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________________ तीर्थं माला संग्रह कोई भी दर्शनार्थी प्रष्टापद पर नहीं जा सकता था । और इसी कारण से भगवान महावीर स्वामी ने अपनी धर्म सभा में यह सूचित किया था कि जो मनुष्य अपनी प्रात्मशक्ति से अष्टापद पर्वत पर पहुँचता है वह इसी भवमें संसार से मुक्त होता है । अष्टापद के अप्राप्य होने का तीसरा कारण यह भी है, कि सगर चक्रवर्ती के पुत्रों ने अष्टापद पर्वत स्थित जिन चैत्य स्तूप आदि को अपने पूर्वज वंश्य भरत चक्रवर्ती के स्मारक के चारों तरफ गहरी खाई खुदवा कर उसे गंगा के जल प्रवाह से भरवा दिया था, ऐसा प्राचीन जैन कथा साहित्य में किया गया वर्णन आज भी उपलब्ध होता है ! उपर्युक्त अनेक कारणों से हमारा अष्टापद तीर्थ कि जिसका निर्देश श्रुत केवली भगवान् भद्रबाहु स्वामी ने अपनी आचाराङ्ग नियुक्ति में सर्व प्रथम किया है, हमारे लिये आज प्रदर्शनीय और लभ्य बन चुका है । आचाराङ्ग निर्युक्ति के अतिरिक्त श्रावश्यक नियुक्ति की निम्नलिखित गाथाओं से भी 'अष्टापद तीर्थ' का विशेष परिचय मिलता है अह भगवं भव महणो पुव्वाण मणूरणगं सय सहस्सं । अणु पुब्वि विहरिकरणं पत्तो अठ्ठा वयं सेलम् ।। ४३३ || अठ्ठा वयंमि सेले चउदस भत्तेण सो महरि सीगं । दसहि सहस्से हि समं निव्वाण मणुत्तरं पत्तो ॥ ४३४ ॥ निव्वाणं १ चिइ गागिई जिरणस्स इक्खाग सेसयाणं च २ । सहा ३ घूभ जिणहरे ४ जायग ५ तेणाहि श्रग्गिति ॥ ४३५ || J सब संसार दुःख का अन्त करने वाले भगवान् ऋषभदेव सम्पूर्ण एक लाख पूर्व वर्षों तक पृथ्वी पर विहार करके अनुक्रम से 'अष्टापद' पर पहुँचे और छः उपवास के तप के अन्त में दस हजार मुनिगरणों के साथ सर्वोच्च निर्वाण को प्राप्त हुए । ४३३।४३४ । भगवान् और उनके शिष्यों के निर्वारणानन्तर चतुरनिकायों के देवों ने आकर उनके शवों के अग्नि संस्कारार्थं तीन चिताऐं बनवाई पूर्व में गोलाकार चिता तीर्थंकर शरीर के दाहार्थ, दक्षिरण में त्रिकोणाकार चिता इक्ष्वाकु वंश्य के गणधरों के तथा महामुनियों के शव दाहार्थं बनवाई और पश्चिम दिशा की तरफ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003209
Book TitleTirth Mala Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherParshwawadi Ahor
Publication Year1973
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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