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तीर्थ माला संग्रह देश काल संभाली, देता शुद्ध उपदेश । लौकिक लोकोत्तर, बाधक नहीं लवलेश ॥६॥ तस आणा धारो, जेम कहे ते ठोक । उपदेशपदादिक, शोडश समेत हतोक । गीतारथ आपें, पीज्यो विष ने आप । अमृत ने आपें, अगीतारथ छाप ।।७।। तस अमृत छंडो, निर्वित एक असार । गच्छाचार पयन्ने, जोवो ए अधिकार । पडिकमणा अवसर, अथवा बीजी वार । अढाई ज्जैसु, कीजे सूत्रोच्चार ॥८॥ ए रीते वंदो, चिउ दिशि ना अणगार । सद्गुरु ने अभावें, वंदन एह प्रकार । मूठ-मच्छरधारी, अक्षर नो नवि बोध । जगें जोधा थइ ने, करे परंपर सोध ॥६॥ कायक्लेश में करता, धरता मेलो वेश । मन मान्यु बोले, करवा पागम उद्देश । जिन शासन डोले, बोले जलधि मझार । शिकायोगें करज्यो, एहवानों परिहार ॥१०॥ अनुष्ठान करंतां, करवा पर अपमान । मंजार तणी परइ, क्रियानो तोफांन । क्रोधी ने कपटी, लंपटी रसना जेह । छल हेर क होणा, कुगुरु कहावे तेह ॥११॥ जे साधु थइने, करें कुशीलाचार । पद तेहने करतां, विधि वंदन व्यवहार । जिणांण विराधे, करे अनंत संसार । महावीर पयंपे, महानिशीथ मझार ॥१२॥ दोष उत्तर देखो, राखो सम परिणाम । शुद्ध धर्म सरणावे, एहीज उत्तम काम । मलमांहो मोती, लेवा नो नवि दोष । उपदेश सुणीने, धरज्यो मन संतोष ।।१३।।
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