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तीर्थ माला संग्रह बने । तीर्थंकरों में आदि तीर्थंकर ऋषभ मुनि सर्वत्र निरूप सर्गता से विचरे आदि जिनकी अग्र विहार भूमि अष्टापद पर्वत बना रहा अर्थात् पूर्व पश्चिम भारत के देशों में घूमकर मध्य भारत में आते तब बहधा अष्टापद पर्वत पर ही ठहरते । भगवान ऋषभ जिनका छद्मस्थ पर्याय (तपस्वी-जीवन) हजार वर्ष तक बना रहा, बाद में आपको पुरिमताल नगर के वटवृक्ष के नीचे ध्यान करते हुए केवल-ज्ञान प्रकट हुआ, उस समय आपने निर्जल तीन उपवास किये थे, फाल्गुन वदि एकादशी का दिन था। इन संजोगों में अनन्त केवलज्ञान प्रकट हुआ और आपने श्रमण धर्म के पंच महाव्रतों का उपदेश किया।
धर्मचक्र को बाहुबलि ने ऋषभदेव के स्मारक के रूप में बनवाया था, परन्तु कालान्तर में उस स्थान पर जिन चैत्य बनकर जिन प्रतिमाएं प्रतिष्ठित हुईं, और इस स्मारक ने एक महातीर्थ का रूप धारण किया, प्रतिष्ठित जिन चैत्यों में "चन्द्रप्रभ नामक आठवें तीर्थंकर" का चैत्य प्रधान था, इस कारण से इस तीर्थ ने चन्द्रप्रभ के साथ अपना नाम जोड़ दिया और लम्बे काल तक वह इसी नाम से प्रसिद्ध रहा । महानिशीथ नामक जैन सूत्र में इसका वृत्तान्त मिलता है जिसमें से थोड़ा सा अवतरण यहां देना योग्य समझते हैं ।
___"अहन्नया गोयमा ते साहुणो तं पायरियं भरणंति जहाणं जइ भयवं तुमं प्राणवेहि ताणं अम्हेहिं तित्त्थयतं करि (र) या चंदप्पह सामियं वं दिया धम्म चक्कं गंतूण मागच्छामो ताहे गोयमा अहीण मनसा अणु तालं गंभीर महुराए भारतीए भणियं तेणा यरियेणं जहा इच्छा यारेणं न कप्पई तित्थयंतं गंतु सुविहियाणां ता जावणं बोलेइ जत्त तावणं अहं तुम्हे चंदप्पहं वंदा वेहा मि । अन्नं च जत्ताए गएहिं असंजमें पडिज्जइ एएणं कारणेणं तित्थं यत्ता पडिसेहिज्जइ।”
अर्थात्- (भगवान महावीर कहते हैं) हे गोतम ? अन्य समय वे साधु उस प्राचार्य को कहते हैं-हे भगवन् ? यदि आप आज्ञा
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