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श्री पाटण चैत्य परिपाटी
हर्ष विजय कृता - रचना सं. १७२६ विक्रमी सरसतो सामनी, प्रणमी
"समरीय
पाटण
चैत्य प्रवाडि - स्तवन
पाटरण पुण्य प्रसिद्ध क्षेत्र पुण्यनुं
ऋहीठाण ।
मंडारण ॥२॥ वंदरणकेरो ।
मन मेरो ||३||
च्यार । दीदार ||४||
जिन प्रासाद जिहां घरणाये, मोटई मुझ मति प्रति उंमाहुलोए, जिन पाटण- चैत्य-प्रवाडि स्तवनं करतां हरष्यो प्रथम पंचासर इ जाईए तिहां प्रासाद पंचासर जिनवर तणोए देष्यो चौपन बिंब तिहां अती भलांए वली होर विहार । प्रतिमा त्रिरण सहगुरु तणीरे मुरति मनोहार ॥ ५ ॥ तिहांथी ऋषभ जिणंद नमुंए बिंब पनर गंभारई । एक सो बैं बिंब अति भलां ए भमतीइं जुहारई || ६ || वासपूज्य ने देहरई ए जे जांणु बिंब च्यार | बिंब त्रिण वखाणुं माहावीर पासई ऊँची सेये शांतिनाथ, प्रतिमा एक उपरि नमतां थकां ए पोहोचें पिंपले श्रावको पार्श्वनाथ सडसठि प्रतिमा सडतालीस बिंब शांतिनाथ, भविश्ररण मन चितामणि पाडामांहि ए शांतिनाथ विराजे । पंचवीस प्रतिमा तिहां भलि ए देखी दुख भा जई ॥ १० ॥ बीजई देहरई चन्द्र प्रभु, तिहां तिहां दोसत सडसठि उपरि ए, प्रणमी पाप निकंदु ॥ ११ ॥ सगाल कोटडी प्रासाद एक, थंभरणो पार्श्वनाथ | धर्मनाथनइं शांतिनाथ, सिवपुरी नो साथ ।। १२ ।।
मन
आस ||८||
सोहें ।
मोहें || ||
प्रतिमा वंदु |
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करतां सुख
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ढाल
खरा खोटडी मांहि, प्रासाद मनोहरू रे, के प्रासाद० । पंच मेरु सम पंच के भवित्रण भयहरूरे, के भवि० ॥ | १ ||
गुरुपाय । धाय ॥ १ ॥
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वली ए ॥ ७॥
पंचास ।
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