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तीर्थ माला संग्रह श्री शिवा सूनु देवस्य पादुकात्र निरीक्षता । स्पृष्टाच्चिता च शिष्टानां पाप व्यूहं व्यापोहति ॥६।। प्राप्यं राज्यं परित्यज्य जर तृण मिव प्रभुः । बन्धून् विधूय च स्निग् धान् प्रपेदेऽत्र महाव्रतम् ।।७।। अत्रैव केवलं देवः स एव प्रति लब्धवान् । जगज्जनहितैषी स पर्यणैवीच्च निर्वृतिम् ।।८।।"
अर्थात्-इस उज्जयन्त गिरि के दो योजन ऊँचे शिखर पर बनवाने वालों की निर्मल पुण्य राशि किसी चन्द्र किरण जैसी उज्जवल जिन मन्दिरों को पंक्ति सुशोभित हैं । इसी शिखर पर सुवर्ण मय दण्ड कलश तथा आमल सारक से सुशोभित भगवान नेमिनाथ का सुन्दर चैत्य दृष्टि गोचर हो रहा है । यहीं पर प्रतिष्ठित शैवेय-जिनकी चरण पादुका दर्शन, स्पर्शन, और पूजन से भाविक यात्रिगण के पाप को दूर करती है। और यहीं पर जीर्ण तिनखे को तरह समृद्ध राज्य, तथा विशाल कुटुम्बका त्याग कर भगवान नेमिनाथ ने महाव्रत धारण किये थे । और यहीं पर भगवान केवलज्ञानी हुए तथा जगत् हितचिन्तक भगवान् नेमिनाथ यहीं से निर्वाण पद पाये।
"अत एवात्र कल्याण त्रय मन्दिर मादधे । श्री वस्तु पालो मंत्रीश श्चत्कारित भव्य हृत् ॥६॥ जिनेन्द्र बिम्ब पूर्णेन्द्र मण्डपस्था जना इह । श्री नेमेमज्जनं कर्तु मिन्द्रा इव चकासती ॥१०॥ गजेन्द्र पद नामास्य कुण्डं मण्डयते शिरः । सुधा विधैर्जलैः पूर्ण स्नानार्ह त्स्नपन क्षपैः ।।११।। शत्रुञ्जया वतारेऽत्र वस्तु पालेन कारिते । ऋषभः पुण्डरी कोऽष्टा पदो नन्दी श्वरस्तथा ।।१२।। सिंह याना हेमवर्णा सिद्ध बहु सुतान्विता। कम्राम्र लुम्बिभृत् पाणि रत्राम्बा संघ विघ्नहृत् ॥१३।।
(वि. ती. क. पृ. ७)
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