जे भावइ, ते सुख संपद पावइ जी। रोग सोग नेडा तस नावइं शिवसुन्दरि घर ल्यावइ जी ॥३४॥ कलश:इय राग नाग रसेंदु १६८६ वरसइ चैत्य परिपाटी करी। भव भीड भागी, सुमति जागी त्रिजग जय ललना खरी ॥ तपगच्छपति विजयदेव मुरिणवर विजयसिंह मणोरमो। जस सोम कोविद सीस पभगइ विमलगिरि अहनिसि नमो ॥३५॥ ॥ इति श्री चैत्य परिपाटी स्तवनं ।। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजालोर नगर चैत्यपरिपाटी कर्ता-नगागणि-रचनासे १६५९ श्री गुरु चरण नमी करी, सरसति समरों जइ । कवियरण माडी तुं भली, निरमल मति दी जइ || हरषधरी हुँ रचस्यु हेव, वरचिय परिवाडी । मन वंछित सुख वेलितणी, वाधइ वर वाडी ॥ १ ॥ सोहइ जंबूदीप भलु, जिम सोवन लांबु जोयण लाख एक, तेतु ते वचि मेरु महीधरु, जोयण भरत षेत्र दक्षिण दिसिं, तेहथी मध्यम खंडि नयर घरणां नवि जाणुं थाल । सुविसाल || लख तुंग । लखिमी भलु, वाडी वन श्री जालुर नयर भलु, सोवन गिरि पासई वनस पती बहु जाती भाति, दीठ्ठइ मन मढ मंदिर पायार सार, धनवंत न्याय वंत ठाकुर भलु जागइ सावय साविय धरम वंत, दातार दयावंत दीसइ घरणा, चंडया चउसाल सार, पोषध साला च्यारि भली पंचय जिणहर दीपतां, तलिया तोरण तेज पुंज, ढाल: हिव पहिलेरे जिरण हरि वंदंतां पंचाणुरे वचि करता चुकी बहु दीठइ मन सोहइ करि भाक रे पूजंतां प्रतिमा सहित हुरे वीर बइ प्रतिचंग ||२|| पार । भंडार ॥ सोहइ । मोहइ || ३ || निवेस | सविसेस | अपार । उपगार ||४|| सोहइ । मौहइ ॥ सुविसाल । झमाल ॥५॥ त्रिसला संकट हरू ॥ सरू । जिणे जिणंद मनोहरू ॥६॥ कूं यरू । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ तीर्थं माला संग्रह मनोहर तव सार मूरति पेखतां मनउ हुलसइ । मुख देखि पूनिम चंद बीहतु गयण मंडलि जइ वसई ॥७॥ अणी यालीरे ऊंची नासा दीपती, जाणु छुके सुय चंचू नई जीपती । बे लोचनरे, अरिणयालां प्रति सुन्दरू, सर वंगि रे वररगन हुँ के कुतु करू |८|| करूं वरन केम तोरू, अनंत गुण नुं तू थणी । मुखि एक जीहा थंव बुद्धिकेम गुरण जाणुं गणी ॥ ॥ मन मोहनरे जगबंधव जगनायक । जगजीवनरे भवि जनने सुखदायक । तुझ दरिसनि रे मनवंछित सुख पामइ, चितामणिरे काम कुंभ नवि कामीइ ॥१०॥ कामीइ जे जे अरथ सघला वीर जिन तुझ नाम थी । पामी कवियरण कहइ भवियण नमई जे तुझ भाव थी ॥ ११ ॥ ढाल: हिव बीजइ जिरण मंदिर जास्युं भावथी रे, प्रति मोटइ मंडारिण । थुणस्युरे नेमि जिस र रे ।।१२।। राजिउ मात सिवादेवि - पूत समुद्र विजय भूपति कुल गयरण दिणे सरुरे, सोह रेर राजीमती वर जीपतां रे ॥ १४॥ विभूषण सार । सुंदरु रे ॥१३॥ मस्त कि मुकट विराजइ हेम रयण तणू रे, काने कुण्डल सार | झलकई रे झलकई रे रवि ससि मंडल हियइ हार तिम बाहि अंगद दीपता रे, अवर पेखीषीरे संघ सहु मनि हरषि रे ।। १५ ।। जा धन धनसार सुधारस नीपनीरे, कय निज जस घनपिंड । सोहइ रे सोहइ रे नेमि जिणेसर मूरतीरे ॥१६॥ चउसय तेडोतर जिन प्रतिमा सोभतूरे नेमि जिणंद दयाल | वंदुरे वंदुरे भवियण भाव धरी सदारे ।।१७।। ढाल: गीत गात नाटक करी नेमि भवनथीरे त्रीइ जिरण हरि मनिरलि जातां बहु संघ बलियारे । मिलियारे || १८ || Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ तीर्थ माला संग्रह जय जय संति जिणेसरू, नमतां विघन पुलायारे। पूजतां संकट टल इं सुभध्यानि चित लायारे जय जय संति जिणेसरू (अांचली)। हथणा उर पुर सुदरू विस्ससेन भूपाला रे । तस कुल कमल दिवाकरू, सयलजीव रखवाला रे ॥१६।। जय जय० एक पसूनई काररिंण, निज जीवित नवि गणिया रे। पगि लागि सुर वीन वइ, साचा सुरपति थुणिया रे ॥२०॥जय जय० अचिरा कुखसरोवरिं, राजहंस अवतरिया रे। तीणि अवसरि रोगादिकु श्रीजिनइं अवहरिया रे ॥२शाजय जय० भव भय भंजन जिन तू सुणी लंछणमसि पगि लागू रे । मिगपति बीहतु मिग सही । हिव मुझनइं भय भागु रे ॥२२॥जय जय तुझ गुण पार न पामीई, तू साहिब छै मारो रे । जे तुम सेव करई सदा, ते सुख लहई भलेरो रे ॥२३।। जय जय० इकसत पणवीस य भली । संति सहित जिन प्रतिमा रे । भाव धरी जे वांदसिइं, ते लहसिइ वर पदमा रे ॥२४॥जय जय० ढाल-- चडथइ जिणहरी हेव, भाव धरी घणु जास्यू अतिउलट धरीए। नमस्यु प्रथम जिणंद, विधिपूख सदा तोन पयाहिरण स्युकरीरा ॥२५॥ नाभिभूप कुलचंद माता मरुदेवा उयरि सरोवरि हंसलु ए । अवतरिउ जगनाह त्रिहुं नाणे करी पूरउ निरमल गुणनिलु ए । २६।। पढम जिणंद दयाल पढम मुणीसर पढम जिणेसर जगधणीए । पढम भिखाचर जाणि पढम जोगीसर पढमराय तूं बहु गुणीए ॥२७॥ आदि जिणेसर देव मूरति तुमतणी भवि जन नइं सुख कारणीए । रूपतणु नहिं पार, तेजि त्रिभुवन-त्रिभुवन मोहीइए ॥२८।। तु ठाकुर तु देव तु जगनायक जयदायक तू जगगुरुए । माय ताय तू मीत परम सहोदर परम पुरुष तू हिरत करूए ॥२६॥ कोतरि जिणबिंब तिणि करि सोभती रिषभ देव तुझ मूरतीए । जे वांदई नरनारी प्रह उठी सदा, जारणेज्यो सुभमतिए ॥३०॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह ढालपंचम जिणहरि जायस्युरे जिहां के पास जिणंद । कंकु रोल नमुं सदारे, जिम घरि कुकम रोल ॥३१॥ जिणेसर तूं बहु महिमावंत, प्रांचली। सोवनसम तुझ मूरती रे, सपत फणा मणिसोभ । जे तुझ नाम जपई सदारे, ते पामइं नंविखोभ ॥३२॥ जिणेसर० सायणि डायिणी जोयणीरे, भूतप्रेत न छलंति । रोग सोग सहु उपसमई रे जे तुझ पूज करंति ॥३३॥ जिरणेसर० धरणराय पदमावती रे, अहो निसि सारे सेव। ठामि ठामि तूं दोपतूं रे तुझ समु बलिउ नहिं देव ॥३४॥ जिरणेसर तुझ गुण पार न पामीइरे, तु छह गुण भंडार । जे तुम सेव करइं सदारे ते पामइं सुख सार ॥३५।। जिणेसर० ढालचिइपरिवाडो जे करई मालंतडे, प्रह ऊगमतइ सूर सुरिण सुदरि । बोधि बीज पामई घणुए मालतडे, तस घरि संपति पूर ।।सुणि०॥३६।। तस घरि उच्छव नवनवा ए मालंतडे, तस घरि जय जयकार । तस घरि चिंतामणि फल्यु ए मालंतडे, ते जाणु सुविचार ॥सुणि०॥३७ ससि रस बाण ससी (१६५१) सुणुए मालंतडे, ते संवच्छर जाणि । भादव वदि तइया भली ए मालंतडे, सुर गुरुवार वलाणि ॥सुरिण०॥३८॥ कलसनयर श्री जालुर माहे चइत परिपाटी करी, ए तवन भणतां अनई सुणतां, विधन सब जाइं टरी । तपगच्छनायक सुमतिदायक श्री हीर विजय सूरीसरो। कवि कुसल वरधन सीसपभणइ नगा गणि वंछियकरो ॥३६॥ इति श्री जालुर नगर पंच जिनालय चइत्य परिपाटी स्तोत्रं संपूर्ण ॥शुभंभवदु।। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || sft || श्री पाटण चैत्य परिपाटी हर्ष विजय कृता - रचना सं. १७२६ विक्रमी सरसतो सामनी, प्रणमी "समरीय पाटण चैत्य प्रवाडि - स्तवन पाटरण पुण्य प्रसिद्ध क्षेत्र पुण्यनुं ऋहीठाण । मंडारण ॥२॥ वंदरणकेरो । मन मेरो ||३|| च्यार । दीदार ||४|| जिन प्रासाद जिहां घरणाये, मोटई मुझ मति प्रति उंमाहुलोए, जिन पाटण- चैत्य-प्रवाडि स्तवनं करतां हरष्यो प्रथम पंचासर इ जाईए तिहां प्रासाद पंचासर जिनवर तणोए देष्यो चौपन बिंब तिहां अती भलांए वली होर विहार । प्रतिमा त्रिरण सहगुरु तणीरे मुरति मनोहार ॥ ५ ॥ तिहांथी ऋषभ जिणंद नमुंए बिंब पनर गंभारई । एक सो बैं बिंब अति भलां ए भमतीइं जुहारई || ६ || वासपूज्य ने देहरई ए जे जांणु बिंब च्यार | बिंब त्रिण वखाणुं माहावीर पासई ऊँची सेये शांतिनाथ, प्रतिमा एक उपरि नमतां थकां ए पोहोचें पिंपले श्रावको पार्श्वनाथ सडसठि प्रतिमा सडतालीस बिंब शांतिनाथ, भविश्ररण मन चितामणि पाडामांहि ए शांतिनाथ विराजे । पंचवीस प्रतिमा तिहां भलि ए देखी दुख भा जई ॥ १० ॥ बीजई देहरई चन्द्र प्रभु, तिहां तिहां दोसत सडसठि उपरि ए, प्रणमी पाप निकंदु ॥ ११ ॥ सगाल कोटडी प्रासाद एक, थंभरणो पार्श्वनाथ | धर्मनाथनइं शांतिनाथ, सिवपुरी नो साथ ।। १२ ।। मन आस ||८|| सोहें । मोहें || || प्रतिमा वंदु | --- करतां सुख ढाल खरा खोटडी मांहि, प्रासाद मनोहरू रे, के प्रासाद० । पंच मेरु सम पंच के भवित्रण भयहरूरे, के भवि० ॥ | १ || गुरुपाय । धाय ॥ १ ॥ वली ए ॥ ७॥ पंचास । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह अष्टापद प्रासाद कई चंद्रप्रभ लही रे, के चन्द्र ।। नव सत उपरि आठ के प्रतिमा तिहां कहीरे ॥प्रति०॥ चन्द्रप्रभु प्रासाद के तेर जिणे सरूं रें, के तेर० ॥ पास नगीनो षट् जिन साथि दिणेसरू रे ॥२॥ शांतिजिणंद प्रासाद, देखी मन हरषीइं रे, मन । चोरासी जिनप्रतिमा तिहां किरण नीरखीइँ रे, किरण ॥३।। आदिनाथ जगनाथ नी मूरति अति भली रे अति । पंचाणु तिहां प्रतिमा बंदी, मन रूली रे, बंदी० ॥४॥ त्रांगडी आ वाडा मांहि, ऋषभ सोहामणारे ऋष०।। बिंब च्यारसे च्यार कई तिहां जिणवर तणारे तिहां ।।५।। देव प्रासाद कंसारवाडे, हवे वंदीई रे, हवे० । शीतल ऋषभ नमी सब, दुख निकंदीई रे, सब० ॥६॥ प्रतिमा तेर अठासी बेहूं देहरा तणोरे, के बेहूं । जिन नमतां घरि लखमी होई, अति घणी रे के लख० ॥७॥ साहना पाडा मांहि, ऋषभ सोहामणा रे, के ऋष० । प्रतिमा दोशत ब्यासी मने संभारिई रे के ब्यासी० ॥८॥ वाडी पास तणो महिमा छे अति घणो रे, के महि । वडी पोसालना पाडा माहि, में श्रवणे सुण्यो रे के श्रव० ॥६।। एक सो सडतालीस तिहां, प्रतिमा अछई रे तिहां० । चो मुख वंदी जिन राज ऋषभनमी ई पछे रे रिष० ।।१०।। दोसत ने पणयालीस, जिन प्रतिमा तिहां रे के जिन० । पंच बांधव नु देहरू, लोक कहें तिहां रे के लो० ॥११।। ढाल देहरा सर तिहां एक देहरा सरसु विशेष । सेठ भुजबलतणु रे के दोसइ सोहामणुए ।।१।। नारिंग पुर वर पास, जागतो महीमा जास । दोशत बिंब भलाए, पणयालीस गुणनीलांए ॥२॥ मेडा वाडा मांहिं, शांति नमु उछांहि । पंच शत जिन वरु ए एकोत्तरे ऊपरिए ॥३॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह तंबोली वाडा मझारि, सुपास नमु सुख कारि । एकसोत्रीस सदाए प्रणमु जिन मुदा ए॥४॥ कुंभारिइं आदिनाथ, प्रतिमा एकासी साथि । देहरे कोरणी ए, तिहां प्रतिमा घणीए ॥५॥ सोल प्रतिमा सुख कंद, शांतिनाथ जिणंद । मांका महेंता तरोए पाडे सोहामणे ए॥६॥ मणी याती महावीर, मेरु तणी परिधीर । च्यालीस बिंबसुए, प्रणमु भावस्यु ए ॥७॥ तीर्थ अनोपम एह, मुझ मन अधिक सनेह । दिठे ऊपजे ऐं, संपदा संप जइं ए॥८। ढालपरबातीइंरे सेवो श्री शांतिनाथरे, हैं वंदुरे प्रतिमा तेत्रीस साथिरे । सावा.रे सांमल पास सोहामणा बिंब पंचसेरे पासे श्री जिनवर तणारे ॥१॥ जिनवर तणा ते बिंब जाणु उपरि सत्तावन्नए, त्रेवीसमो जिनराज वंदु मोहिउं मुझ मन्नए। सातमो जिन प्रासाद बीजे वंदोइं उलट धरी, च्यालीस उपरि सात अधिक सोहे प्रतिमा तें भली ॥२॥ सोल समोरे शांति जिणेसर जगि जयो में सात वाडेरे, देखी मुझ मन सुखथयो पांसठि जिनवर रे तिम वली कलिकुंड पासजी जीराउल रे पूरे वंछित आसजी पास पूरे गौतम स्वामी लब्धीनो भंडार ए, सगर कुई पांत्रीस जिनवर पार्श्वनाथ जुहारए । हेबद पुरमां थूभ वांदुजास महिमा अति घणो, एक मनो जे सेव सारइं पुरे मनोरथ तेहतणा वलीयार वाडेरे प्रतिमा सोहें सातरे, मूलनायक रे शांति जिणंद विख्यातरे। जोगी वारे जागतो जिन ओवोसमो अठावन्नस्युरे भविजन भावे नमो॥४॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह नमो ऋषभजिणंद बीजें देहरें अति सुंदरु छत्रिस प्रतिमा तिहां वंदो नमें जास पुरंदरु बीसें छासठि । मल्लि जिनवर मल्लीनाथ पाडें मुदा बावन्न जिनें नें बावन्न प्रतिमा वंदी इंते सर्वदा ||५|| ४४ लखीयार वाडें रे मोहन पास महिमा घरणो, fie त्रिसेरे एकोत्तर तिहां किरण गणो । श्रीमंधर रे स्वामी प्रासाद बासठि जिना बिंब तेरस्यु रे संभव सेवो एकमना ॥ ६ ॥ एकमनां सेवो सुमति जिनवर साठि प्रतिमा सोहती । आठि उपर न्याय सेठ ने पाडे जन मन मोहती ॥७॥ चोखा वटीइं शांति जिनवर बेंतालीस बिंब अलंकरयां । दोढ से जिन बलीइं पाडे ऋषभ जिन जगे जय वरचा ॥८६॥ ढाल: बजी महिताने पाडे शोतलनाथ, प्रतिमा सडतालीस प्रतिमा दोए शांतिनाथ कसुंबीया वाडें शीतल बिंब अढार, श्रीपास जिनेसर बीजें देहरें जुहारु, जुहारी इं जिन वरनी प्रतिमा छासठि मननें रंगें, सो प्रतिमा वायु देवना पाडामां धर्म जिनेसर संगें, चाचरीया माँ पास जिणेसर त्रिणसें नव तिहाँ प्रतिमा परिषद पदमापो लें बीस जिन फोफलीयानो महिमा सोनार वाडे सुखदायक श्री माहावीर बेंतालीस प्रतिमा पासे गुरण गंभीर खेजडाने पाडे एक सोनें अनीस प्रतिमा वंदु उल्लास इं- उल्लासई वली फोफलीया माँ पास जिणेसर पेखु, एकवीस प्रतिमा पासे देखु पातिक सयल उखु शंभवनाथ ने देहरे दोय शत त्राणु प्रतिमा सोहँ, शान्ति जिणेसर देहरे एक्सो त्रिपन जिन मन मोहें । ढाल खजुरीइं मन मोहन पास एकसो सत्तावन श्री जिनपास वाँदु मन उल्लास तो जयो जयो ॥ १ ॥ भाभो भाभा मांहि विराजे च्यार से एक प्रतिमा तिहाँ छाजे महिमा जग में गाजतो जयो ॥२॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह ४५ लींमडीइं श्री शाँति जिणंद त्रिण से सात तिहां श्री जिनचन्द दीठई अति आणंदतो जयो० ॥३॥ करणइं शीतल जिन जयकारी सतन वसोतिहां सारी जनमन मोहनगारी जयो० ॥४॥ बिंब सतर सु शांति सोहावई बीजई देहरई मुझ मन भावई दरीसण थी दुख जायं जयो० ॥५।। देहरा सर तिहां देहरा सरिखुपांत्रीस प्रतिमा तिहां किण निरखु देखी मुझ मन हरख्यतो जयो० ॥६॥ संघबी पोलिंपास जगदीस प्रतिमा एकसो एक त्रीस पूरई मनह जगीस तो जयो० ॥७॥ पीतल मई दोई बिंब विशाल प्रतिमा तेहनी अति सुखमाल दीसई झाक झमाल तो जय० ॥८॥ ढाल:खेललव सही दोय प्रासादइ पास जिणेसर भेट्या साँमल पासनी सुन्दर मूरत देखत सब दुख मेटयारे ॥१॥ भवियां भावे जिन वर वंदो श्री जिनवरने वंदण करतां होवई अति आणंदरे भ० ॥२॥ त्रिणसें अठोत्तर प्रतिमा सामल पासनी पासई महावीर पासें ब्यासी जिन वरसु वंदो मन उल्लासरे भ०॥३॥ देहरासर तिहां दोय अनोपम रूपसो वन मई काम सोवन रूप ____ रयणमें प्रतिमा दीसई अति अभिरांमरे भ०॥४॥ अजुवसा पाडामां प्रतिमा सत्तोत्तर सुख दाई पीतल मेंय श्री विमल जिणेसर वंदो मन लय लाईरे भ० ।।५।। दोसी कुपाना पाडामांहि ऋषभ जिणेसर सोहे सुखदायक जिनसोल सगुणतर देखी जन मन मोहे रे भ० ॥६॥ वसावा. दोयशत अठ्ठावीस शांति जिणेसर स्वामी नेऊं जिनसु दोसी वाडई ऋषभ नमुंसिर नांमीरे भ० ॥७॥ प्रांबा दोसी ना पाडा मांहि मुनि सुब्रत जिनसोल पांचोटडीई एकसोनई बीस ऋषभ जिणंदरंग रोल रे भ० ॥६॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला.संग्रह घीया पाडामां दोय देहरां शांतिनाथ पार्श्वनाथ एक सो विस नईतेर प्रतिमा मुगति पुरी नो साथरे भ० ॥६॥ एकसो छन्नु ऋषभ जिणंदसु प्रतिमा कटकीय वंदी धोली परव मां ऋषभ मुनिसुव्रत छेतालीस चिर नंदीरे भ० ॥१०॥ ढाल:पारिख जगुना पाडा मांहि टांकलो पास विराजेंजी प्रतिमा चौत्रीस चतुर तुम वंदो दालिइ दुखने भाजेजी महिमा ___ जगाहिं गाजेंजी ॥१॥ किया बोहराना पाडामां शीतल प्रतिमा तिम पंचवीसरे खेत्रपाल पाडामांहि शीतलनाथ न मुनि स दिसजी ॥२।। जिहां जिनवर छे बिंसे एकाणूं तिहाथी कोके जइयेंजी। त्रिण में नेऊ प्रतिमासु कोको पारस नाथ पाराहूँजी ॥३॥ अभिनंदन देहरें च्यार प्रतिमा दोय प्रासाद जिहां वंघाजी। Tढेर सामल कलि कुंड पासजी नमतां पाप निकंदाजी ॥४॥ एकसो त्र्यासी प्रतिमा रुडी त्र्यासी जिनवर्द्ध मांनजी। महिताने पाडें मुनिसुब्रत सित्तर जिनवर धानजी ॥५॥ बिसे चौराणू बिंब सहित श्री शांतिनाथ प्रासाद जी। वरवार तणा पाडामां वांदु मुंकी मन विषवाद जी ॥६॥ दौसत में सित्तर जिन प्रतिमा वांदीये अभिराम जी। गोदउ पाडें ऋषभ ने देहरई छन्नु बिंब इणि ठामजी ॥७॥ ढालसालीवाडे त्रि सेरीया मांहि नेमी, मल्लि ऋषभ नमु त्यांहि । नव पल्लव नमु उच्छाहिं जिणेसर ताहरागुण गाऊँ जिभ मन वंछित सुख पाऊं जिन० ॥१॥ साठि उपर शत तिम च्यार बीजई देहरें श्री शांति जुहार बिंब प्रोगण सठि उदार जि० ॥२॥ कलार वाडें देहरा दोय शांति बिंब एकावन दोइ बावन जिनायला जोय जि० ॥३॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह बें पीतल मई बिब सोहावइ विमल प्रभु मनभावे सित्तर जिन गुरण गावें जि० To 11811 तिणें एकसो चोपन जिनराया ऋषभ देवना प्रणमुपाया दरणाय वाडें सिव सुखदाया जि० ॥ ५ ॥ धंधोलीइं संभव जिन साचो वंदित्र्यन जिनमन माचो ए जिनवरमा साचो जि० ॥६॥ दोय शत दस प्रतिमा पासें सोवन जास सरीर सात प्रतिमा गुरण गंभीर जि० ॥७॥ दोय शत दस प्रतिमा पासे श्रीसप्त फरगो जिन पासें पुरें मन केरी आस जि० ॥८॥ खारी वावि श्री जिनवर्द्धमांन तेर प्रतिमा गुणह निधांन जिन नाम कोडि कल्याण जि० ॥ ॥ तिहांथी पंचा सरोवास वंद्या मन धरीऽधिक उल्लास पोहति मनकेरी आस जि० ॥ १० ॥ कधी चैत्य प्रवाडी सोसार मनवां धरी हरष अपार जिन नमतां जय-जय कार जि० ॥ ११ ॥ ढाल: जिनजो धन-धन दिन मुझ आजुनो वंद्याश्री जिन राजहो, जिनजी काज सरयां सवि माहरां पाम्युं अविचल राजहो जिनजी धन० ॥ १ ॥ जिनजी पंचाणं नई माझने श्री जिनधर प्रसाद हो, जिनजी भाव घरी भक्त वंदिरं मुकीमन विषवाद हो निजी धन-धन दिन० ||२|| जिनजी जिननी बिंब संख्या सुगो माझने तेर हजार हो जिनजी पाँच से त्रहोत्तर वंदीइं सुख संपति दातार हो ४७ देहरा सर श्रवणे सुण्यां पंच सयां सुख कार हो जिनजी तिहां प्रतिमा रली ग्रामणी माझने तेर हजार हो जिनजी धन-धन० ॥ ३॥ जिजी धन - धन० ||४|| Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ तीर्थ माला संग्रह जीनजी संवत सतर प्रोगण त्रीसें पाटण कीध चोमास हो जिनजी वाचक सौभाग्य विजय वरूँ संघनी पोहती प्रासहो जिनजी धन-धन० ॥५॥ जिनजी साहा विरुया सुत सुंदर सारामजी सुविचार हो। सुधो समकित जेहनो विनय वंत दातार हो जिनजी धन-धन० ॥६॥ जिनजी धरम धुरंधर व्रत धारी परगट मल पोरवाड हो जिनजी तेहणे साह ज्यइं करी, कीधी मइ चैत्य प्रवाड हो जिनजी धन-धन० ॥७॥ जिनजी तवन तीरथ माला तणु कीधु में अति चंग हो जिनजी साहराम जीने आग्रहें मनि धरी अति उछरंग हो जिनजी धन-धन० ॥८॥ जिनजी तवन तीरथ मालातणु भणइ सुणे वली जेह हो यात्रा तणुफल ते लहइं वाधई धरम सनेह हो । जिनजी धन-धन० ॥६।। जिन जी श्री विजयदेव सरी सरनों पाट प्रभाकर सर हो जिनजी श्री विजय प्रभ सूरी जग जयो दिन-दिन चडतांई नूरही जिनजी धन-धन० ॥१०॥ जिनजी श्री विजयदेव सुरी सरना साधु विजय बुध सीस हो जिनजो सेवक हर्ष विजय तणी पोहती सयल जगीस हो जिनजी धन-धन० ।।११।। कलश: इम तीरथ माला गुणह विसाला प्रवर पाटण पुर तणो, मई भगति आणि लाभ जाणी थुणीइं यात्रा फल भणी, तपगच्छनायक सौख्य दायक श्री विजयदेव सूरी सरो साधु विजय पंडित चरण सेवक हर्ष विजय मंगल करो ॥१॥ इति पाटण चैत्य प्रवाडि स्तवन संपूर्ण संवत् १७८३ वर्षे ज्येष्ठ वदि ३ दिने लिखितं सकल पंडित शिरोमणि पं. श्री १०८ श्री सुमति विजय गणि तत् शिष्य पं. श्री १६ श्री अमर विजय गणि तत् शिष्य पं. सुंदर विजय गरिण लिखितं पाटण मध्ये शिष्य जय विजय पठनार्थं कल्याणमस्तु ॥श्री।।श्री।।श्री।। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री॥ श्री राजनगर तीर्थमाला दोहावचन सुधारस वरसतो, सरसति समरी माय । गुरु गिरुपा गुण आगला, तेहना प्रणमु पाय ॥१॥ गुर्जरधरामें गाजतो, राजनगर शुभ थान । मोटा मंदिर जिनतणा, सुरिणये सत अनुमान ॥२॥ किण किण पोले देहरां, तीर्थंकर अभिधान । रसना शुचि करवा भणी, पभणु तस अहिठांण ॥३॥ प्रभु पास नो मुखडो जोवा, भव भवना दुखडां खोवा ।।ए वेशी।। जुहरी वाडे जिनवर धाम, मानु शिवमारग विशराम । पहलो धर्म जिणंद जुहारो, मन मोहन संभव सारो ॥१॥ सुपारसनाथ निहाली, आज आणंद अधिक दिवाली। सोदागर पोल में सार, शांतिजिन जगदाधार ॥२॥ जुहरी पोल ने लेहरिया नाम, बे वीरजिनेसर धाम । वासुपूज्य दीठां पाणंद, बे शांतिनाथ जिणंद ॥३॥ जगवल्लभ जगतनो स्वामी, निसा पोल में अंतरजामी । सहस्त्र फरणा श्रीपारसनाथ, धर्म शांति शिवपुर ने साथ ॥४॥ चिंतामणी पारसदेव, सुर इन्द्र करे सहु सेव । पाडे शेखने च्यार विहार, वासुपूज्य शीतल जयकार ॥५॥ शांतिनाथ ने अजित जिणंद, मुख जोतां कर्म निकंद । देवसा ने पाडे न्यास, चिंतामणी सांवला पास ॥६॥ धर्मनाथ जगतनो सूर, शांतिनाथ दीठां सुखपूर । तिलकसानी पोल सुथान, शांतिजिन तिलक समान ॥७॥ पोल पांजरें च्यार प्रसाद, भेटी शांति मेटो विखवाद । वासुपूज्य शीतल जिन सार, प्रभु पूजी करो भव पार ।।८।। मुंडेवानी खडकी एक, तिहां देहरा दोय विवेक । मुडेवा पारस पामी, धर्मनाथ नमु शिर नामी ॥६॥ शांतिनाथ हरण भव ताप, महाजने पांजरे आप। एक चैत्य कालूपुर दीठो, जिनशांति सुधारस मीठो ॥१०॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० तीर्थ माला संग्रह धना सुधारनी पोल प्रकाश, ऋरण देहरा दीठा उल्लास । श्री प्रादीश्वर दीनदयाल, दीठां पारस पाप पयाल ॥ ११ ॥ कुंथुनाथ वंदो नर नार, कालू संघवीनी पोल मभार । बे देहरा अमर - विमान, चिंतामणी अजित निदान ||१२|| झोंपडा पोल जुहारण कोड, शांतिनाथ नमु कर जोड । राजा मेतानी पोल उदार, दोय देहरां सुखदातार ।।१३।। कुंथुनाथ आदीश्वर धार, बीजो तारक नहीं संसार । वंगपोलमा नेमि सुरंग, मुख देखण अमनें उमंग || १४ || गोलवाड नी पोल समाज, जिनराज महावीर महाराज । पुरसारंग तलीया जाण, प्रभु पारस अभिनव भांरण ।। १५ ।। कामेस्वर पोल निहाली, जिन संभवनाथ संभाली । वागेश्वरी पोल विख्यात, आदीश्वर त्रिभुवन तात ||१६|| चामाचिडया नी पोल प्रधान, नाथसंभव चंद्र समान पोल नामे सांवला पास, वीर शांति नमो उल्लास ।। १७ । जिनवंदन पुण्य अपार, बोले जिनवंदे थइ उजमाल, भव गणधर सूत्र मझार । त्रोजे वरें शिवमाल || १८ || दोहा - चंद्र किरण सम शोभतो, चंद्रप्रभ जस नाम । धन पीपली पोले सहा, अति उत्तम जिन धाम ॥१॥ ढालनी पोले वंदना, मुनि सुव्रत महाराय | तुम पद वंदन भवि लहे, तीर्थंकर पद प्राय || २ || जमालपुरना पासजी, कीजो पर उपगार । गोडी जोडी तुम तणी, सुणी नहीं संसार ||३|| एक दिवसे जो सेठ सुव्रत पीसो करी ॥ ए देशी ॥१॥ मांही पोल मांडवीजी, काका वलियानी, सुविधि तरणो हरिकिसन नीजी, पोल सेठनी उपगारीजी, शांति पर A पोलो घणी । प्रतिमा सुणी । प्रति भली । निरखो रंगरली ॥ श्रु०॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह रंगरलो जिन पारसनाथ, पेखो सहस्त्र फणावलो। पोल त्रीजी समेत शिखरे, जोतां जिन कमला मली। सूरदास सुसार श्रेष्ठी, पोल तेहना नामनी । आदि जिनने निरख सजनी, कांति घन में दामनी ॥१॥ जिन विमल शीतल रे, लाल भाईनी पोल मां । नाग भूधर रे, शांति जिन रंगरोल मां ॥ चोकमाण करे, मुहूर्त पोल विशाल छ । जिन शीतल रे, त्रिभुवन नाथ दयाल छे ।।त्रु०॥ दयाल दीठो अजित जिनवर, पोल लुहार तणी सुणी। रूपा सुरचंद पोल प्रतिमा, वासु पूज्य सुहांमणी । तीर्थ स्वामी विमल नामी, दाइनी खडकी सदा । पोल घांची नाथ संभव, साथ दायक शिव मुदा ॥२॥ जिन संभव रे, क्षेत्रपाल ना वास मां । गति छेदी रे, नाथ मल्या सखरास मां। भेटी सुमति रे, मूको मन नो पावलो। च्यार देहरा रे, पोल फतासानी सांभलो ।।त्रु०॥ सांभलो भावे सुजांण चेतन, वासु पूज्य बिराजता। श्रेयांस जिनवर जगत ईश्वर, सजल जलधर गाजता । वीर मोटो धीर महिमां, चैत्य चौथो मन धरो। सुमती रमणी स्वाद लेवा, भविक सेवा नित करो ॥३॥ नेमी जिनवरे रे, ब्रह्मचारि शिर सेहरो। पोल टीबले रे, दीठो अभिनव देहरो। पोल हाजे रे, छाजे नव शासनपति । पोल मांही रे, शांतिनाथ नी शुभ मती ॥७०।। सुभमती सेवो चंद्र शांति, जे भणी ग्रंथे विधी। नांम पोल नु राम मंदिर, महावीर महिमा निधो । एह पोलें भविक निरखो, श्री सुपारस दिनमणी । पीपरडीनी पोल माहीं, सुमति जिन शोभा घणी ॥४॥ पातसानी रे, पोले ऋषभ दिवाकरू । दुजा जिनवर रे, धर्म अनंत गुणाकरू । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह कुवे खारे रे, पोले संभव जिन तपे । लांबेस्वर रे, बे जिन योगीश्वर जपे ॥७०।। जपें जोगी सहस्र फणना, सांवला सुहामणा । नाम समरो भविक भावे, पास प्रभु रलीग्रामणा। दोसोवाडे दोय देहरां, नाथ सकल गुणकरा । पार्श्व भावा जगत चावा, स्वामि श्री सीमंधरा ।।५।। वाडे कुसुबे रे, शांतिजिन प्रतपे अति । मारवाडी रे, खडकी मांहि जिन पति । देव दूजा रे, नित सुमरे सुर नरपति । पोल सारी रे, कोठारीनी शुभ मती ॥त्रु०॥ शुभमती सुणज्यो तेहमांहि पोल वाघण परगडी। जगत वल्लभ नाथ समरु केम विसरु एक घडी । तेह पाडे चैत्य सारा, पट तणी संख्या सुणो। आदीश्वर ने अजित स्वामी, दोय शांति जिन भणो ॥६॥ चिंतामणी रे, पारस अाशा पूरतो। वीर वंदो रे, संकट संघना चूरतो। पोल चौमुख रे, कलिकुंड नामे पास छ। वली शांती रे, दिनकर जेम प्रकाश छे ॥त्रु०॥ प्रकाश प्रभु नो पोल नगीना आदि जिनवर नो सुण्यो। साहपुर में नाथ संभव, भक्ति भावें संथुण्यो । पंच भाइ नी पोल रूडी, चैत्य बे जिनराज ना। आदि शांती देव देखी, देव दूजा लाजता ॥७॥ दोहा: इशल पार्व पारसनाथ ना, गुण गण मरिण गंभीर । पूजो कीका पोल मां, भवजल तरवा धीर ॥१॥ भावें निरखु हरख में, संभव प्रभु दीदार । लूणसे वाडे नित नमु, नाथ हियानो हार ॥२॥ दरवाजे दिल्ली तणे, वाडी सेठनइं नाम । कीधी तीरथं थापना, शिव मारग विसराम ॥३॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ तीर्थ माला संग्रह दिवाकर प्रभु दीपता, धर्मनाथ अभिधान । ओरन अरज हजूर में, मुजरो लीजो मान ॥४॥ हवे अवसर जांणी करे संलेखणा साग ॥ए ढाल नो देशी। सहु चैत्य नमी ने, वंदो गुरु गुणवंत । सद् बुद्धि साथे, अनुभव सुख विलसंत । परिसह ने सहवा, दंती जिम रणधीर । श्रुतरयणे भरिया, दरिया जेम गंभीर ॥१॥ दुर्गुण ने टालें, पालें शुद्धाचार । जल उपशम झीली, विमल करें अवतार । महाजंगी जीसो, काम सुभट निरधार । व्याकरण प्रफुल्लित, करता शब्द विचार । कोश नाटिक वक्ता, साहित्य ने वली छंद । राय सभा में जइने, करे कुतिर्थी निकंद ॥२॥ टीका अवचूरि, नियुक्तिना जाण । चूणि भाष्याशय, द्योतक अभिनव भाण । षट्शास्त्र ने जाणे, तांणे नहीं लवलेश । वीश वरस प्रमाणे, विहरे सघले देश ॥३॥ सह देश ना संघ ने, उपजावे परतीत । रुचि पद ने धरवा, रहे आप अतीत । शुद्ध चारित्र धरता, वीता वरस दुवीस । प्राय तेहने आपें, आचारज गण ईश ॥४॥ पडिरूवादिक सहू, उपदेश माला व्यक्त । षड्विंशत गुण गण, सूरिपदना युक्त । पद धरवा ए विधि विशेषावश्यक बीज । यदि शिव सुख अर्थी, गुरू एहवानें धीज ॥५॥ साधु ने श्रावक, पंडित जेहना नाम । वलि गच्छना स्वामी, लीजे तस परिणाम । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह देश काल संभाली, देता शुद्ध उपदेश । लौकिक लोकोत्तर, बाधक नहीं लवलेश ॥६॥ तस आणा धारो, जेम कहे ते ठोक । उपदेशपदादिक, शोडश समेत हतोक । गीतारथ आपें, पीज्यो विष ने आप । अमृत ने आपें, अगीतारथ छाप ।।७।। तस अमृत छंडो, निर्वित एक असार । गच्छाचार पयन्ने, जोवो ए अधिकार । पडिकमणा अवसर, अथवा बीजी वार । अढाई ज्जैसु, कीजे सूत्रोच्चार ॥८॥ ए रीते वंदो, चिउ दिशि ना अणगार । सद्गुरु ने अभावें, वंदन एह प्रकार । मूठ-मच्छरधारी, अक्षर नो नवि बोध । जगें जोधा थइ ने, करे परंपर सोध ॥६॥ कायक्लेश में करता, धरता मेलो वेश । मन मान्यु बोले, करवा पागम उद्देश । जिन शासन डोले, बोले जलधि मझार । शिकायोगें करज्यो, एहवानों परिहार ॥१०॥ अनुष्ठान करंतां, करवा पर अपमान । मंजार तणी परइ, क्रियानो तोफांन । क्रोधी ने कपटी, लंपटी रसना जेह । छल हेर क होणा, कुगुरु कहावे तेह ॥११॥ जे साधु थइने, करें कुशीलाचार । पद तेहने करतां, विधि वंदन व्यवहार । जिणांण विराधे, करे अनंत संसार । महावीर पयंपे, महानिशीथ मझार ॥१२॥ दोष उत्तर देखो, राखो सम परिणाम । शुद्ध धर्म सरणावे, एहीज उत्तम काम । मलमांहो मोती, लेवा नो नवि दोष । उपदेश सुणीने, धरज्यो मन संतोष ।।१३।। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह ५५ दुहा काम भोग भेला अछे, आरत रौद्रना बीज । धन जन एहथो प्रोसरया, प्रगट्या जस बेधि बीज ॥१॥ रूप विजय विद्या निधि, विमल उद्योत सुसंत । वीरविजय वचनावली, थया थविर गुणवंत ॥२॥ सेठ हठिसिंह सांभरे, जेहना गुण अभिराम । वीसरया नवि वोसरे, सज्जन जन ना नाम ॥३॥ काम-कलण बुडा नहीं, तीन समय अणगार । श्रावक ने वलि श्राविका, वंदो वार हजार ।।४।। हवें श्रीपालकुमार ॥ देशी ए ढाल नी ॥ तपगछ नो सुलताण, सिंहसूरीश्वर जगजयो जी । सत्य विजय अभिधांन शिष्य विभूषण तस थयो जी ॥१॥ कीधो धरम उद्धार, संवेगी नभ दिनमणी जी। कपूर विजय पट्टधार, उज्जवल कमला तस तणो जी ॥२॥ पदकज मधुकर रूप, क्षमा विजय गुण आगला जी। जिनविजय जिन रूप, पाटें तेहनइं निरमला जी ॥३॥ वृद्धि विजय पन्यास, हंस विजय गुरु गुण निधि जी। मोहनविजय पास, आराधननी बहु विधि जी । ४॥ तेहना शिष्य प्रधान, अमृत विजय सुहामणा जी। शीतल चंद्र समान, अतिशय गुण गण नहीं मणा जी ॥५॥ पालीपुर ने पाश, हाथ प्रतिष्ठा सांभली जी। जालो प्रभुनो उल्लास, जिन जोतां मतिप्रति भलिजी ॥६।। काजल केसर जात, नयणे जइ ने निहालजो जी। एहवा तस अवदात, गुण गिरुपा संभाल ज्यो जी ।।७।। बहुला जैन प्रासाद, तस उपदेशे नीपना जी। दीठां अधिक पाल्हाद इंद्र लोके गुरु ऊपनाजी ।।८।। तरणी तुल्य प्रकास, गणधर गोयम जेहवा जी। तस पद अधिक उल्लास, तेज विजयगुणी तेहवा जी ।।६।। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ तीर्थ माला संग्रह तप गण हवणां अधीश, देवेन्द्र सूरि पेखज्यो जी। कीजो अवगुण त्याग, केवल गुणने देखज्यो जी ॥१०॥ अमदावाद अचंभ, सेठ हेमा-भाइ महागुणी जी। सुरिगये शासन थंभ, सेठ हिये करुणा घणी जो ॥११॥ साधु समतावंत, गुणवंती गुरुणी घणी जी। नर नारी धनवंत, खाण रतन नीइहां सुणी जी ॥१२॥ उगणोशे ने बार, शार चोमासो शेहिरमां जी । मुझ सिद्ध चक्र आधार, पार उतारें लेहरमां जो ॥१३॥ शुक्लाश्विनमझार, नव पद अोलि ऊजलो जी।। आठम दिन गुरुवार, वाणी मुज गंगाजली जी ॥१४॥ शीतल जिनगुणमाल, चन्द्रकला गगर्ने टली जी। पभणी च्यारे ढाल, मन नी प्राशाग्रम फली जी ॥१५॥ तेज विजय जयकार, शांति विजय समता घणी जी। उपगारी अवतार, बलिहारी तस पद तणी जो ॥१६ । तस पद किंकर समान, रत्न विजय मुनि शिवभणी जो । तीरथ माला नाम, कीधी रचना जिनतणी जी ॥१७॥ अलिकोच्चारण पाप, मिच्छामि दुक्कड मो भणी जी। कीज्यो अवगुण माफ, लोज्यो सज्जन गुणमणी जी ॥१८॥ ॥ इति श्री राजनगरनी तीर्थमाला ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥धी॥ तीर्थाधिराजश्री शत्रन्जय गिरी तीर्थमाला जग जीवन जालिम जावारे तुम्हे श्यां ने रोको रानमां ए देशो। द्वाल:विमला चल वाल्हा वारूरे भले भवियण भेटो भावमां, तुम्हे सेवो ए तीरथ तारू रे जिम नपडो भवना दावमां ॥प्रकरणी।। जग सघलां तीरथ नो नायक तुम्हे सेवो ए शिव सुख दायकरे ॥१॥ भले-भले ए गिरीराज ने नयणे निहाली तुम्हे सेवो अविधि दोष टाली रे ॥२॥ भले० मुगता सौवन फूलें वधावी हारे नमीइं पूजी भावना भावो रे ॥३॥ भले० कांकरे-कांकरे सिद्ध अनंता, संभारो पानें चढ़तारे ।।४।। भले० आदि अजित शांति गौतम केरां, पहेला पगलां पूजो भलेरांरे ॥५॥ भले० आगे धोलि परव टुकें चढीये, तिहां भरत चक्री पद नमीइंरे ।।६।। भले० नीली परव अंतरा ले आवे, नेमि वरदत्त पगलां सोहावे रे ।७।। भले० आदि थुभनमी कुंड कुमारा, हिंगला जहडे चढो प्यारा रे ॥८॥ भले० तिहा कलि कुड नमी श्रीपास, चढो मान मोडें उल्लास रे ॥६॥ भले० गुण वंत गिरिना गुण गाई ई, शाला कुडे विसामो भाई ॥१०॥ भले० तिहांथी मका गली पंथे धसियें, प्रभु गढ देखी ने उल्लसीये रे ॥११॥ भले० नमीइं नारद अहि मत्तानी मूरती, वलिंद्र विडवारी रिव सूरतिरे ॥१२॥ भले० तीरथ भूमि देखी सुख जागें, निरख्यो हेम कुंडनी आगे रे ॥१३॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ तीर्थं माला संग्रह ततएण गूजर संघ सुरोवी, हइडइ अधिकउ भाव धरेवी । जिन पूजन चालु सहु ए ||१३|| भास पूरव मरुधर गुजराति मेवाडह नारी, अपछरा रूपि अवतरी ए । नव नव श्रृंगारी ॥ १४॥ एक गाई वर गीत रीति रूडी मुख दाखइ निय निय देसह । तरणीय भाव जिन गुरण मुसि भाष ॥ १५ ॥ इम करतां संघ विउ ए, सहु सीहदुग्रारि च्यारह देसह । तरणी नारि-मनि हरिष अपार ॥ १६ ॥ पूरधनी कहइ पहिलु हैं ए, पजिसु जिरणचंद | मारवाडिता लाडि भणइ, घेसेका सुगंद ॥ १७॥ पहिररिण माछा कापडां ए, वलि लाज न दीसइ । श्राछत्र देस तुम्हारडउ ए, इम बोलइ रीसइ ॥ १८ ॥ पुरुषक धोटी पहिरणइए, ऊघउ वलि बोलेइ । ते नर नारि मारवाडी, सरसी कुरण तोलइ ॥ १६ ॥ क्योबपुरी बहु विरुद तीए, तेरा देस पिछाणुं । कुआ कंठइ च्यार प्रहरु निसि करहि बिहार ॥ २० ॥ ते परिण स्यारा नीर वास, थल उपरि तेरे भरट भुअंगम । पहिराइ ए कांबली रे रे ॥ २१ ॥ बाद करंता सांभलीरे गूजरनी नाखा बोलइ वइ तुम्ह । सांभलो ए || मम वचन विचारो ||२२|| गूजर देसह उपरइ नहि, को संसार सी पूरव सीमा प्राडि ए मुनिरधार ॥२३॥ सेत पटली पहिराइ ए वारु फूल तांबोल वारु भोजन सालि दालि यनगमता घोल ||२४|| विजय विवेक विचार, सार जिनधर्म भलेउ त्याइ ज्यावाहीरा कनक ॥ २५ ॥ धर्मवंता विविहारी सोहइ । अहिलवाडा नयर सरिस । सुरपुरि मन मोहइ ॥ २६ ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ भाला संग्रह सतर सहिस्त्र गुजराति ए... मेवाड शुरिण "अवर देस सवि मेलवा सुरवाण कहिज ए ||२७|| वातडी ए रातडी बोलइ ... बिहिनि म बोलि विरुद | तुम्ह मोटी साखई ॥ २८ ॥ प्रारण भोजन ए हुवइ प्रहार । ******... ५६ - मीलन नारी कंथि साथि मंडइ विविहार ॥२६ "वउपइ मेवाडि मोटइ मंडारिण । करइ आपण देस वखारण "टसिरीसु जिहादुग्रं ... तरि उठइ स्वग्नं ॥३०॥ सुकोसल रिषि सिध उजित्या रामचंद गिरि कहोइ ईह । चित्रांगद राजा नुंठाम जोताँ नयणे प्रति अभिराम ||३१|| जिाहर मनोहर प्रतिउत्तंग वाद करइ आकासिंह गंग । वारु मंदिर पोलि दपागार, तलियां तोरण घर घरि वारि ॥ ३२ ॥ वारु गंध सुगंधि शालि, नीर नदी वहइ सुविशालि । विषमीवेला आवs काजि, जिहां जिन धर्म के रुराजि ॥ ३३ ॥ , तलइ, सिउ देस मेवाड प्रसिध धन करण कंचरण रयण समृध । घणी कहुँ कसी उपमा, रंगि रमिइ ईश्वर नइ उमा || ३४ | इसी वात निसुणी जे पूरवनी बोली ते तलइ । प्राउ तीनइ सखी मिलि जाउ, मेवाडी उतर देस प्राउ ||३५|| तब मरुधरनी बोलइ नारि, गिरि सिरि ऊपरि तुम्ह प्राधारि । वारु वाहन करह न ठाम, पाली पुलइ ||३६|| काला कापड उवेस, चोर चरड नउ एह ज देस । भलां कोइ नवि दीसइ तिहां, तू सरखी दीसइ भिइ जिहां ||३७|| कहइ गूजरी सुरिण मुज वाणी, मेवाडी तू मकरइ वखाण । म्ह देसिसेज गिरिनारि, नितु नितु प्रणमु' त्रिणे कालि ||३८|| सब तीर्थंकर कहइ किहां भया, गोयम पमुहुं किहां मुगति गया । धना शालिभद्र अणगार, पूरवनी कहइ वचन विचार ||३६|| Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थं माला संग्रह अभयकुमार अनइ श्रीमेह, श्रेणिक राजा धर्म सनेह । श्रीमेतारय आणंद नाम, कामदेव श्रावक अभिराम ॥ ४oll ६० हवइ दुहा जिन मंदिर जावां भरणी, प्रावी सोरठ नारि । वाद करंति देखि करि, बोलइ बोल विचार ॥४१॥ काहु सखि तुम्हारु बोल फलउ, बोलउ बोल अपार । देसडा, सहुनइ गमइ आप आपणा अपार ॥४२॥ जाणि । वखाणि ॥ ४३ ॥ ए वाद तुम्हारओ जो खरउ जो जिन पूजा सत्तरभेद पूजा वली, करइ ते देस गुजराती नो गोरडी, भणइ भलु जिनिकरि जिरणवर पूजीइ ते हुँ जाणु चंपक केतक केवडा मरूनो दमरणो वर कल्हार पाडल भलां जाई जुई न सेवंत्रां सोवन कली, कुसुमह माल । वारू केसर चंदन अगर कपूर कस्तूरीस्युं सार ||४६ || कल्पवृक्षनां कल्पवृक्षनी वेलि । फूलडां अवर सुगंधे फूलडे, हवइ करीइ रंग रेलि ॥४७॥ जिनमंदिर, नहिं सुरगउ विहिनि चउरासि आसातना, टालइ ढाल सामेरी चउथ अ समेलि आवइ रे जिनमंदिर भावना भावइ । श्री ऋषभ तरणा गुणगावइ रे वली वली शीस नमावइ || ४ || जिनपूजाइ नवरंगी रे, गुणगान करेइ बहु भंगी 1 जय जय नाभि मल्हारो रे, शत्रुंजय गिरिवर श्रृंगारो ॥ ५० ॥ तव गूजरधरनी नारी रे, शृंगार करे अतिसारी रे । जिन प्रागलि नाटिक मंडइ रे प्रभु दरिसन नेत्र न छंडइ रे ॥ ५१ ॥ परि घूघर माला घमकइ रे, कस्तुरी परिमल बहिकइ रे । वर वेणी भरणी लहुकइ रे गुणगान करइ वर वहइकइ रे ॥५२॥ onl काम । आम ॥४४॥ रंग । विरंग ॥ ४५ ॥ वादनउ ठाम । ते अभिराम ||४८ || Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह धन धन धन नाभि नरसु रे, मरुदेवी उपरि हंसू । दौं दौं कति मादल वाजइ रे, सनाइ नादइ अंबर गाजइ ।।५३।। वली वंस विशेष वजावइ रे सुर किन्नर जोवा आवइ । रूडा ताल थकी नवि चूकइ रे पद ठवणि निरतइ मुकइ ।।५४।। राग जयमालाइणि परिनाटिक कीघलु, नमोत्थुणं भगवंत । द्रव्य पूजा श्रावक भरणी, तिहां छइ लाभ अनंत ।।५।। तिहां लाभ अनंता जाणि, श्री आगम केरी वाणी । सुणी सदहणा मनि प्राणी, कां चूकउ मुरख प्राणी ॥५६॥ मूरख प्राणी सांभलो, अम्ह मनि राग न रोस । ज्ञाता मि द्रुपदी, कीधी पूज न दोस ।।५७।। कीधी पूजन दोस इम प्रतिमा भगवती मांहि । चमरातणइ अधिकार छइ ए पागम-परवाह ॥५॥ ए आगम मारग सुधउ, जिन पारणा तुम्ह प्रतिबुज्झउ । भाव पूजा मुणिजइ बोलि, कल्पि इ मतिम करउ भोली ।।५।। भोली मति सवि परिहरी, मिच्छा दुक्कड देय । संघ प्रति सदुइ हरषिउ, इन्द्रमाल पहिरेय ॥६०॥ इन्द्रमाल पहिरि करी, भावना भावइ भूरि । च्यार संघ सोहामणा वस्सइ कंचण पूरि ॥६१॥ वरिसइ कंचण कोडि प्रभु प्रणमी दो कर जोडी। चारु छंद वदन गुण गावइ अतिउलट अंगि न मावइ ॥६२।। अति उलट अंगि न माय तेणइ हइ उइ हेज अपार । सवि तीरथ भेटि करि सवे करू जुहार ।।६३।। सवि तीरथ भेटी करी, पउहता गढ गिरिनारि । नेमिनाथ जिन वंदवा यादव कुलि शृंगार ॥६४॥ ए यादव कुलि शृंगारा राजीमति प्राण प्राधारा । चारु चंदवदनीं सकुलीगी नव भवनी नारि अमीणी ॥६५॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह नव भव नारि विचारि करी संत न दाखइ छेय । पेहलु शिव पुरी पाठवी ए गिरुपा तण सनेह ॥६६॥ कलश:इम सकल तीरथ राय भेटि पुण्य पेटी बहु भरी। श्री संघ हरख्या देव निरख्या विजय यात्रा इम करी। श्री भक्तिलाभ सीस जंपइ चारुचंद दयापरो । सो दसु निम्मल नाण संपइ पढम जिण आदीसरो ॥६७।। इति श्री शत्रुजय चैत्य परिपाटी श्री आदीश्वर स्तवनं समाप्त । संवत् १६४८ वर्षे फागुण शुदी १४ दिने लिखितं पंडित श्री मुनि विजय गणि शिष्य कृपा विजय गणिना। श्री गिरिनार्योपरि स्ववाचनार्थं । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शत्रुजय तीर्थ-चैत्यपरिपाटी श्री भक्ति लाभ शिष्य चारू चन्द्र रचिता पहइलु प्रणमु श्री अरिहंत, दोष अठार रहित भगवंत । सेत्रुजय गिरि छेइ गुणवंत, ज्यों राजे श्री रिसहजिणंद ॥१॥ छइ गुणवंत, जिहां राजे जात्र करेवा प्रावइ संघ, श्रावक नर नारि मनि रंग । अंग उमाहउ अतिघणउ ए ॥२॥ अन्न दिवस श्री पालीताणइ, आव्या संघपति सुपरि वषाणइ। च्यारि देसना, जूजुमा ए ॥३॥ पूरव देस थिकी संघपति, आव्या संघ नियनारी संजुती। रूप रेख लिखिमी जिसी ए॥४॥ मरुधर देसथिकी मंडाणइ, पाव्या संघपति करइ पल्हाणि । घर नारी गाडलइ चढी ए ॥५॥ गुजर संघषति गरुई युगति, बइठा सेजवाली संपत्ति । __ वामांगी निज गोरडी ए ॥६॥ तिणइ अवसरि मेवाडह संघ, संघपति सहित करइ नितु रंग । __ कामणि धामणि धसमस ए ॥७॥ पूरव देश तणी वरनारी, सोल शृंगार करी अतिसारी। रूपि रंभ हरावती ए॥८॥ चंदन केसर भरिय कचोली, पहिरि नवरंग जादर चोली। भोली भगति प्रतिवणुए ॥६॥ पहठती प्रिय पासइ इम बोलइ, तुम सम अवर संघ कुण तोलइ । पहलु पूजिसु पठम जिन ॥१०॥ ताम संघपति करिय सजाई, आपुरि पहुतउ तव धाई । ___ मरुधर संघपति सांभलुए ॥११॥ विहिला विहिला वार मलाउ, जिको महारो सो विहिलु पाउ । मोसग पहिलुभुजिन पूजस्युए॥१२॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ तीर्थ माला संग्रह भले० राम भरत श्रुक शेलग स्वामी, थावच्चा नमुसिर नांमी रे ॥१४॥ भले० भूषण कुंडवाडी जोइ वंदो, सुकोसल मुनिपद सुख कंदो रे ॥१५।। भले० पागल हनुमंत वीर कहाइ, तिहाथी बे वाटि जवाइ रे ॥१६।। भले० डावी दिसा राम पोले होरंजी, सांमी दीसे नदीय सेबुजी रे ॥१७॥ भले० जातां जिमणी दीसि वंदो भाली, मुनि जालीमशाली उवसाली रे ॥१८॥ भले० तिहाथी डावी दिसी सोहमा सोहावें, नमो देवकी षट् सुत भावे रे ॥१९॥ भले० इम शुभ भावथी उत कर, राम पोलिमां पइसीइं हरषे रे ॥२०॥ भले० कुतासर पालि नवयण भालो, जेकीधी साह सुगालो रे ।।२१।। भले० धाइ सोपान चढी अति हरषो, जई वाघिण पोलिं निरषो रे ॥२२॥ भले० थिरताई सुभ जोग जगावो, कहे अमृत भावना भावो रे ॥२३।। ढाल:सीता हरषी जी ए देशी-नलिना वत्ती विजये जयकारी ए देशी ।। अती हरर्षे संचरतां जोतां, जिनघर अोला अोलीली जी जीव जगाडी सीस नमांडी, पावी हाथी पोलेजी हुँतो प्रणमुरे हरषी जी ॥१॥ आगल पूंडरीक पोले चढतां, प्रणमु बेकर जोडी जी। तीरथ पति - भुवन निहाली, करम जंजीर में तोडी ॥२॥ मूल गंभारे जातां मांनु, सुकृत सघले तेडी जी। ततषिण दुकृत दूर पूलायां, नांषी कुगत उषेडी जी ॥३॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह दीठो लाडण मरु देवीनो बेठो तीरथ थापीजी। पूरब नवाणु वार पाव्याथी, जगमां कीरत व्यापी ॥४॥हुँनी० श्री आदीश्वर विधिस्यु वंदो, बोजा सर्व जुहारूं जो । नमी विनमी काउसगिया पासें, जोइ जोइ आतिम तारू ॥शाहुँ०नी० साहमा गजवर खांधे बेठां, भरत चक्री में माडोजी । तिम सुनंदा सुमंगला पासें, प्रणमु धनते लाडो ।।६।०नो० मूल गंभारा मां जिन मुद्रा, एक जंगी पंचासजी। रंग मंडपमा पडिमा इंसी, वंदी भाव उल्लासजी ॥७॥०नी० चैत्य उपर चौमुख थाप्योछे, फरती प्रतिमा बांणुजी। वली गौतम गण धरनी ठवरणा, शी तारोफ वखांणु ॥८हुँनी० देहरा बाहिर फरती देहरी, चोपन खडी दीसेंजी।। तेहमां प्रतिमा एकसो त्राणु, देखी हीय`हींसें ।।६।।नी नीलडीरायण तरू अर हेठल, पीलडा प्रभुना पायजी। पूजी प्रणमी भावना भावी, उलट अंग नमाइंजी ॥१०॥हुँनी० तस पद हेठल नाग मोरनी, मूरत बेहूँ सुहावेजी। तस सुर पदवी सिद्धा चलना, महातम माहे कहावें ॥११॥हुँ०नी० सोहमां पुंडरीक स्वामी विराजे, प्रतिमा छवीस संगेजी। तेहमां बौधनी एक जिन प्रतिमा, टाली नमीये रंगेजी ॥१२॥हुँनी० तिहाथी बाहिर उतर पासे, प्रतिमा तेर दिदारूजी । एक रूपानी अवर धातुनी, पंच तीर्थी छे वारुं ॥१३॥हुँनी० उत्तर सनमुख गण धर पगलां, चउदसयां बावन नांजी। तेहमां सात जिणंद जुहारि, पूरयां कोउते मननां ॥१४॥हुंनी. दक्षिण पासे सहस्त्र कूटनें, देखी पाप पलायजी। एक सहस चउवी से जिरणेसर, संख्याइं कहेवायें ॥१५॥हुं०नी० दश क्षेत्रे मलो त्रीस चोवीसी, एक सो साठि विदेहेजी। उत्कृष्टा वेर मान विभूजी, संप्रति वीस सनेहे ।।१६।।हुं०नी० चोवीस जिननां पांच कल्याणक, एकसोवीस संभारीजी। शाश्वत च्यार प्रभु सरवालें, सहस कूटनिर धारीजो ॥१७॥हुं०नी० गौमुख जक्ष चक्के स्वरी देवि, तोरथनी रखवालीजी। ते प्रभुना पद पंकज सेवें, कहें अमृत निहालीजी ॥१८॥हुं०मी० Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह ढालमुनि सुव्रत जिन अरज अम्हारी ए देशी । आस्या उरी नंदकु त्रिशला हुलावे, ए अांकणी ।। एक दिशाथी जिन घर संख्या जिन वरने संभलावुरे । आतिम थी अोल खाण करीने, तो अोलखाण वतारे ॥१॥ शिभुवन तारण तीरथ वंदो ए अंचली। रायण थी दक्षिण में पासें देहरी एक भलेरी रें। तेहमां चौमुख दोय जुहारी, टालू भवनि फेरी रे ॥२॥हुंतो०ओ० चौमुख सर्व मलीने छूटा वीस संख्याइं जाणारे । छूटी प्रतिमा आठ जुहारी, करीइं जन्म प्रमाणोरे ॥३॥हुंतो०प्रो० संघवी मोती चंद पटणीनु सुन्दर जिन घर मोहेरें। तिहां प्रतिमा प्रोगणीस जुहारी हियडु हरषित होइरें ॥४॥हुं०त्रि० श्रीसमेत शिखर नी रचना कीधीछे भली भांतरे। वीस जिणेसर पगलां वंदू बावीस जिन संघातरें ॥५॥हुँ०त्रि० कुसला बाईना चौमुख मांहें सत्तर जिन सोहावेरे । अंचल गच्छना देहरा मांहि बत्रीस जिनजो देखावेरे ॥६॥हुं०त्रि० सामूलाना मंडपमोहे छतालीस जिणंदारें। चौवीस पद्ये एक तिहांछे प्रणम्य परमा नंदारे ॥७॥हुं०वि० अष्टापद मंदिर मां जईने अवधि दोष तजीसरे । च्यार आठ दश दोय नमीनें बीजाजिन च्यालीसरे ॥८॥हुं०वि० सेठजी सुरचंद नी देहरीमां, नवजिन पडिमा छाजेरें। घीया कुअरजीनी देहरीमा प्रतिमा गीण्य विराजेरे ।।६।।हुं०त्रि० वस्तु पालना देहरा मांहे थाप्या ऋषभ जिणंदरे । काउ सगीया बे एकत्रीस जिनवर संघवी ताराचंदरे ॥१०॥हुं०त्रि० मेरु शिखरनी ठवरणा मध्ये प्रतिमा बार भलेरी रे । भाणा लींबड़ी यानी देहरीमा दश प्रतिमा जुहो हेरी रे ॥११॥हुं.त्रि. संघवी ताराचंद देवल पासे, देहरी त्रीण सें अनेरो रे । तेहमां दश जिन प्रतिमा निरषी,थिर परणिती थइ मेरीरे ॥१२॥हुं.त्रि. पाँच भाइयाना देहरा माँ है, प्रतिमा पांच छे मोटोरे । बीजी तेत्रीस जिन पडिमा, वात नहीं ए खोटी रे ॥१३॥हुं.त्रि. Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थं माला संग्रह अमदावादीनं देहरू कहीयें, तेहमां प्रतिमा तेर रे । ते पछवाडे देहरी मांहे, प्रणमु, आठ सवेर रे ।। १४ । हुं. त्रि. सेठ जगन्नाथजी इंक राव्यं, जिन मंदिर भले भावें रें । तेहमाँ नवजिन पडिमा वंदी, कवि श्रमृत गुण गावे रे ।। १५ ।। हुं. त्रि. ढाल: -- तुम्हे पीलां पीतांबर पेरयांजी, मुखने मरकलडे, ए देशी ॥ रायण थी उत्तर पासेजी, तीरथना रसिया, जिनवर जिनघर उल्लासें जी मुझ होयडे सहू भाषु जोइ सिव नामीजी, तीरथना मुझ मनडा अंतर यामी जी मुझ हीयडे जिन मुद्राई ऋषभ जिरदोजी, तोरथना तिम भरत बाहुबल वंदोजी, मुझ हीयडे नमी विनमी काउ सग सीमाजी, तीरथ ब्राह्मी सुंदरी एक देरी पक्ष किसन श्रुक्त व्रत सेठ विजय ने विजया एहवां कोई नहूँ अवतारीजी, तीरथना तीरथना मुझ हीयडे जाउ तेहनी हूं बलिहारीजी, गच्छ अंचल चैत्य कहावेजी, वीस पडिमा बंदु भावेजी, तस मंडप थंमा मांहेजी, चउद पडिमा वंदु त्यांहिजी, मुझ मनडे भूषण दासना देहरा मांहेजी, तीरथना तेर प्रतिमा थापी उच्छा हेंजी, मुझ हीयडे बाछरडा मंगल स्वभातीजी तीरथना तस चैत्यमा गण्य सोहा तीजी, मुझ मनडे साकर बाईना देहरा मांहेजी, तीरथना सात प्रतिमा निरषी आणंदोजो, मुझ हीयडे तिहांथी वली आगल चालीजी, तीरथना माता दीसोतनुं देहरू भारीजी, मुझ हीयडे मांजी, धारी जी, नारी जी, मुझ हीयडे तीरथ ना मुझ होयडे तीरथना तीरथना वसिया || रसिया । वसिया || रसिया । वसिया || नारसिया । वसिया || रसिया । वसिया रसिया । !! रसिया || वसिया । रसिया || रसिया । वसिया || रसिया । वसिया || रसिया । वसिया || रसिया । वसिया || रसिया । वसिया ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ तीर्थ माला संग्रह पिण ते वस्तु पाले कराव्युजी, तीरथना रसिया । आठ पडिमाइं सोहाव्युजी, मुझ हीयडे वसिया ।। ते उपर चौमुख राजेजी, तीरथना रसिया। च्यार शाश्वता जिनजी विराजेजी, मुझ हीयडे वसिया ॥ ऊगमणी बेछेदेरीजी, तीरथना रसिया । जिन पडिमा इग्यार भलेरीजी, मुझ हीयडे वसिया ॥ साहेम चन्दनी दखणातीजी, तीरथना रसिया। देहरीमा जोडी सुहातोजो, मुझ हीयडे वसिया ॥ सा रामजी गंधारीइं कीधोजी, तीरथना रसिया । प्रासाद उत्तंग प्रसिद्धोजी, मुझ हीयडे वसिया ।। तिहां चौमुख देखी पाणंदुजी तीरथना रसिया। सात प्रतिमा साथे वंदूंजी, मुझ हीयडे वसिया ।। षट देरोछे तस संगेजी, तीरथना रसिया। जिन नमीइं त्रेतालीस रंगेजी, मुझ हीयडे वसिया ॥ तेह चोवीस जिननी माडीजी, तीरथना रसिया । जिन संगे लेइ नें वाडीजी, मुझ हीयडे वसिया । मूल कोटनी भमती माहेजी, तीरथना रसिया। फरती छे च्यार दिस्याइजी, मुझ होयडे वसीया । पांच से सडसठी सुख कंदोजी, तीरथना रसिया ।। फरताँ जिन सघले वंदोजी, मुझ हीयडे वसिया । मूल कोटनी चैत्य नीहावेजी, तीरथना रसिया ।। तिहाँ प्रभु सग वीससे वंदोजी, मुझ हीयडे वसिया ।। कहे अमृत ने चिर नंदोजी, तीरथना रसिया ॥१२॥ ढाल ५ मी. हुं वारीरे एदेशी । वातकरो वेगला रही म्हारा वाल्हारे एदेशी । हवें हाथी पोलेनी बाहिरें वीसरामी रे । बे गोंखे छे जिनराज नमुशिर नामी रे। तेहथी दक्षण अणी इं, वीसरामी रे । ___ कहुं जिनघर जिननो साज नमु शिरनामी रे। कुमर नरे ह करावीयो वीसरामी रे । धन खरची सार विहार नमुशिर नामी रे । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह बावन शिखरें वंदीये, वीसरामी रे । तिहुंत्तर जिन परिवार नमु० ॥ वली धन राजने देहरे, वोसरामी रे । प्रतिमा वंदु सात नमुं शिरनामी रे । देहरे वर्द्धमान सेठ ने वीसरामी रे । प्रतिमा सात विख्यात नमुळे शिरनामी रे । सा रवजी राधनपुरी विसरामी रे । तेह जिनधर जोय नमुं शिरनामी रे । तिहां पन्नर जिन दीपता विसरामी रे । प्रणम्यां पातक धोय नमुं शिरनामी रे । तेहनी पासे राजता विसरामी रे । मंदिरमां, जिनवर च्यार नमुं शिरनामी रे । तिहांथी प्रगल जोइइं विसरामी रे । अद्भुत रचना च्यार नमुं शिरनामी रे । जगत सेठजी करावी यो विसरामी रे । रण शिखरो प्रासाद नमुं शिरनामी रे । तिहां पन्नर जिन पेखतां विसरामी रे । मुभ परिणती हुई प्रह्लाद नमुं शिरनामी रे | पासे भुवन जिन राजनुं विसरामो रे, तिहां षट प्रतिमा घार नमुं शिर नामी रे ॥ मुरछा उतारी की विसरामी रे, तेहीर बाई इ सार नमुं शिरनामी रे ॥ कुरजी लाघात विसरामी रे, दीपे देवल खास नमुं शिरनामी रे ॥ तेत्रीस जिनसु थापीया विसरामी रे, सहस फणा श्रीपास नमु शिरनामी रे || विमल वसही यें चैत्य छै विसरामी ये, जुम्रो भूलवणीमां चार नमुं शिरनामी रे ॥ वली भमती चौमुख बेमली विसरामी रे, तिहां इक्यासी जिनधार नमुं शिरनामी रे | ६६ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० तार्थ माला संग्रह नेमीसर चउरो जिहा विसरामी रे, तिहां एकसो सित्तर देव नमु शिरनामी रे ॥ मूल नायक स्यु वंदीइं विसरामी रे, लोक नाल ततखेव नमु शिरनामी रे ॥ विमल वसही पासे अछे विसरामी रे, देहरा दोय निहाल नमु शिरनामी रे॥ प्रतिमा आठ जुहारीइं विसरामी रे, आतम करी उजमाल नमु शिरनामी रे ॥ पुण्य पापर्नु पारखु विसरामी रे, करवाने गुण वंत नमु शिरनामो रे॥ . मोक्ष बारी नामे अबें विसरामी रे, तिहां पेसी निकसो संत नमु शिरनामी रे ॥ तीरथनी चोकी करे विसरामी रे, वली संघ तणी रखवाल नमु शिरनामी रे ॥ करमा साहें थापीयां विसरामी रे, सहं विघन हरे विसराल नमु शिरनामी रे ॥ सघले अंगे सोभतां विसरामी रे, भूषण झाक झमाल नमु शिरनामी रे ॥ चरणा चोली पेहरणे विसरामी रे, ___ सोहे घाटडीलाल गुलाल नमु शिरनामी रे ॥ चतुर भुजा चक्केसरी विसरामी रे, तेहना प्रणमीपाय नमु शिरनामी रे ॥ सघल संघ अोलग करे विसरामी रे, बुध अमृत भर गुण गाय नमु शिरनामी रे ॥ ढाल ६-- हरीयें प्रापीरे वृंदावन मां माला एदेशी। भवि तुम्हे सेवोरें एह जिनवर उपगारी, कोनहि एहवोरें तीरथ मां अधिकारी ॥ प्रकरणी। हाथी पोलथी उत्तर श्रेणें जिन घर जिनजी छाजे । समोसरण सुरछेतेहमां प्रतिमा च्यार विराजे ॥१॥भवि. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ तीर्थ माला संग्रह समोसरण पछवाडे देहरी पाठ अनोपम सोहें। - वीर जिणेसर तेहमां बेठा भवियण ना मन मोहै ॥२॥भवि. रतनसिंह भंडारी जेणे की देवल खास । तिहां जिन च्यार संघातें धाप्या विजय चिंतामणि खास ।।३॥भ. तेहनी पासे च्यार देरी तुमे, तिहां जिन पडिमावीस । प्रेमजी वेलजी सांहमे देहरे प्रणमु पाय जगीस । ४॥भवि. नवलमल आणंदजी इं कीधु जिन मंदिर सुविशाल ।। तिहां जई पांच जिणेसर भेटें, मेटे भव जंजाल ।।५।। भवि. वधू सापटणी ने देहरें अष्टादश जिनराया। पांचेदेरी चीनां बीबीनी देश बंगाल कहाया ॥६॥भवि. प्रति अद्भ त जिन मंदिर रूढुं लाधा वोरा केरू, तेहमां जे षट् प्रतिमा वंदे तेहनु भाग्य भलेरू ॥७॥भवि. मांणोत जयमल्लजी ने देहरे, चोमुख जईनै जुहारुं । प्रतिमा दोय दिगंबर भुवने निरषु भाषु सारुं ॥भवि. ऋषभ मोदीय प्रसाद कराव्यौ, तिहांदश पडिमा वंदो। राज शीशाना देहरा मांहे भेट्या सात जिणंदो ।।६।।भवितु. सा मीठाचन्द लाधा जाणु पाटण सहेर निवासी।। - जिन मंदिर सुंदर करी पडिमा पाँच देहरी छे खासी ॥१०' भवि. तीरथ संघ तणो रख वालो यक्ष कपर्दी कहीये। बीजामात चक्केसरी वंदो सुखसंपति सहु लहिये ।।११।। भवि. नांहना मोटा भुवन मलीने बेहे तालोस अवधारो। . संख्याइ जीन जीन प्रतिमा पांच से सोल जुहारो ॥१२॥भवि. इण परे सघलाँ चैत्य नमीने नाही सूरज कुंड । ___जयणाई सुचि अंग करीने पेहरो वस्त्र प्रखंड ।।१३।भवि. विधि पूर्वक सामग्री मेली बहु उपचार संघातें। नाभि नंदन पूजी सहूँ पूजो जिन गुण अमृत गातें ॥१४॥भवि. ढाल-७मी. - भरत नृप भावस्यु एदेशीबीजुटुक जुहारीये ए पावडीये चढी जोय, नमो गिरी राजनेरे ए । . अदबद स्वामी देखतांए मुझ मन अचरिज होय ॥१॥नमो Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ तीर्थ माला संग्रह तिहांथी आगल चालतां रे देहरी एक निहाल । नमो. तेठांमे जई वंदी येरे पासजी शांति कृपाल ॥२॥नमो. संघवी प्रेम चंदे करयोए, जिन मंदिर सुख कार । नमो. ___सर्व तो भद्र प्रासादमाए बिंब नवांणुसार ॥३॥नमो. हेमचंद लवजीइं करयोए देहरो तिहां शुभभाव।। बिंब पचवीस तिहां वंदीइं ए भवोदधितारण नाव ॥४॥नमो. पांडव पांचे प्रणमीथेरे जिन मुद्राइं जेह । ____ जोडें कुता धूप दीरे नमुनमु निरषी तेह ॥५।।नमो. खरतर वसही मां पेसतारे पहिलु शांति भवन । बहोत्तरे जिनस्यु वंदीयेरें तेघडो धन धन ॥६॥नमो. पासें पास जिणेसरुरे बेठा भुवन मंझार । चौवीस जिन परिकर नमुरे मूरति होय अणगार ॥७॥नमो. तेहमां नंदीसर थापनारें बावन जिन परिवार । फिरि फिरी नीरखू खांत स्यूरे हरखू हियडे अपार ॥८॥नमो. एक जिन घर मांथापीयारें सीमंधर जिनराय । ___ प्रतिमा च्यार सुवांदियेरें थिर करी मन वचकाय ।।६।।नमो. अजित प्रभुना चैत्यमांरै नमु त्रिण जिन संघात । पाठभुजाई शोभतारे पासे चक्के सरी मात ॥१०॥नमो. चौमुख त्रणछे तेहनीरे प्रतिमावां दो बार । प्रतिमा एक रायण तलेरें प्रणमुपगलां चार । ११॥नमो. चौद सूयां बावन तणांरें गणधर पगला जोय । तेहनी पासें सोहामणी रें दीपे देरी दोय ॥१२॥नमो. सा हेमचन्द सषरे कीयूरे जिन मंदिर सुविशाल । तिहां त्रण पडिमाई नमुऐं मन मोहन श्री पास ॥१३॥नमो. सोहम सोहमांछे देहरारे श्री शांतिनाथ नाँदोय । त्रण प्रतिमाछे एकमारे बीजे पांचा सतु जोय ॥१४॥नमो. मूल कोटमां दक्षिण दिसेंरे देहरी त्रिण से जोड । तिहां पडिमा षट वंदियेरें कहे अमृत कर जोड ॥१५॥ नमो. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह ७३ ढाल ८ मी.___एतो गहेलोछे गिरधारी रे एने स्युकहोई॥एदेशी। उत्तर पूरव विचले भागे देरी त्रण सोहावेरें । हरसी ने तेंथानिक फरसी वरसी समता भावेरे ॥१॥ एहने सेवोने एतो मेवो इण संसार, तुम्हे सेवो सहू नर नार ॥प्रा.॥ तेहमां धावच्चा सुत सेलग सूरी प्रमुख सुख दाईरे । ___ इणगिरी सिद्धो तेहनां पगलां वंदु सहस अढाई ॥२॥एहनो, पासें विहार उत्तंग विराजे रंग मंडप दिसि चारेरें। सेठ सिवा सोमजी इंकराव्यो खरची चित्त उदाररें ॥३॥एहनो. चार अनंता गुण प्रकटयाथी सरिखा चारें रूपरे। परमेश्वर शुभ समये थाप्या चार दिसाइं अनूप ॥४॥एहनो. तेश्री ऋषभ जिणेसर चौमुख बीजा जिन हेतालरें। ___एहनिमित्त मुझ सफलां होज्यो हूँ प्रणमुत्रिण कालरे ॥५॥एहनो. उपर चउमुख छब्बीस जिनस्यु देखी दुरित निकंदुरे । चौवीस वट्ठो एक मलीने चौपन प्रतिमा वंदु ॥६॥एहनो. सोहमां पूंडरीक स्वामी बेठा पूंडरीक वरणा राजरे। तस पदवं दी जोडे देहरी तेहमां थुभ विराजे ॥७॥एहनो. ऋषभ प्रभुने पुत्र नवाणु आठ भरत सुत संगेरे । एकसो आठ समय एक सिद्धा, प्रणमु तस पद रंगे ।।८॥एहनो. फरती भमती मांहे प्रतिमा एकसो बत्रीसरे। तेहमाँ चोवीस परिकर साथे एक सो साठि जगीस ॥६॥ पोलि बाहिर मरुदेवी टुके वेल बाइनोकी धोरे । चौमुख देहरा मांहे थापी नर भव लाहो ली धोरे ॥१०॥एहनो. पश्चिम ने पूरव सांहमां सोहें वंदू सहू नर नारी रे । ___ गज वरखंधे बेठा आई तीरथनां अधिकारी रे ॥११॥एहनो. संप्रति राय भुवन कराव्यु उत्तर सन्मुख सोहेरें। तेहमां अचिरा नंदन निरखी कहे अमृत मन मोहेरे ॥१२॥एहनो. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ तीर्थ माला संग्रह ढाल ६ मी-संभव जिनस्युप्रीत ए देशी पाठ कुवा नव वावडी हुँतो स्यै मदस देखण जाउ महादधि नो दांणो काहन्डो ए देशी हवे छिपा वसन मुख सोहेरे तुहमो चालो चेतन लाला राजि। आज सफल दिन एरूडो जिन मंदिर जिन मूरति भेटो । भव भवनां पातिक मेटो राजि, आज सफल दिन ए रूडो॥१॥ तिहां पांच गंभारे जई अटकलियां, जाणु पंच परमेष्ठी मलीयारे । आ. रायण तलें पगलां सुख दाई । श्रीऋषभ तणा गुण गाई रे आ०॥२॥ नेमी जिणेसर सीस प्रवीणा मुनि नंदीषण नगीन राज. पा. । श्री शेत्रुजय भेटण पाया, जिहां अजित शांति गुण गाइया रे । प्रा.॥३॥ तेह तवन महिमाथी जोडे बे जिनवर वांद्या कोडे राजि, आ. । ते मंदिर छ जोडे कीधु साखी तिहां में प्रभु त्रिण छ जिन हरषी । ४॥प्रा.।। नयरणु भोई तणो जे वासी, मन्नु पारिख धर्म अभ्यासी राज । प्रा. तिणे जिन मंदिर की, सारु तिहां गण प्रतिमाने जुहारु राज ॥शाप्रा.!। एक भुवनभांत्रण जिन चंदा, बीजामां नेमि जिणंद राज। प्रा.। देवल एक देखी आणंदु तिहां पास प्रभुने वंदु राज. ॥६॥प्रा. बावन देहरी पाछल फरती, जिन मंदिर नी सोभा करती राज. आ। तेहमां अजित जिणेसर राया, प्रेमे प्रणमीने गुण गाया राज ॥७॥प्रा. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ तीर्थ माला संग्रह नान्हां मोटां भुवन निहाली, सडत्रीस गण्यां संभाली राज आ.। सवि संख्या जिन पडिमा धारी, ___पांच से नव्यासी जुहारी राज, आ.॥८॥ एह तीरथ माला सुविचारी, सुणी जात्रा करज्यो सारी प्रा. ॥ दर्शन पूजा सफली थास्ये. शुभ अमृत भावे गुण गास्ये राज प्रा.॥६॥ ढाल १० मा-संभव जिनस्यु प्रीत अविहउ लागी रे ।एदेशी॥ तुम्हे सिद्ध गिरिना बे टूक जोई जुहारो रे, उं भूमि अनादनी मुकि एम विचारो रे। तुम्हे धरमी जीव संघात परणीत रंगे रे, तुम्हे करजो तीरथ जात्रा सुविहित संगे रे ।।१।। वावरज्यो एक वार सचित्त सहू टालो रे। करी पडिकमणां दोय वार पाय पखालो रे ॥२॥ तुम्हे धरज्यो सियल शृंगार भूमि संथारो रे । अलु अाणे पाये संचार छहरी पालो रे ॥३॥ इमनी सुणी आगम रीत हीयडे घरज्यो रे। करी सद्दहणा परतीत तीरथ करज्यो रे ॥४॥ आ दुःसम काले जोय विधन घणेरां रे। कीधु ते सी धुं साये स्युछे सवेरा रे ॥५॥ ए हित शिक्षा जांणि सुगुण हरखो रे । वली तीरथ ना अहिठाण आगल निरखो रे ॥६॥ देवकीना षट नंद नमी अनुसरिये रे । आतम शक्ति अमंद प्रदक्षिणा करीये रे पहला उलखा डोल भरी ते जलस्यु रे ॥७॥ जाणे केशरनो झक भील नमणना सरस्युरे । पूजे इन्द्र अमोल रयण पडि माने रे ।। तेजल आखि कपोल सेवो सिर ठामे रे ॥८॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह आगल देहरी दोय समीपे जाऊं रे । तिहां प्रतिमा पगलां दोय नमुसीर नामी रे ॥६॥ वली चेलण तलावडी देखी मनमां धारु रे।। तिहां सिद्ध सिला संपेख गुणी संभारू रे । १०॥ भाडवें भवि अण वृद आपण गाऊँ रे । जे थानिक अजित जिणंद रहया चउ मासु रे ॥११॥ जिहां संब मुनि परजुन्न थया अविनाशी रे । धन्य कृतारथ पुण्य श्रुणे गुण रासी रे । १२॥ हुँतो सिद्धवड पगलां साथि नमु हित काजे रे। ___इहां सिव सुख कीधुहाथी बहु मुनिराजे रे ॥१३॥ इहां सिव सुख कीधु हाथी बहुँ मुनिराजे रे। इम चढतां च्यारे पाजि चड गतिवारे रे ॥१४॥ एह तीरथ जंगी जिहाल भवजल तारें रे। जेजग तीरथ संत ते सहुँ करीये रे ॥१५॥ ते सहुपण ए गिरि भेटे अनंत गुण फल बरीये रे । पुंडरीक नाम एह वीस लीजे रे ।।१६॥ जिम मन वंछित काम सघली सीजे रे । __ करीये पंच सनात्र रायण प्रादें रे । निम रूडी रथ यात्रा प्रभु प्रसादें रे । __ वली नवांणु वार प्रदक्षिणा फरिये रे । स्वस्तिक दीपक सार जय-जय करीये रे ॥१७॥ पूजा विविध प्रकार नृत्य बनावों रे । इम सफल करी अवतार गुणी गुण गावो रे ।। तुम्हे साधु साव्हमीनी भक्ति करज्यो रंगे रे। निज शक्ति अनुसारे तीरथ संगे रे ॥१८॥ पाली तांणु नगर धन्य-धन-धन ते प्राणी रे । जिहां तीरथ वासी जन पुण्य कमाणी रे । प्रह ऊगम ते सुर ऋषभजी भेटे रे । करिदशत्रिक अरणगार पाप समेटे रे ॥१६॥ जिहां ललिता सर पालि नमो प्रभु पगलां रे । डुगर भणि उज माल भरीये उगला रे । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह ७७ विचमा भूषण वावि जोईने चालो रें। तुम्हे गुण गाता शुभभाव साथे मालो रे ॥२०॥ धूपघटि कर मांहि झूला देता रें। वडनी छाया मांहि ताली लेतां रे । आवी तलेटी ठाण तनु शुचि करीये रे। पूरव रीत प्रमाण पछे परवरिये रे । २१॥ इणी परें तीरथ माल भावे भरणस्ये रे । जिणें दीठु नयण निहाल विसेखे सुणस्य रे। हलस्य मंगल जेह कंठे धरस्थे रे। वली सुख संपद सुविलास महोदय वरस्ये रे ॥२२॥ तपगच्छ गयण दिणंद रूप छाजे रे । श्री विजय देव सुरिन्द अधिक दिवाजे रे । रत्न विजय तस सीस पंडित राया रे । गुरु राय विवेक जगीस तास पसाया रे ॥२३॥ कीधो एक अभ्याश अढार च्यालीसे रें। उजल फागुण मास तेरस दिवसे रें। श्री विमलाचल चित धरी गुण गाया रे। कहे अमृत भवियण नित नमो गिरिराया रे ॥२४॥ कलश:-- इम तीरथ माला गुण विशाला विमल गिरिवर राजनी कहि स्वपर हेतें पुण्य संकेते एह जिनवर साजनी। ___तप गच्छ गयण दिणंद गणधर विजय जिनेन्द्र सूरी सरु रची तास राज्ये पुण्य साजे अमृत राग सुहे करु ॥१॥ इति तीर्थमाला सम्पूर्णम् श्री विमलाचल गिरी राजनी Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री॥ श्री तपा गच्छ एवं खरतर गच्छ के शत्रुजय पर अधिकार संबंधी दोहा सरस्वती माता मानिहे, करूं कौतुक इक बात । भट्टारक बेहुँ भिड्या, ते अांखु अवदान ॥१॥ वैरागी सन्यासीयाँ, जुडतां पहेला जंग। जैन तणा जालम यति, अडिया प्राय अभंग ॥२॥ तप गच्छ नायक तौरसु, यति बहुल निज जांण । मन मांहे मोटी मद्धरे, पंचम काल प्रमाण ॥३॥ खरतर गच्छ नायक निपुण, पंडित प्रौढ प्रवीण । मति सागर महिमा अधिक, सकल कलासु कुलीण ॥४॥ शत्रुजय गिरनार गिर, तोरथ जैन जगोस । भाव सहित भेटण भणि, आव्या मुनिना ईश ॥५॥ पालीतांणे पुण्य थो, पाव धरया पटधार । तेहवे तप गच्छ नायके, कह्यो संदेसो सार ॥६॥ एहज तीरथ ऊपरें, हुकम हमारा होय । तब चढज्यो निस्संक तुम, जब लग बेठो जाय ॥७॥ यों कहि आयो आपसु, जमात यतीरी जोय । ज्बैपण मुनिवर उठीया, आप तणे बलदोय ॥८॥ छंद भुजंगीमुनिऊठीया मोकले मन्न माझी, झगड्डाकरे वाच ढीरी सजाझी । उभे सैन्य सांजा तणी सज्झि आई, जथो बत्थ आया करवा लडाई ॥१॥ लिया हाथ डांडा खटाखट्ट खेले, ....."ह पांमे झटा झट्ट झेले । बिन्हे सैन्य सांजा बीये मार दोटां, __ लताडे पछाडे किया लोट पोंटों ॥२॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ तीर्थ माला संग्रह गुडै गोफणां गुजति युगि लोलें, हुकारा करी हाक मारी हिलोले । मकारां चकारां मुखे वेण जंपे, कितां कायराँ रे मनें कोपकंपे ॥३॥ उखैला उखेले अगा बात आडी, झपावे झुकावे यति फोज जाडी। फटाफट्ट फूटे मथारा मरद्दां, - घूमे उपरा आयने गेण गिद्धां ।।४।। कुत केंकरी कैडि भागो कितांरी, इटाले करी आँख नाँखी उतारी । पडे मार पाषांणनी पूर प्राझी, लजावंत साधु रह्या तेथ लाजी ॥५।। सज्या संघना संगी हैंता हटीला, रिशां राड देखी भिड्या ते भटीला। तपा नायरे साथ हुंतास सीपाई, बलात्कारथी बंदूकां तेण वाही ॥६॥ यति साथ दो च्यार हुआ झ खंडी, तदा भीड भागी अखाडे अखंडी। वेधी वेध राखो भलो वैर वाल्यो, जांणी तीर्थ भूमि फिरी पुन्य फाल्यो ॥७॥ रखो खेत हाथे खरवारे खुल्याली, ततै तेज खोयो करतै कपाली । पटक्कैपरी पालखी नीठ नाठो, तक ताक देखी जायै तेम बाठो ।।८।। मिल्या लोक अनेक जोवा तमाशो, दीये हाथ ताली करै केईहासो । जुटा जैन योगिन्द्र बेहुँ बलिष्ठा, परं ज्ञान ग्रन्थे नही ते गरिष्ठा ॥६॥ भरया कोप क्रोधे मनें मांन आणे, यति धर्म एको नही कोई जाणे । जुटा बार ज्ञान भने मान भाईज Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० तीर्थं माला संग्रह धोबी साधवाली धका धक्क मांडी, मुनि मार्ग मर्याद बेहुँ छेक छोडी ॥१०॥ क्षमा धर्म खोयो समो नांहि जोयो, धरा ऊपरे जई नरो धर्म घोयो । क हक हांणी इणे आज कीधी, यति धर्मने अंजली अन दीधी ॥ ११ ॥ मते आपरे मंद बुद्धि ए मंड्या, इसा प्राहुड्या जेम पाडा प्रचंडा । यथा अल्प पाँणीय भेसाज्यु डोल्हयो, तथा जाडयथी जैन शासन विगोयो ॥ १२ ॥ विढं तां सीवे ढि पाई वडाई, यति नांहि जिंदा कहांणी कहाई । यतीड़े करी जोर जाभी जडाई, गणाधीशरी ग्रह चौकै चढाई ||१३|| दोहा मांनी मद मच्छर भरयो, तप गच्छ तणो तिलक । पिरण खरतरस्युं खेडतां, सटकी गयो सलक ॥ १४ ॥ कलश छप्पय सटकी गयो सलक्क श्रातप गिरि उठाय अपजस लह्यो अपार, मुरझांगा महाजन्न, भूभंत एम भोखो वदन, सकल लोक समझकहे, दोहा पुरांणी, पटकी पालखी तुरत लेगया तांणी ॥ जगत ए वातज जांणी, परेम न रह्यो पांणी ॥ थयो घटतो आदरी । वरजो वात जवादरी ॥ १५॥ अढारसे प्रकावनै, वैसाखे वांणी । जालम यतिवर भू भिया, सेनूजा पाली तांगे भरणेय भोजग तणौ अ जंग | राख्यो पेखीयो, भीमडो, रुडो यति संघांणी ॥ १६ ॥ रंग ॥ १७ ॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गिरनार तीर्थमाला गोकुल नी गोवालणो महो वेचवा चाली ॥ए देशी॥ सरसति मात मया करी, दीजे वयण रसाला। श्री गिरिनार गिरी तरणी, कहूँ तीरथमाला ॥१॥ ए पण सिद्ध गिरी टूक छे, पांच, सुविशाला। कांकरे कांकरे सिद्ध जी, अनंत सम्भाला ॥२॥ रेवताचल ने मूल छे, जोरणगढ भालो। माहे त्रिशलानंद ने, देहरे सम्भालो ॥३॥ धातु नी पडिमा साठ छे, बोजा चोत्रीस । जिन चोवीस वटा भला, इग्यार केहीस ॥४॥ तेहने सन्मुख चोमुखे, जिन च्यार लहीस । ते प्रणमी ने चालीइं, रेवताचल जईस ॥५॥ मारग गोधा वाव्य थो, निकसी दरवाजे । जमणु वाघेसरी जोईइं, पूठे सरोवर छाजे ॥६॥ आगल वाव्य सोहामणी, जालिम खाँ ने बणाई । चालतां झाडी मांहि छे, दोय पर्वत भाई ॥७॥ ते बिच मां थइ चालतां, प्रावी देहरी नजीक । सिवनी मूरति तेहमां, जुनो निजरें ठीक ॥८॥ सरीता पाज उलंघतां, तीहां झाडी प्रचंढ । पंथ वहंतां रे प्रावीणो, दामोदर कुन्ड ॥६॥ तेहने र सोहीइं, दामोदर देवा । वैष्णव जन नाही करी, करे नव-नव सेवा १०॥ राधिका रूप सोहामणू, नरसिंह मेहता ने। हार आल्यो ते जांणीइं, सवि दुःख खोवा ने ॥११॥ देहरा च्यारि ने देहरी, सवि मलि ने रे वीस । ए पण वैष्णव धर्मनां, सवी थांन जगीस ॥१२॥ पागल हनुमंत वीर छे, वैरागी अखाडे । नानक पंथी तिहां वसे, सहु विजया ने काढे ॥१३॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह भंगी-जंगी लोक छ, तिहां ना, रहे नारा । दानादिक करिया नही, नहिं धर्म विचारा ।१४ । ते जोई मारग चालतां, मगि कुन्ड' सोहावे। सिव नां थांनक दीपतां, देहरा त्रण दीपावें ॥१५॥ संकर नागर ते ह नी, बावडी जल पीनो । तिहां विसामो लेइ ने, मुनि ने अन्न दीपो ॥१६॥ पाय धरंता वावडी, संघनी तव प्रावी। विनय विजय नी पादुका, श्री संघे बनावी ॥१७।। तलहटो पूरी थई, नेमिना गुण गाई। त्रण खमासण देई ने, हवें चढीई रे भाई ॥१८॥ चढवा मांडयु जे तले, तव अलीय खपावे । मारग पांडव पांचनी, पंच देहरी आवें ॥१६॥ द्रौपदी नी छट्ठी कही, देहरी दीपावें । आगल अांबली हेठलें, वीसामो रे थावे ॥२०॥ तदनंतर नीली पर्व छ, विसामा सु ठाम । काली पर्व बीजी कही, बेसोगुणी जन ताम ॥२१॥ धोली पर्व त्रीजी जई, नेमना गुण गावो। लाडू अमृत बाई नी, पंचमी मन भावो ॥२२॥ छठी माली पर्व ने, पाछल छे रे कुड । देह शुची करि तेह मां. पेहरी वस्त्र अखंड ।।२३।। नेमने वंदने चालिइं जइ चढीइ सोपांने । मानसिंघ मेघजीइं कीयां, श्रावक चढवा में ॥२४॥ चढतां नेमनी पोलमां सो गुणवाला। जई पच्छिम द्वारे भलु, देहरु सुविशाला ॥२५॥ मांहे प्रावी प्रभु नेम ने, स्तवीइं शुभ बोल । त्रिभुवन माहे जोयतां, नहीं ताहरी तोल ॥२६॥ त्रण कल्याणक ताह रां, हुवां माहाराजां। दीक्षा, ज्ञान ने मोक्ष नां, सुख लीधां ताजां ॥२७॥ ए रीतें स्तवना करी, जुप्रो मूल गभारे । पडिमा त्रण सोहामणी एक धातु नी धारे ॥२८॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीथं माला संग्रह रंग मंडप ने आलीइं, तिहां तेर जिनेशा । पाछल भमती मांहे छे, नमीइं शुभ वेशा ॥२६॥ जिन पंचास कह्या भला, नंदीश्वर द्वीप । बावन पडिमा तेह मां, नमी कर्म ने जीप ॥३०॥ समेत शिखर नो थापना, तिहां वीस जिणंदा । चोवीसवटा दोय छ, प्रणमें आनंदा ॥३१॥ श्री पदमावती वंदीइं, दोय गणपति सारा । ए सहू पाछल जोई ने, नमि निकसो द्वारा ॥३२॥ नेम ने सन्मुख मंडपे, चौदसयां बावन । गणधर पगलां सोहतां, प्रणमो भवि जन्न ॥३३॥ पासें एक छे ओरडी, तेह मां काउसगीया। मोटां अद्भुत सुदरु, मुज मन माहे वसीया ॥३४॥ मूल गभाराने दक्षिण, द्वारे निकली में। प्रबनी हेठल पादुका, नेमजी प्रणमी नें ॥३५।। जोडे मात चक्केसरी, देहरी मांहे सोहे। पाछल देहरी एक छे, दोय पगलारे मोहें ॥३६॥ ऋषभ नां नमी ने चालीइं, पूठे देहरी एक । राजीमतीनी पादुका, संगे देहरु नजीक ॥३७॥ गोवर्धन जगमाल नु, जिनऋषभ स्यु पांच । आगल देहरी दोय मां, दोय पगला रे वाच ॥३८॥ पाछल देहरी तेहमां, प्रणमु ऋषभ नां पगलां । प्रेमचन्द साहें थापीयां, श्रावक नमे सघलां ॥३६॥ नेमनी पाछल भोयरे, अमीझर जिन पास । संगे पडिमा तीन छे, नमतां शिव तास ॥४०॥ ऊपर जीवित स्वामी नी, मूरति सुखकारी। बीजी रहनेमी तणी, सूरत छ प्यारी ।।४१।। मूल कोटनी देहरी, चोरासी धारी। नेउं जिनने वंदीइं, ए छे भव जल तारी ।।४२। नेम थी पूर्व दिशा अछे, दिग अंबर भुवने । पडिमा एक जुहारिइ, ते निरखो रे सुमने ॥४३॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह FREEEEEE मांडवी वालो गुलाब सा, तेणे कुड बनायो । अबनी छाया हेठले, भवि जन मन भानो ॥४४।। वस्तुपाल ने देहरें, तिहां चोमुख थाप्यो। तेजपाल नां दोय छे, देहरा जस वाप्यो । ४५।। एक देहरे जिन एक छे, बीजे चौमुख सारो। पाछल मांडवी सहर नो, साह गुलाब विचारो ॥४६॥ तेणे देवल बांघीउ, तिहां एक जुहारो। जोडे संप्रतिराय नु, देहरू निरधारो ॥४७॥ तेहमां नेमि जिणंदजी, मुज लागे रे प्यारो। पाछल ज्ञानज वाव्य छे, जल अति सुखकारो ॥४८।। पदमद्रह नी अोपमा, पद पंक्ति सफारो। भीम कुड सोहामणो, धन खरच्यु अपारो ॥४६।। भीमजी पांडवे सो कीमो, मनमांहि विचारो। ऊपर कुमारपाल नु, जूनू देहरु सधारो ॥५०॥ नेम जिनेसर चैत्य थी, उत्तर दिशि वारू । देहरे अदभुत स्वामि छे, प्रणमु त्रण वारु ॥५१॥ तिहां आरसमय कोरणी, मांहें चोवीस वट । वखत साहे ते कोमो, तुमे जुमो प्रकट ॥५२॥ तेहने सनमुख देहरु, पदमचंदे रे कीधु। पंच मेरु करी थापना, सवि कारज सीधु ॥५३॥ वीस जिणेसर तेहमां, बैठा महाराजा। तेहनें जमणी पास छ वणथली संघ ताजा ॥५४॥ तेहना देहरा मांहि छे, बहु थंभ सोहावे । अनोपम कोरणीईंकरो, जोइ सीस धुणावे ॥ ५५॥ सहेसफणा प्रभु पास जी, तेहमां कांनदासे । थाप्पा दोय जिणंदजी, तुम जुनो उल्लासे ॥५६॥ पाछल भमती देहरी, कही अडतालीस । तिहां सुहंकर साहिबा, जिन पिसतालीस ॥५७।। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह प्रभुजी ने जमणे जोईई', अष्टापट देहरु । च्यार आठ दस दोय में, हैं प्रणम् सवेरु ।।५८॥ जिननी डावी दिसा लहू, देहरे चोमुख वारुं। च्यार जिणेसर तेहमां, नित उठी जुहार ॥५६॥ संग्राम सोनी ने देहरें, कोरणीनी जुगत । मोटो मंडप मांडियो, केती कहूं विगत ॥६०।। तेहमां सहस फणा प्रभु, एक छे महाराजा। पाछल जोधपुरी भलो, अमरचन्द छ ताजा ॥६१॥ तेहनें देहरें एक छे, जिनजी सुखकारा । तेह थी उत्तर देहरे, जिन एक सुधारा ॥६२।। पाछल गजपद कुन्ड छ, जुओ दृष्टि निहाली। तिहां जिन पडिमा एक छे, कून्ड' ने थंभ भाली ॥६३।। आगल केकी कुन्ड छे, में नयणे रे निरख्यो । गिरिथानक सहू निरखतां, बहु आतम हरख्यो ॥६४॥ मेलग बसहीइ सोल छे, जिन मंदिर मोटां । एक सो बत्रीस में गण्यां, देहरां सवि छोटां ॥६५॥ सर्व मली देहरा देहरी, एक सौ अडतालीस । तेहमां प्रभुजी च्यार सें, ऊपर वलि बत्रीस ॥६६।। नेम ने वंदी चालीई, सहसावन जई इ। वस्तुपाल ना देहरा, पाछल थई वही इं॥६७।। ऊपर चढतां दक्षणे, राजीमती गुफाई। ऐसी राजीमती वंदीइ, रहनेमि उछाहे ॥६॥ वंदी पागल चालीई, प्रावी गौमुखि गंगा। तिहां चोवीस जिणंद नां, पगलां सुख संगा ॥६६॥ प्रणमी पागल चालतां, पान्यो झपापात । ते थांनक दोय देहरी, सुन्दर विख्यात ॥७०॥ तिहां पगलां रामानंदीनां, जोडे नेमानंदी। आगल ईश्वरदासनाँ पगलां सहु फंदी ॥७१।। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीथं माला संग्रह डगला भरतां प्राणिया, आवी हाथणी पोल । तिहां पेसी ने ऊतरो, सहेसावन झोल ॥७२॥ मारग विकट झाडी बहू, उतरया जब हेजें। देरीइं नेम नी पादुका, नमतां दुख नेठे ॥७३॥ ते थांनक प्रभु नेम ने, संजम केवल नांण । राजीमती पण तेहज, थानक सिव ठांण ॥७४॥ ते कारण भवि प्राणिया, पूजो प्रभुजी नां पगलां । केसर चंदन लेइ ने, जेम दुख जाइं सघलां ॥७५।। गीत नृत्य बनावी ने, प्रणमी पाछा चालो । गोमुखी गंगाई आवी ने, बीजी टुन्क संभालो ॥७६॥ राजा रामे बंधाबीमा, पगथीनां सोहंता । जमणू रहनेमी तणू, देहरु सुण संता ॥७७॥ सोपाने चढी चालतां, आव्यां माताजी अंबा । अनोपम कोरणीइं करी, देहरे घण थंभा ।।७।। वाहन सिंह ने ऊपरें, बैठां छ रे अंबा। मिथ्यात्वी कहें माहरां, एह छे जगदंबा ।।७।। ते खोटुं करी मानीइं, सही शासन भक्ति । नेमनी ए अधिष्ठायिका, कही शास्त्रमा जुक्ति ।।८०॥ ते अंबा प्रणमी करी, निकसो जव द्वारें। सिवनी मूरत दीपती, जोइ चाल विचारें ॥१॥ त्रीजी टूक जई करी, नेमना पय वंदो। कोरणीइं करी सोभती, देरी जोइ आनंदो ॥२॥ मिथ्यात्वी कहें एह छे, गोरखनाथ नां पगलां । चोथी टून्क भणीधरों, भवियण तुम डगलां ॥३॥ तिहां पण नेमनी पादुका, वली सुन्दर पडिमा। गोसाई प्रोघडनाथ नी, जायगा कहें क्षणमाँ ।।८४॥ गोसाइं वैरागीया, करें नव नव सेवा । तीहां थी चालतां हेठले, जमणु ततखेवा । ८५॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह असनिकुमार अतीतर्नु, थानक छ रुडूं। कुण्ड कमंडल हेठले, नहिं भाख्यु कूडू ॥८६॥ तेहने ऊपर चालतां, आवी पांचमी टूक । विषम थले चढतां थकां, नेमि पगला ने टूक ॥७॥ केसर चंदन लेइ ने, पगलां ने पूजो। पडिमा एक छे आलीइं, एह देव न दूजो ॥८॥ नेम थया ते थांन के, शिवना अधिकारी। धरमी जन भेला मली, वंदे नर नारी ।।६।। श्रावक कहे प्रभु नेम नी, एहज पडिमा छ । ब्राह्मण शंकराचार्य नी ठरावे छे आछे ॥१०॥ ए पगलां जिन नेम नां, कही श्राध ठरावें । दत्तातरीनी पादुका, गोसाइं बतावे ॥११॥ जे जेहना मन मां वस्यु, ते तेह ठरावे । आगल पंथे चालतां, रेणुका मात आवें ।।१२।। पांडव पांच गुफा भली, जोइ आगल निरखो। छठी टूके रे कालिका, देखी मन हरखो ।।१३।। चालतां पागल प्रावियां, वाघेसरी माता । सातमी टूक सोहामणी, जुओ दृष्टि उजातां ।।१४।। तिहां रसकूपी नो कुन्ड छे, रुप सोना सीधी। रयण नी पडिमा एक छे, निसुणी बहु बुधि ।।५।। त्रीजे भव जे मोक्षमां, जानारो रे प्राणी। ते भवियण नितु वंद सें, कही शास्त्र प्रमाणी ।।१६।। तीथी पाछा फरि आवी ने, प्रभु नेम जुहारो। नाटक पूजा धूप थी, करी जनम सुधारो ॥१७॥ नेमनी पोल थी बाहिरे, लाखावन सारु । रेवता चलना ठाण ते, जोइ आतम तारु ।।१८।। इत्यादिक गिरनार नां, बहु ठांण अनेरां । छे पण जेटलु भालियु, तेटलु' इहां सारा ॥६॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह भारव्यु ते निजरे जोइ ने, ते सही करी मानो। सघला तीरथ नो नायक, गिरनार वखांणो ।।१०।। श्रीगिरिनार गिरी तणी, कही तीरथमाला । नेमनां त्रण कल्याणक जपतां जयमाला ॥१०१।। संवत अगनी सागरे, करी चंद्र ने भेलो। तापस मास नी उजली, रस ने माहे मेलो ।।१०२।। सुरगुरु वासर जांणीइ, गुरु विवेक पसाया। न्याय सागर कहे पुन्यथी, नेमना गुण गाया ॥१०३।। इति श्री गिरनार तीर्थमाला संपूर्णः ।। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नाडोल पंचतीर्थीको तीर्थमाला श्री परमेष्टिनमः अथ तीर्थमाला लिख्यते दोहा-- नमीउं जिण चोवीस ने, प्रणमुहित गुरु प्राण । सरस वचन विद्या देयण, नित्य नमु सुविहांरण ॥१॥ पंचे तीरथ प्रणमीई, पंचमी गति दातार । पंच परमेष्टी वांदतां, जनम सफल अवतार ॥२॥ दरसन परसन सुलभता, लेवा समकित भोग । लाभ लहे जात्रा तणो, फल कह्यो ग्रंथे जोग ॥३॥ समकित दृष्टि सुरनरा, पूजे त्री करण जेह । परब दीवस अठाइयां, करे महोछव तेह ॥४॥ निन्दा विकथा परहरी, वली परहर परमाद । विषय कषायने छोडिइं. राग द्वेष उनमाद ॥५॥ सेवा भगति गुरु वंदना, जीव दया हित धार । दांन सुपात्रे दीजीई, ए श्रावक आचार ॥६॥ सीव हेतु साधन एह छ, संसार साधन एह । देह तणु साधन भलु, तोरथ करिये तेह ॥७॥ हालसांभल रे मांरी सजनी बेनी, रातडली किहां रमी पाव्या जीरे ए देशी। श्री तारंगा गढनी यात्रा, करीईहर्ष सवायाजी रे । बीजा अजित जिन अंतर जांमी, उच पणे प्रभु राया ।। सुणो भवी साजनारे ॥१॥ वली नंदी सरनी जे ठवरणा, चोसठ से अडयाल जीरे। मेरु अष्टादश गणधर पगलां, टुक प्रमुख रसाल ॥ सुणो भवी साजनारे ।।२।। फरती भमती माहि रुडु देहरो एक जुहारो जीरे । तीरथ राजनां पगलां वंदु, धर्म स्थानक मनोहार ।। सुणो भवी० ॥३॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह अठार देशनो राज राजेश्वर, कुमार पाल नर रायाजी रे। तीरथ राजनि ठवणा थापि, जैन धर्म दिपाया ।। सुणो भवी साजनारे ॥४॥ जात्रा महोछव नित प्रते करिई, पुण्य खजांनो भरिये जीरे। गीत ज्ञान प्रदक्षिणा धरिइं, दयानंद पद वरिई॥ सुणो भवी साजनारे ॥५॥ इति तारंगाजी तीर्थ स्तवन संपूर्ण । दोहा दांता गांमे देहरो, जुहारू जगदोस । जोगमाया अधिष्टायिका, जय अंबा देवीस ।१।। कुंभल मेर जुहारिई, देहरा पांच रिसाल । पंच परमेष्टि समरिइ, हू वंदु त्रिण काल ।।२।। अनुक्रमे पंथे चालतां. गोला ग्रांम मझार । महावीर जीवत स्वामी जुहारिइजात्रा सफल अवतार ॥३॥ श्रीपालण पुर नगर में, पल विहा पारस नाथ ।। तिम नेमी शांति जिन वांदतां. निर्मल हू प्रो गात्र ।।४:: शिव सुख भरियें बाथ। गांमो गांमे वांदतां, देहरां दोय मझार । श्री नेमि जिनेसर वीरजी, वंदि चित्तर माड ।।५।। वरमाणे वीर वांदतां, आव्या जीरा वला पास । बावन जिनालय पेषतां, पोहती मननी आस ।।६।। हणादरा तलहटीई, जिन भुवन विस्तार ।। मूल नायक तिहां वंदिइ, ऋषभदेव दरबार ।।७। ढाल: सासना देवी सुहं करुरे लो, ए देशी ।। सासना देवी सुहं करुरे लो, चउवीह संघ रयणीय वरु रे लो। भूमंडल माहे जोपतोरे लो, आबू अचलगढ दीपतोरे लो ॥१॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमल साहे करावि रे लो, जांणे स्वर्ग भुवन तिहां आवी प्रोरे लो । ऋषभदेव मुख देखतांरे लो, पाप पडल गया पेखतोरे लो । विमल साहे करावी प्रोरे लो ||२|| तोर्थ माला संग्रह वस्तु पाल जीनो देहरा रे लो, थाप्या ते नेमी जिणे सरु रे लो, सकल भुवन सिर सेहरो रे लो । देरांणी जेठाणी ना गोखडा रे लो, अलबेल अल वेसरु रे लो || ३ || बावन जिनालय शोभतां रे लो, तृप्ति न होवे जोतां थकांरे लो । दोहा: तिम वंदु हुँ पास जिणे सरुरे लो, ललि वंदु मन मोह तारे लो ||४|| इण रीते तार्थ जुहारि इरे लो, वलि चोमुख चैत्य सुहं करूं रे लो । हवे अचल गढ जइने रे लो, चोमुख जुहारुं धाइनेरे लो । धातु बिंब सुहामरणारे लो, वंदु तीर्थ रलियां मरणो रे लो ॥ ६ ॥ जे भवि प्राणो धरा वस्ये रे लो, ते मननी मोजां पावसु रे लो । देल वाडे जाऊ हुँ वारिइ रे लो ||५|| कहे दया कर जोडिने रे लो, वंदू तिरथ मांन मोडिने रे लो ||७|| इति अर्बुद तीर्थ स्तवन सम्पूर्णम् ॥ पंथे जुहारु जिनतरणा, संप्रति रायना हमीर पुरे प्रभु पासजी, हुँ वंदू नित सुजांण । नगर सिरोहि प्रावीया, संघवी चतुर सुन्दर चैत्य जुहारतां, जनम सफल सुविहारण || २ || चैत्य । नित ॥ १ ॥ १ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपार। तीर्थ माला संग्रह अोला अोली मांडणी, शिखर बंद प्रासाद । हाथी झूले मल पता, मोडे कु मतिना उन्माद ॥३॥ जात्रा भली बहु जुगतसु, देहरी तेर विस्तार । पास जिराउल वांदतां, होवे सफल अवतार ॥४॥ मुझ मन हर्ष अपार। अरहट वाडे वांदिया, दुःख भंजन महाराज । भेट्या गांम पोसालिये, श्री चन्द्र प्रभ जिनराज ॥५।। गोमो गांमे वांदतां, शांति ऋषभ जिन देव । वाहली नगरे आवीने, दोय जिन मंदिर सेव ॥६॥ सादडी नगरे भेटवा, शिक्खर बंध प्रासाद । श्री पार्श्व नाथ जी वांदतां, मन उपनो आल्हाद ।।७।। नगर बाहर दोय देहरा, भेटयां जिन वरदेव । तीन कोस डुगर विचे, रांण पूरानि सेव ॥८।। ढाल नेक नजर करो नाथ जी । ए देशी ॥ राण पुरो रलियामणो संघ जात्रा करे भलि भांत सुजी हो । ए तीरथ सुहांमणो सुहांमणांने रलियां मणां जी होए ती.॥ एहनी अोपमा नहिछे जगत में, रूडी मांडणी छे बहु जात सुजी हो । गढमढ तोरण जालिया, जांणे स्वर्ग मंडे वादने जी हो ॥एती.॥ नल नी गुल्म विमान, गुहिरो गाजे छे घणु नादने जी हो ।एती.॥ तीन चोमुख रुडा शोभता, रंग मंडप चोवीश में जी हो ।।एती.।। भमती फरती फूटरी, रूडा सिखर सोभे स्वर्गवास में जी हो ।एती.॥ आजनो दिन रलीयांमणो, मैं तो भेटया श्री जिनराज ने जी हो ॥. जुगला धर्म निवारणो, ऋषभ जिणंद महाराज ने जी हो ।ती.॥ केसर चंदण घसी धरणा, प्रांगियां रचावु घणे होडसुजी हो ॥ती.।। पूजा भगति ने करो लुछणा, अरज करे कर जोडने जी हो ।।ती.।। धन धन्नो साह सोरोमणि, जिणे किधा तीर्थ मंडाण ने जी हो ॥तीर्थ.।। धननो लाहो लेइकरी, जेणे स्वर्ग सुकर्या संधारण ने जी हो ॥तीर्थ.।। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह भोड़ भंजन नेमो सरु, तिम जिन भुयरा सुषांण ने जी हो ॥तीर्थ ।। दया धरम नितु सेवतां लहिये परम कल्याण ने जी हो तीर्थ.।। इति रायण पुर स्तवन संपूर्णम्दोहा सफल तीर्थ यात्रा करी, आव्या घाणे राव ग्राम । सुंदर देहरां पाठ छ, मन पांमे विसराम ॥१॥ डुगर कडणे भेटिइं, शासन नायक वीर । देखी हरख्यो पातमा, भागी मननी भीर ।।२।। दयादान ने तप भला, करता पर उपगार । हवे नडु लाइ जाइई, सेंतु जे गिरनार ॥३॥ ढाल: ___ महा विदेह खेत्र सुहांमणो ।ए देशी।। हवे नडुलाई जाइइं, सेतुजो गिरनार, यात्राकरण ने काज मेरे लाल । सेवजोने जादवो, भेटतां, शिवसुख राज मेरे लाल । ॥१॥ए तीरथ सुहांमणाँ उलट अधिक आनंद मेरे लाल, ए तीरथ सुहांमणां ॥ए प्रकरणी।। जसो भद्र सुरि लाविया, गयरणां गण विख्यात मेरे लाल । श्री आदेसर भेटिये, अलवेलो जगन्नाथ मेरे लाल ॥२। एती. चैत्या वली तिहां सोभती, स्वर्ग भुवन इग्यार मेरे लाल । धजा दंड लह के धणा, सुदर पडिमा सफार मेरे लाल ॥३॥एती. शांति करण श्री शांतिजी, नेमीश्वर ब्रह्मचारि मेरे लाल । आदेय नाम गुणायरु, पास जिनंद सुखकार मेरे लाल ॥४॥एती. उत्तर दक्षिण दिस डूंगरी, सेत्रुजो गिरनार मेरे लाल । देखतां जनम सफल होवे हूंतो वंदना करुं क्रोड मेरे लाल ॥५॥एती संप्रति रायनां देहरां, गांमो गांम विशाल मेरे लाल । कहे दयानंद पद सेवता, नीत होवे मंगल भाल मेरे लाल ॥६॥एती. इति नाडोलाइ तीरथ स्तवन समाप्तं । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ तीर्थ माला संग्रह दोहा-- हर्षे जिन पद सेविए, हर्षे दीजे दांन । हर्षे तप जप अनु मोदिये, भाव धरी बहू मान ॥१॥ श्रद्धा विवेकने भावना, व्रतसू धरिये राग। मोह महा मद छांडीइ, चित्त धरिये वयराग ॥२॥ अड नव सतर अठोत्तरी, पूजा विविध प्रकार । श्रावक कुल पांमी करी, नित समरो नवकार ॥३॥ ढाल--सलुणानि ए देशो जिम जिम जिन गुण गाइयेरे, तिम तिम हर्ष अपार । सलुणा नाडोल नगर जाइनेरे, उलट अंग धराय । सलुणा ॥१॥जिम. जिन मंदिर तीन छरे, देखतां हर्ष भराय । सलुणा ॥जिम ।। पद्म प्रभ छट्ठा नमुरे, सुंदर प्रभुदोदार, । सलुणा ॥जिम.।। प्रथम संप्रति देहरीरे, देव भुवन विस्तार । सलुणा ॥२॥जिम. शांति जिनेसर सोलमारे, उपगारि चितलाय । सलुणा । ब्रह्मचारी नेमी सरूरे, गिरनारी सोहाय । सलुणा ॥३॥जिम. बावन जिनालय शोभतारे, वंदू जिनवर बिंब । सलुणा । बार बावने थापनारे, देखतां हो अ अचंभ । सलुणा ॥४॥जिम. धन धन संप्रति रायनेरे, उत्तम काम कराय । सलुणा।। भगते जिन पद सेयतारे दयानंद पदवी थाय । सलुणा ॥५॥जिम. दोहा प्राण अखंडित जिनतणी, विचरी सासन मांही। सुलभ बोंधी प्रांणीया, धरी अंग उछाह ॥१॥ सम्यग् दृष्टि जीवनें, अन्तर दसा लय लीन । आतम भावे प्रेमसु, अनुभव रसज्यु भोन ॥२॥ संवर भावे आतमा, समतासु चित लाय । दया दान ने दीनता, एतरवा नो उपाय ॥३॥ ढाल:--- श्री तीरथ पति वंदिई भवि प्रांणी रे।। वामा नंद न देव सेवो भवि प्राणी रे ॥१॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मटारा तीर्थ माला संग्रह श्रीवरकांणा पासजी हूं वंदुरे, नित्य उठी सवेर देषी आनंदुरे ॥२॥ सीखर बंध प्रसाद छे, फरती भमतीरे, बावन अोला अोल मुझ मन गमती रे ॥३॥ ग्रे तीरथ सुहांमणो, गोडवाड देसरे, सहू जीवने आधार नव नव नवसरे ॥४॥ गांमो गांमना संघपति इहां आवेरे, जात्रा करे शुभ भाव, प्रभु गुण गावेरे ॥५॥ वलि विजोवा पासजी भले भेटोरे, सुदर प्रभु दिदार दुःख सवि मेटोरे ॥६।। शांति ऋषभ जिन वंदिये गांम गांमेरे, ___ आव्या पाली सेहर भले शुभ कामेरे ।।७।। श्री नवलक्खा पासजी हुं जुहारु रे, तिम गोडी चोमाहाराज मनमोह्य माहरु रे ।।८।। वलि अचिरा नंद वंदिये घणे हेतेरे, सोलमा श्री शांतिनाथ मनने गम तेरे ॥६॥ श्रीसुपास सुहांमणा जिन वंदोरे, जात्रा करि भले भाव भव पाप निकंदोरे ।।१०।। वलि डूंगर ऊपर एक छे जिन देहरोरे, श्री गोडी महाराज ज्यु सिर सेहरोरे ॥११॥ इण रीते चैत्य जुहारिया घणु रंगेरे, पंचे तीरथ धाम मनहू उमंगेरे ।।१२।। रंगे ऋषभ गुरु सेवतां शुभकारीरे रे, जयो जयो सासन जेने पर उपगारिरे ।।१३।। शासन इष्ट प्रतापथी संघ समुदायेरे, कहे दयानंद मुनि राज सहू सुख पायारे ।।१४।। पंच तोरथनी भावना जे भावेरे, पंचमी गति ना सुख लीला पावरे ।।१५।। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह दोहा गांमो गांमे प्रावतां जिन वर वांदु जेह । शांति जिनेसर समरीइ दिन दिन अधिकेनेह ॥१॥ सनात्र अोछव नवनवा, धुनि मृदंग अपार । ढोल नगारा गडगडे, भेरि मुंगल कंसाल ॥२॥ पूजा भगति प्रभावना, साहमी वच्छल सार । लाहो लीइ लखमी तणो. धन मानव अवतार ॥३॥ ढाल-राग धन्याश्री-- सासन देवी ना साहाय्य थी ए, संघ जात्रा भली भांत, जयो जिन शासने ए। सांडेरा नगर श्री शांतिजी ए, तिम वीसलपुर वीजापुर शांति ॥१॥जयो. तिहां एक डुगर कडणमेन ए, राता श्री महावीर ॥२॥जयो. जीवित स्वामीनी जातरा ए, करिइ गुण गंभीर ॥३॥जयो. बेडा नगर मे प्रावोया ए, श्री संभव नाथ जुहार ॥४॥जयो. नाणा ग्रामे अति भलो ए, जीवत स्वामी जीसार ।।५।।जयो. झाडो ली ग्रांमे देहरो ए, जुहारी जगदीश ॥६॥जयो. बामण वाडे वीरजी ए, भेटया त्रिभुवन ईश ।।७।।जयो. करण सुल तिहांनी कल्पा ए, अर प्रढी गिरीखंड ।।८।।जयो. आहि नांण तिहां कण भलु ए. सुंदर ठाँम प्रचंड ।।६।।जयो. तिहां वीरवाडे जातरा ए, देहरां दोय विशाल ।।१०॥जयो. वीर शांति भले भेटीया ए, चित्त थया उजमाल ॥११॥जयो. संघ चाल्यो भली भांत सू ए, नंदि वर्धन गॉम ॥१२॥जयो. प्रथम जिनेसर वांदिये ए, चरम जिणेसर खांम ।।१३।।जयो. तिहां विचरचा महि मंडले ए, चंडकोसिक प्रतिबोध ॥१४॥जयो. अलंकार गिरी कडण मे ए, करज्यो तेहनो शोध ।।१५।।जयो. Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह तिहांथी नजीक छे मावडी ए, अजारि सरस्वती माए ॥१६॥जयो. महावीर जीनो देहरो ए, भमती मां विचरंत ॥१७॥जयो. पूरवे नगर कगर थयो ए, महावन खंड मझार ॥१८॥जयो. तिहां लोटाणा प्रभु पास जिए, सुदर नमु दीदार ॥१६॥जयो. गांम नोतोडे प्रावोयाए, मूल नायक महावीर ॥२०॥जयो. अगड बिंब जिन मुरतीए भागे भवनी भीर ॥२१॥जयो. तिहाथी ड्रगर खंड मेए, जीवत स्वामी जुहार ॥२२॥जयो. चीवलो ग्रांमे भेटीयेए, श्री गोडीजी अवधार ॥२३॥जयो. अमतडा ग्रांमे वंदीयेए, श्री ऋषभ देव निनु रंग ॥२४॥जयो. ए पांचे तीरथ जहा रिइ, ग्रांम गांमे उडरंग ॥२५॥जयो. धन धन संप्रति रायनेए, जेणे कीधा उत्तम काम ।।२६।।जयो. बावन जिनालय देहरारे, जांणे स्वर्ग भुवन विसरांम ॥२७॥जयो. धन धन तीरथ जे करेए, सुलभ बोधी नर नार ॥२८॥जयो दया विजय मुनि राय कहे ए, पांमे सुख श्रीकार ॥२६।। जयो. कलश--- इम विश्व नायक मुक्तिदायक प्रणमु है तीरथ पति । वीस नगर वासी, जेन अभ्यासी, भाइ, जेठासा संघ पति ॥१॥ संवत उगणीस बारा वरसे. भेटीया मधुमास ए। गुण गाया रंगे उलट अंगे थूण्या श्री जगदीश ए ॥२॥ पंच तीरथ वंदी मन आनंदी, सासना देवी सुखी करो। तप गच्छ नायक विजय प्रभ सूरि, चिर तप्यो ससी दियरो ॥३॥ प्रेमे कांती रूप मनोहर, सीस किसन विजय तणो । रंगे ऋषभ गुरु सरण सेवा, स ल संघ आणंद घणो ॥४॥ इति श्री तोरथ माला संपूर्णम् ॥१॥ अथ तवन लिख्यते--- आज भलो दिन उगीयो पायो दरसण तेरो । सांभलो साहिबा वीनती मुजरो मांनजो मेरो ॥१॥आज भलो. नेण सलुणा नंदजी, हुआ सुखजी सेना । ओर देव देख्या घणा, कछु लेणा न देणा ॥२॥माज भलो. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ आज भलो त कु राखी यस जग उद्धरिया ॥३॥श्राज भलो. तीर्थ माला संग्रह सेवकनी प्रभु वीनती, चित्त मांहे अव धारो। अवर दिलासा दिजीई ओ भव पार उतारो ॥३॥आज भलो. वामा जी को नंदलो, पारस जग उद्धरियो। सेव किरति कु राखी ये, चरणांसु नेहडो ॥४॥आज भलो. आज भलो दिन उगीयो, पायो दरसण तेहरो ।इति तवन सम्पूर्णम्।। अथ तवन लिख्यतेतुमतो भले विराजो जी सांवलिया माराज, सीखर पर भले विराजोजी। उछा नीछा परबत सोहे, तले भीलन का वासा ॥१॥तुमतो. पेर पेर पर सिंह धडु के, जिहां लिया प्रभुवासा ।।२।।तुमतो. तेरे घाटे चोकी लागे, पूजा आंगि रचावे। हुकम करे श्री पास जिनेसर बांह पकर ले जावे ॥३॥तुमतो. टुक टुक पर धजा विराजे, झालर रा झणकारा । झालररा झणकारा सेती वाजे अविचल वाजा ॥४॥तुमतो. देस देस ना संघवी प्रावे, पूजा प्रांगण रचावे । अष्ट द्रव्य पूजामे ल्यावे, मन वांछित फल पावे ॥५॥तुमतो. सुर नर मुनीवर वंदण आवे, महा परम सुख पावे । छंद खुशाल चरण सेवक, हर्ष हर्ष गुण गावे ।६।तुमतो. Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समेत शिखर चैत्य परिपाटी सफली सविचंग । प्रहऊठीपाजि ऊतरीजेइ। तलहटीइ जइ पारणु कीजइ, प्राणीजइ मनिरंग तुज ॥३६॥ वस्तुः -- वीर पूजिय पूजिय नयरि विहारि, संमेत सिहर हिव चालतां। आदिनाथ मही अरहिं पूजिअ, आगलि भद्दिल पुरजई ।। जनम भूमि सीतलह नमोज्जइ अनुक्रमि पुहता समेयगिरि । वंदीय वीसइ शुभ तलहटीइ हिव ऊतरी कीजइ पारणारंभ ॥३७।। भाषा:तिहां थी पाछा आवीआए, मालतडे,राजगृह पुर माहिं । सुणि । मुनि सुव्रत वली भेटिया ए ॥मा.। पंचय परबत धाहि । सुरिण । ३८॥ राजगृही थो चालतां ए मा. दोइ सइ कोस वखाणि ।। सुरिण.। अवझा नयरी अती भली ए मा. इन्द्रइ वासी जांणि ।।सुरिण... ३६।। आदि अजित अभिनंदनु ए मा. सुमति अनन्तह नाथ । जनम भूमि तस् पूजतां ए मा. सफल हुअा मुझ हाथ ॥४०॥ मरु देवा मुगतिइं गई ए मा. सर गदुरा री ठामि । तसु पासइ नई पेखोइ ए मा. अछइ सरऊ नामि ।।४१।। नयर माहि वली पूजसीउ ए. मा. वोसमउ जिणंद । स्नात्र करो हिब चालिसिउ ए. मा. हीअडलइ अति आणंद ।।४२।। सात कोस रण वाही अछइ ए. मा. पहिलु रयण पुर नाम। धर्मनाथ तिहि जनमीया ए. मा. चउमुख केरइ ठामि ॥४३॥ पूजी पण मी पादुका ए. मा. कीधी जिणवर सेव । नयर कालप्पी आविया ए. मा. पूजीया जिणवर देव ।।४४।। चंग पंथि चंदेरीइ ए. मा. आव्या कुलसइ खेमि । संति पास दोइ पूज सिउं ए. मा. होयडइ हरख धरेमि ।।४५।। संवत पनर पांसठइ ए. मा. जात्र हइ अपार । संघ सहू घरि आवीयु ए. मा. दिन दिन उच्छव सार ।। चिंतामणि करि पामीउ ए. मा. सुरतरु फलोउबारि । मुगति हुई तसु ढूकढी ए. मा. सयल सुक्ख संसारि ।। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० तीर्थ माला संग्रह कमल धर्म पंडित वरू ए. मा जात्र कीधी संघ साथि । सफल जनम हिव म्हतणु ए. मा. मुगति हुई हिवहाथि || तव गछ नायक सिव सुहृदायक श्री जय-जय कल्याण गुरो । तसु प्रांण धुरंधर विबुध पुरंदर कमल धर्म पंडित सुगुरो || तसु सीस लेसिहि विबुध हंसहि तीरथमाल रची सुदिनं । जे भविय भरणेसि भावि सुसिहं जात्रा फल तसु श्रगु दिनं 11 चंद्र गछि गुरु जाणीइ ए. मा. श्री सोमसुन्दर सूरि । सोम देवसूरि तास सीस ए. मा. दुरि परणास दूरि ||४६ || सुमति सुन्दर सूरि अनुक्रमि ए. मा. राज प्रिय सूरि सार । तसु पटि महिप्रति गहगहिया ए. मा. कमल कलश गणधार । ४७ ॥ तस पटि संप्रति जयवंता ए. मा. श्री जय कल्याण सूरि । सोभागी सोहम समा ए. मा. वयण मोरस पूरि ॥ ४८ ॥ सहथि श्री गुरु थापीग्रा ए. मा. चरण सुन्दर सूरिंद । चउद विद्यारस सागरू ए. मा. वंदइ भवियरण वृंद ||४६ ॥ भुवनधर्म पंडित वरू ए. मा. गुरणमरिण तरणा भंडार । कमल धर्म तस सीसवर ए. मा. करई विदेसि विहार ||५०|| संवत पनरह पासठइ ए. मा. हंससोम सुविचार | नियमित मानइं वर्णवइ ए. मा. तीरथ सघलां सार ॥५१॥ तीरथ माला ए भगई ए. मा. आणी उलट अंगि । ते नर नारी कवि कहइ ए. मा. पामइ नव नव रंग ॥ ५२॥ इति श्री संमेत शिखर गिरि चैत्य परिपाटी सम्पूर्ण ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सम्मेत शिखर तीर्थमाला तपागच्छीय गणि श्री सहज सागर शिष्य कृता ढाल वडा नेसालिनानी प्रणमहं प्रथम परमेसरूजी, आगरा नगर सिणगार कइ पास चिंतामणी जो । परतखि परताए पूरविजी भुगति, मुगति दातार कि पास चिंतामणी जी ॥ १ ॥ इक वार जउं शिरंनांमीइजी पांमीइ कोडि कल्याण कइ पा । स्वामि सेवा फलिसहू कहइजी, महमहइ परिमल प्राण कि पा. ||२|| आणंदकारी गरइ जी देव देरासर सोल कइ पा. । सई हथि होरगुरु थापियाजी संवत सोल इगयाल कि पा. ||३|| राज्य राणिम रिधि रंगरली जी, रागरमणि रंगरेल कइ पा. । गिरु अडि गइ वर गोरडीजी गरजता गज गुरु गेलिकइ पा. ||४|| तेह प्रभु पास सुपसाउलिजी, तपगछ गुरुकुल वासि कइ पा. । नगर रतनागर नागरिजी रही चउमास उल्लास कइ पा. ॥५॥ पंच कल्याणिक भूमिकाजी परसतां फल बहु जो कि पा. । पूरव उत्तर पूजिइजी, जिहां जिन चैत्य जिन होय कई पा. || ६ || सुगुरु गीतारथ मुखि सुणीजी पुस्तक वात परतीत कइ पा. । जनम कल्याणक भेटवाजी अलजय हुँ निर्जाचत्तिकइ पा. ||७|| वंद दस दोय देहरे जी, बिंब बहु धातु मम्मारण कइ पा. । दरिसण करि देरासरे जी, आगरइ प्रथम पसायारण कई पा. ।। ८ ।। पुन्यवंता जगे ते नराजी, जे करि तीरथ बुद्धि कइ पा. । जिम जिम तीरथ सेवीइ जी, तिम तिम समकित शुद्धिकर पा. || || ढाल बीजी मधुमारसनी शुभ शकुने श्री संघ समेला, मिलिया सज्जन सहुन समेला । बोलइ मंगल वेला ॥ १० ॥ तुजयुंजय बोलि मंगल वेला, व्यवहीरी करि दक्षिण वलियो, हयस पल्हांणउ साहामु मिलियो । गल गर्जित गजराज तु ॥ ११ ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ तीर्थ माला संग्रह वामा वायस पूरि आस, खरहा चउ दक्षिण दिसि चास । तास शकुन पंचास तु जयु जय० ॥१२॥ इम अनेक शुभ शकुन विचारि, मिलिअ सवच्छ दोय गाई तिवारि । पहुता यमुना पारि तु जयु० ॥१३॥ कुंथुनाथ प्रभु पास जिणेसर, दोइ जिणहर पूजउ अलवेसर । ___केसर चंदण कुसुमे तु जयु० ॥१४॥ बारि कोस पीरोजावादि, मुनि सुव्रत पूजउ प्रासादि । देहरासर ऋषभादि तु ।।१५।। दउढसउ कोसे साहियाहापुरि, मिलि जिहां दश दिशि दिशाउर । देहरासरि बहु देवेतु ।।१६।। तिहाथी त्रिणि गाक्त मक्त गाम, जिणहर इक तिहां जुन ठांम । प्रतिमा पनर प्रणाम तु जयु ॥१७॥ मृगावती तिहां केवल पाम्यु, चंदनबाल चरणि सिर नाम्यु। इण परिशुधु खाम्यु तु जयु ।।१८।। सामी पगि लागी सुकुमाला, वयण वदि तब चंदनबाला । केवलि लहिन रसाला तु जयु ।।१६।। तिहां थकी नव कोस कोसंबी, जांगे अमरपुरी प्रतिबिंबी। यमुना सीरि विलंबी तु जयु ॥२०॥ उतपति सुरिणइ पुरुष बहुनी, पद्मप्रभ जनमि धूनी। ते कोसंबी जूनी तु जयु ॥२१।। जिनहर दोय तिहां वांदिजि, खमणा वसही षिजमति कीजि । गढ उतपति सुरिणजि तु जयु ॥२२॥ चंदनबालि छमासो तपसी, प्रति लाभ्यउ जिनवीरउ हरसी। वष्टि कोडिधन वरसी तु जयु ॥२३।। रिषि अनाथी इहान उ वासो, नयणह वेगण जिण अहिनासो । ___ अवधि कही छमासी तु जयु ॥२४।। पहिलु समकित एमा लीधु, श्रेणिकराइं जिन पद बाधु । धना सरोवर साधु तु जयु ॥२५॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह १०३ वीस कोस पिराग तिहांथी, सीधउ अण्णिन पुत्र जिहां थी। प्रगटयु तीर्थ तिहां थी तु जयु ॥२६॥ ढाल त्रीजी गउडोनीजिहां बहुलउ मिथ्यात लोक मकरि नाहइं, कुगुरु प्रवाहइं पांतरचा ए। गंगा यमुना संगि अंग पखालइ ए, अंतरंग मल नवि टलि ए ॥२७॥ अरकय वडनि हेठि जिन परिणठांमि, यू हिरइ भगवंत पादुका ए। संवत सोल अडयाल, लाड मिथ्यातीय, रायकल्यारण कुबुद्धिउ ए ॥२८॥ तिणि कीधउ अन्याय, शिवलिंग थापी, उथापी जिन पादुका ए। कोस ब्यालीस सुपास, पास जनम भूमि, काशी देश वणारसी ए ॥२६॥ गंगातटि त्रिणि चैत्य, वलि जिण पादुका, पूजी अगर उषेवीइ ए। दीसे नगर मझारि, पगि पगि जिन प्रतिमा, ज्ञान नहीं शिवलिंगनू ए ॥३०॥ एक वदि वेदांत, अवर सहू मिथ्याति हरिहर, भजन भलु करुरे ए। एक वडा अवधूत, लंब जटाजूट त्रीकमसु ताली दिइ ए ॥३१॥ कासी वासी कागमुग्रो मुगति लहइ मगधि मूओ नर खर हुइ ए । तीरथ वासो एम, असमंजस भाषइ, जैन तणा निंदक घणा ए ॥३२।। जोउ कलियुग जोर समकित पर्याय, इणि पुरि वसतां सही घटि ए। हरिपुरि हरिचंदराय वाचा पालवा, पांणह घरि पाणी वहि ए ।।३३।। गंगातटि द्रूहेठि, सीहपुरि त्रिणि कोस, जनम श्री श्रेयांसनउ ए । नवु जीर्ण दोय चैत्य प्रतिमा पादुका, सेवई सीहसमी पंथि ए ॥३४।। ज्ञान नहीं इगि पनि Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ तीर्थ माला संग्रह चंद्रपुरी च्यार कोस, चन्द्रप्रभ जिनमि, जन या चन्दनि चरचउ चउतरुए। पूजउं पगलां फूलि, चन्द्रमाधव हवडा कहि; प्रथम गुण ठाणीया ए ॥३५।। आवी गंगा पारि कोस नवाणू ए, पुहुता पुखर पाडली ए । पटणु लोक प्रसिद्ध, श्रेणिक कोणिक पुत्र उदायी थापीउं ए ॥३६।। तत्पदे नव नंद कलियुगी कुलहीण, राजा कुलवंत किंकरा ए। तत्पदे चंद्रगुप्त बिंदु सार वली, असोक कुणालह मालवइ ए ।।३७।। तस सुत संप्रति भूप सवालाख चैत्य सवाकोडि बिंब कारवी ए। इणि पुरि श्रावक सीह चारणाइक मुहतउ, जिणि जिण धर्म जगावीउ ए ।।३।। ढाल धन्यासीपुहता पुखर पाडली, भेटया श्री गुरु हीरो जी। थुभि नमू थिर थापना, नंद पहाडीनइ तीरो जी ॥३६॥ श्रीजिनवर इम उपदिसइ इंद्र सुणउ अम्ह वांण्यो जी। इकउ ए गिरि गिरु अरुइ, शत्रुजा थी जाण्यो जी ।।४०॥ श्री जिनवर इम उपदि से ।।प्रांकणी।। दीठउ हो डूगर दुष हरि, महिमा मेरु समानो जी। संमेता चल समरीइ, जिहां जिन वीस निर्वाणो जी ।।४१॥श्री. सिरिउ सुदर्शण पादुका, थूलभद्र बहिनर सातो जी। अवर अनेक थयां हूपा इहां पुहवई पुरुष विख्यातो जी । ४२ श्री. नयर मझारि दोइ देहरा, खमणा वसही एको जी। बिंब बहु देहरासरि, घरि घरि नमिन विवेको जी ॥४३॥श्री. संघ मिल्यु श्री अ आगरा, पाडलि पुरनउ समेलो जी। वलि मिलिउ संघ मालवी. दूधइं साकर भेल्यो ॥४४॥श्री. आलोची अ आडंबरई, बदरे घाल्या दामो जी। तरल तुरंगम पाखरया, वृषभ वहइ भरठामो जी ।।४५॥श्री. सखर सुखासण पालखी, चतुर चड इंच कडोलो जी। पगि पगि जिनपद पूजतां घनसारादिक घोलो जी ॥४६ । श्री. ॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थं माला संग्रह वानर वन जन मन खुसी, तिहां खेलई खिणमात्रो जो । परगट दिक पट देहरइं, बैकुंठ पुरीकरि जात्रो जी ॥ ४७ ॥ श्री ॥ कोस इग्यार विहार पुरि तिहां नमुं त्रिरण चैत्यो जी । एक दिगंबर देहरु, दूरि करूं दुख देत्यो ॥ ४८ ॥ श्री ॥ कोस त्रिअ तिहां थकी, पावा पुरीय प्रसिद्धो जी । जल थल थूभ तिहां भला. १०५ " जिहां जल तिहां जिन सिद्धो जी ॥ ४६ ॥ श्री ॥ बार जोयण जंभीगाम थी, देव कीधउ उद्योतो जी । त्रिगढइ बीजि प्रगडा समयइ, इणि पुरि वीर पहोतो जी ॥ ५० ॥ श्री ॥ इणि परि बहु प्रतिबूजव्या बांभरण सई चउमालो जी । गोयम गण हर दीखिया, दिखी चन्दन बालो जी ॥ ५१ ॥ श्री . ॥ काती मास अमावसई, सोल पुहुर उपदेसो जी | कासी कोसल पोसही, सीधा वीर जिणेसो जी ॥ ५२ ॥ श्री ॥ नख चूंटी माटी ग्रही. लोके लीधी राखो जी । जिन निर्वाण मही तिहां पालि पखई सर साखो जी ॥ ५३ ॥ श्री . ।। पुस्तक वात मीठी हूई, जब ते दीठो भूमो जी । बलिहारी गुरु बोलडै, समरि समरि रमनि घूम्यो जी ॥ ५४ ॥ श्री ॥ गांम गुणाक्त जन कहि त्रिहुं कोसे तस तीरो जी । चैत्य भलोउ जिहां गुणशीलउं समोसरचा जिहां वीरो जी ।। ५५ ।। श्री . ।। नयर नवादइ जिन वांदिश्रा, नव कोसे नव सालो जी | गोमां घाटी अ सांसरया संतोषी घट वालो जी ॥ ५६ ॥ श्री ॥ तीरथ भूमि न निदीयइं तउ हइ कहउ दोइ बोलो जो । लोक लंगोटीश्रा, सिरि जूडउ तनु खोलो जी || ५७ ॥ श्री . सहून नारिन पहोरइ कोइ कांचली, कांचली नाम इंगाल्यो जी । जो अरिज इम कहई संघती नारि निहाल्यो जो ।। ५८ ।। श्री । बालु तेह कुदेसडउ जिहां एहवी नारघो जी । सिर ढins किस कोढिणी, ए अवतारि नवारयो जी ॥ ५६ ॥ श्री ॥ चूल्हा फूंकि ए सखिरणी, का बालि सू नाको जी । ए रूख रसोई अ नीजि, ग्रम्ह घरि सूरिज पाको जी ।। ६० ।। श्री । मीठा मेवा महुआ हुआ, भला भला भील भोगी जी । बहुल कतूहल जंगली, सहु सराहइ तेणो जी ॥ ६१ ॥ श्री . । 11 " Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ तीर्थ माला संग्रह कठहल वडहल फलवडां, चारोलीन बेदामो जी। हरडइ पीपरि पीपला मूल, फणस फल नामो जी ।।६२।। श्री. ॥ गज टोलां दोलां वने, चरइ गेंडांसा वजराजो जी। जरखां अजगर गरजतां, बारह सीग अगाजो जी ॥६३॥ श्री. ।। कोइ न उलखि उषधी, जल थल रूष विशेषो जी। जंगलि जोइयां ते जेहनउ, लिख्यो न जाइ लेखो जी ॥६४॥ श्री. ।। दोहा: दीठउ डूंगर दूरि थी, अटवी अटक उलंघि । पालगंज गिरि तलहटी, पांमो कुसलई संघि ।।६५।। संघपति भूपति भेटियो, भरि भेटण पाय नमी। करो वंदन जिनराजनी नमीये सिरनामी ॥६६॥ ढाल सोरठी लिनओ:-- तब भूपति बोलइ भल्ल, नामि जे पृथिवीमल्ल । अब जीवित सफल अम्हारु, जउ दरिसण दीठ तुम्हारु ॥६७।। हमचउ तुम्हें महुत वधारु । गिरि ऊपरि तुम्हें पधारु । सीधा जसत्य सिरि जिन वीस । करि यात्र नइं नांमउं सीस॥६८।। आदेश लही नरपतिनउ । सवि संघ चडइं स यतनउ । तब हुउ अचरिज एह । विण वादल वूठउ मेह ।।६।। फागुण सुदि सुरगुरु वारि । पंचमि दिन देवजुहारि । करि तीरथ तप उपवास, गावइ गुण गोरी जन भास ॥७०।। नर नारी पहिरी अोढी, पूजइ प्रतिमा प्रभु पोढी । फरिसइ वली वीसि टुक, टाली मल मूत्र नि थूक ।।७१॥ श्री अजित संभव अभिनंदन, श्री सुमति पद्मप्रभ वंदन । सुपास चन्द्रप्रभ सुविधि शीतल श्रेयांस विमल ।। श्री अन्नत नइ धर्मह शांति, कुंथु पर मल्लि नमिए कांति । मुनि सुव्रत श्री नेमि पास । इहां कीधउ कर्म विणास ।।७२।। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीथं माला संग्रह कीधां अणसण जिहां रही ऊभ, तिहां देवे थाप्यां सहू थूभ । मांहि माँड्या जिनवर पाय, ए मोटउ मुगतिउ पाय ॥७३।। सीधउ इहां शील सन्नाह, करि अणसणनउ निरवाह । लख भव लगि रूपीराय, रुलिओ पालोअण अण प्रणठाय ।।७४।। प्रतिबोधी जइतउ जाट, जस भद्रि ग्रही गिरिवाट । बप्प भट्ठि गुरु पालित्त, इहां यात्रा करता नित ॥७५।। अवदात घरणा छइ गिरिना, कहवाइ किम बहु परिना । भाग्य हुइ ते ए गिरि फरसइ, तिहां निसिदिन जलह वरसइ ॥७६॥ गिरि आगई कोसे बारे । उपरि थी देव जुहारे। रिजु वालीय जंभी गाम, वीरह जिन केवल ठांम ॥७७ । इम यात्र करी निरदंभ, तलहढीइ पारणारंभ । संघ भगति करि भारज तोडइ, साहा रूपि गजी विग जोडइ । ७८॥ तिहां थी हवि कीध पयाणु, वाटइं वहई चाप वर वाणु। श्रेणिक सुत कोणीवासो । जिहां वीर रह्या चउमासी ॥७६ ।। सद्दहला जे गुरु वयणे, ते नयरी दीठी नयणे । वीर श्रमणोपासक रहता, ते तुगीपा नगरी पुहता ॥८॥ राजगह कोसे साते, तिहां थी पहुता परभाते। जिहां जनम्या सुव्रत सामी, जिहां पर्वत पांचइ नामी ।।८१॥ वैभार विपुल गिरि उदय, गिरि स्वर्ण रतन गिरि उदय । वैभार ऊपरि निसिदीस, घर वसतां सहस छत्रीस ॥२॥ गिरि पांचे दउढ सउ चैत्य, त्रिरिण सिं त्रिण बिंब समेत । सीधा गणधर इह इग्यार, वांदुहं तस पद आकार ॥३॥ साह शालिभद्र इहां धन्नउ, हुआ धर्म कीउ इक मन्नउ । अणसण सिलि काउसग लो वीर, रहिया सालउ बहिनेवी ॥४॥ मुनिमेव अभय कयवन्नउ, बीजउ कांकदी धन्नउ । एणे कीधू संथारु, राख्य उतवि दुखउ धारउ ॥८॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह हांसापुर ग्रहणां कुप्रो, ते ऊपरि गोमट एक पत्थरि वीर पोसाल, लांबी छइ हाथ १०८ ऊन्हां जल चउदै कुंड, सीभि जिहां धान्य पांचि गिरि ए सिद्धिखेत्र, निरखतो हुई हुआ । छयाल ॥ ८६ ॥ खण्ड | निरमल नेत्र ॥ ८७ ॥ पुण्य बाहिरि नालंदर पाडउं, सुरगयो तस वीर चउद रहिया चतुमास, हिवडां वडगांम घर वसतां श्रेणिक वारइ, साढी कुल कोडी बारइ । बहु देहर इक सउ प्रतिमा, नवि लहिइ बौद्धनी गरिणमा ॥ ८६ ॥ गोतम गुरु पगलां ठांणि, प्रगटी मुनि पात्रां खांगि तस पासि वाणिज्य गांम, आणंदो पासक ठांम ॥ ६०॥ पवाडउ । निवास ||८|| दीठां ते तीरथ कहियां न गिरणू जे खुश रहियां । हरख्या बहु तीरथ अटण, आव्या चउमासइ पटणइ ||११|| तप गच्छति शत शाखा पसरउ, परंपरा परिवार । घरिघल परिमल पुडुवि, प्रगट्या पारिजात जिम सार ||२|| विजयसेन सूरि प्रगट पटोधर, विजय देव सूरीस । सहज सागर गुरु सीस सुहंकर पूगी सयल जगीस || ३ || ढाल मल्हार देशी खांति खरी खत्रीकुंड नी, जांणी जनम कल्याण हो वीरजी । चैत्र कल तिथि तेरसई, जात्र चडी सुप्रमांण हो वीरजी खां. ॥६४॥ मास वसंत वनि विस्तरया, मलया चलना वाय हो वीरजी । वन राजी फूली भली, परिमल पुहुवइ न माय हो वीरजी खां. ॥६५॥ मउरिश्रा मचकुंद मोगरा, मरुत्रा मंजरिवंत हो वीरजी । बउलसिरि वलि पाडला, भृंगयुगल विलसंत हो वीरजी खा. ||६| कुसुम कली मनि मोकली, बिमणा मरुप्रा दमणा नी हो वीरजी । तलहटीइ दोइ देहरे, पूज्या जिन मन कोडि हो वीरजी खां ॥१७॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह १०६ सिद्धारथ घरि गिरि सिरिइं, तिहां वांदु एक बिंब हो वीरजी। त्रिहुं कोसे ब्रह्मकुड' छि, वीरह मूल कुटुंब हो वीरजी खां. ॥१८॥ पूजी अ गिरि थकी ऊतर्या, गांमि कुंडरी जान हो वीरजी। प्रथम परीसही उतरि, वांद्या वीरना पाय हो वीरजी खा. ॥६६॥ सुविधि जनम भूमी वांदीइ, कांकंदी कोस सात हो वीरजी। कोस छवीस विहार थी, पूरव दिसि दोय सात हो वी. खां. ॥१००॥ पटणा थी दिशि पूरवइ, सठि कोसे पुरिचंपा हो वी. । कल्याणक वासु पूज्य नां, पांच नमी जी आप हो वी. खां. ॥१०१।। दिवानउ इक देवसी, कीधी तेणि उपाधि हो वी. । श्वेतांबर थिति ऊथपी, थापी विक्यट व्याधि हो वी. खां. ॥१०२॥ पणपरपुत्रे सपुत्र को, न हुप्रो एह संभाल हो वी. । जे नर तीरथ ऊथपीइ, तेहनइ मोटी गालि हो वी. खां ॥१०३॥ चांप वराडी जिण कही, गंग वहइ तस हेठि हो वो. । सतीअ सुभद्रा इहां हुई, हुप्रो सुदर्शन सेठि हो वी. खां. ॥१०४।। हाजीपुर उत्तर दिशि, कोस वडी च्यालीस हो वीरजी। मिहिला मल्लि नमीसरु, जनम्या दोयज गदीस हो वी. खां. ॥१०॥ प्रभु पग आगि लोटी गणां, लीधां सीधां छि काम हो वी.। लोकि कहिए सुलक्खणी, सीता पीहर ठाम हो वी. खां ॥१०६॥ पट्टणा थी दक्षिण गया, मारगि कोस पंचास हो वी.। शीतल जनम महो लही, भद्दिलपुरि भरि पास हो वी. खां. ॥१०७॥ सुलसा सुणिनि संदेसडउ, कहि अंबड जिनवांणि हो वी. । कहांन सहोदर इणिपुरी, चंदेला सिहि नारिण हो वी. खां, ॥१०८।। ढाल मधुकर धन्यासीमधुकर मोह्यामाल, परिमल बहुल उजास ॥मधुकर।। मुज मन मोह्यउं इणि गिरि, जांगू कीजि वास । मधुकर।।१०६॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० तीर्थ माला संग्रह पूख यात्रा मई करी, संभारि परिवार ||मधुकर।। दिज्यो दरिसण आपणु, वलि मुज वीजी वार मधुकरापूर॥११०॥ आंकणी मांनि निहोरउ माहरउ, करि मुज पांख नु दांन ।मधुकर।। पांखवली ऊडी मिलू, इहां थी करस्यू ध्यान |मधु.।।१११।। भलि ए मानव भव लाउ, धर्माधर्म विचार ॥मधु.। तीरथ यात्रा म्हि करी, (पाठांतरं) भेटी तीरथ भूमिका, जनम लगी अविसार ।।मधुकर।।११२।। घरनइं सिद्धि सवणा हुआ, कासी थी कोस साव्ठिव ॥म.।। अडक अयोध्या, प्रावीया, जे वासी वड काठि ।म. पू.॥११३।। पांच तीर्थकर जनमीया, मूल अयोध्या दूरि ॥म.॥ जांणी थित वापी इहां, इम बोलि बहू सूरि ।।म. पू.॥११४॥ बहुल कतूहल लोकनां, राम घरणि धीज कुंड ॥म.॥ हरिचंदइ दीधू इहां, हरिणी हत्यादंड ।म. पू.॥११५।। सत कोसे सरजू तटइं, धरम जिणेसर जनम ॥म.॥ रंगिरुणाही प्रणमीइं, भाजि भव भय भरम ।।म. पू.॥ ११६।। देखू दरियावाद थी, दुर्ग दिशि कोस त्रीस । म.॥ सावत्या संभारिई, संभव जनम जगोस ।।म. पू॥११७॥ खंदक मुनी पील्ह्या इहाँ, तिहां ऊगि विस जाति म.॥ ऊगि किरिबातु कडू, दंडक वन अवदाति ॥म. पू.। ११८॥ पिटिं भारीपुर कंपिला, विमल जनम वंदेसि ।।म.॥ चुलणी चरित संभाल हो, ब्रह्मदत्त परवेसि ।।म. पू.११६।। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ माला संग्रह १११ केसर वनराइ संजती, गई भालि गुरु पासि ।।म.॥ गंगा तट व्रत ऊचरि, द्रूपदी पीहर वासि ।।म. पू.॥१२०।। सुर पूजइ सूरी पुरि, सामल वरण उ नेमि ।।म.।। चंद्र प्रभ चंदन वाडी मां, रपडी राखू प्रेम ।।म. पू॥१२१॥ हथिणाउरि हरषी हिऊ, शांति कुथु अर जनम ।।म.॥ आगरा थी दिशि ऊतरि, दउ ढसउ के मरम ।म. पू.॥१२२॥ पांडव पांच इहां हुआ, पांच हुआ चक्रवति ॥म.:। पांच नमु थुण (अ) थापनां, पांच नमू जिन मूर्ति ।।म. पू.॥१२३॥ अहिछतइ उत्तम नमइं, मथुरागढ ग्वालेर ।।म.॥ उजल गिरि विमला चलू, दिल्ली जैसलमेरु ।।म. पू.॥१२४॥ चंद्र प्रभ चिंता हरी, मालपुरी मन लाडि ॥म.॥ सुख साखी संखेसर, थंभण बंभण वाडि ।म. पू.॥१२५॥ राणिगपुर रुलियामणं, वर दीई वरकांण म.॥ आबू पारासरिण नमू, फल विधि सफल मंडाण ।।म. पू.॥१२६॥ ते म्हइं तीरथ सांकल्या, नयणि जिहाल्यां जेह ॥म.॥ महि अलि अवरि अनेक छे, नमो नमो मुज तेह ॥म. पू.।।१२७॥ तीरथ सेवा जु फलि, तउ याचु जगदीस म.॥ सुलह बोही तउ हुं हुओ, रमज्यो तुम्ह पाय ईस ॥म. पू.॥१२८।। विनय करी करु वंदना, हुज्यो हिसाए देव । म.।। सुहाए खमाए जिनतणी, निस्सेयसाए सेव ॥म. पू.॥१२६॥ अणुगामी फल ए हुज्यो, जनमि जनमि उपगार म.।। तीरथ माल सफली फलउ, शतशाखा परिवार । म. पू.।।१३०।। इति तीर्थमाला अति रसाला पूर्व उत्तर वर्णवी । समकित वेली सुरिण सहेली सफल फली नव पल्लवी ॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ तीर्थ माला संग्रह पगच्छ राजा बहु दिवाजा, विजयसेन सपट्टि पूर प्रसूरि सुरम्रो विजयदेव सूरीसरो । यतीसरो ॥ १३१ ॥ स गच्छि राजि भवि निवाजि वाचक विद्या सागरो । स सीस पंडित सुगुरण मंडित सहजसागर गणिवरो ॥ सासउ चउवीस जिनवर कल्याण क यात्रा करी । इस सोस लेसई पूर्व देसइ थुई भरणी बहु सुखकरी ॥ १३२ ॥ इति समेत शिखर तीर्थमाला स्तोत्र संपूर्णम् ॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जॉब प्रिंटिंग प्रेस, ब्रह्मपुरी, अजमेर।