________________
५३
तीर्थ माला संग्रह दिवाकर प्रभु दीपता, धर्मनाथ अभिधान ।
ओरन अरज हजूर में, मुजरो लीजो मान ॥४॥ हवे अवसर जांणी करे संलेखणा साग ॥ए ढाल नो देशी।
सहु चैत्य नमी ने, वंदो गुरु गुणवंत । सद् बुद्धि साथे, अनुभव सुख विलसंत । परिसह ने सहवा, दंती जिम रणधीर । श्रुतरयणे भरिया, दरिया जेम गंभीर ॥१॥ दुर्गुण ने टालें, पालें शुद्धाचार । जल उपशम झीली, विमल करें अवतार । महाजंगी जीसो, काम सुभट निरधार । व्याकरण प्रफुल्लित, करता शब्द विचार । कोश नाटिक वक्ता, साहित्य ने वली छंद । राय सभा में जइने, करे कुतिर्थी निकंद ॥२॥ टीका अवचूरि, नियुक्तिना जाण । चूणि भाष्याशय, द्योतक अभिनव भाण । षट्शास्त्र ने जाणे, तांणे नहीं लवलेश । वीश वरस प्रमाणे, विहरे सघले देश ॥३॥ सह देश ना संघ ने, उपजावे परतीत । रुचि पद ने धरवा, रहे आप अतीत । शुद्ध चारित्र धरता, वीता वरस दुवीस । प्राय तेहने आपें, आचारज गण ईश ॥४॥ पडिरूवादिक सहू, उपदेश माला व्यक्त । षड्विंशत गुण गण, सूरिपदना युक्त । पद धरवा ए विधि विशेषावश्यक बीज । यदि शिव सुख अर्थी, गुरू एहवानें धीज ॥५॥ साधु ने श्रावक, पंडित जेहना नाम । वलि गच्छना स्वामी, लीजे तस परिणाम ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org