Book Title: Tirth Mala Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Parshwawadi Ahor

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Page 70
________________ श्री शत्रुजय तीर्थ-चैत्यपरिपाटी श्री भक्ति लाभ शिष्य चारू चन्द्र रचिता पहइलु प्रणमु श्री अरिहंत, दोष अठार रहित भगवंत । सेत्रुजय गिरि छेइ गुणवंत, ज्यों राजे श्री रिसहजिणंद ॥१॥ छइ गुणवंत, जिहां राजे जात्र करेवा प्रावइ संघ, श्रावक नर नारि मनि रंग । अंग उमाहउ अतिघणउ ए ॥२॥ अन्न दिवस श्री पालीताणइ, आव्या संघपति सुपरि वषाणइ। च्यारि देसना, जूजुमा ए ॥३॥ पूरव देस थिकी संघपति, आव्या संघ नियनारी संजुती। रूप रेख लिखिमी जिसी ए॥४॥ मरुधर देसथिकी मंडाणइ, पाव्या संघपति करइ पल्हाणि । घर नारी गाडलइ चढी ए ॥५॥ गुजर संघषति गरुई युगति, बइठा सेजवाली संपत्ति । __ वामांगी निज गोरडी ए ॥६॥ तिणइ अवसरि मेवाडह संघ, संघपति सहित करइ नितु रंग । __ कामणि धामणि धसमस ए ॥७॥ पूरव देश तणी वरनारी, सोल शृंगार करी अतिसारी। रूपि रंभ हरावती ए॥८॥ चंदन केसर भरिय कचोली, पहिरि नवरंग जादर चोली। भोली भगति प्रतिवणुए ॥६॥ पहठती प्रिय पासइ इम बोलइ, तुम सम अवर संघ कुण तोलइ । पहलु पूजिसु पठम जिन ॥१०॥ ताम संघपति करिय सजाई, आपुरि पहुतउ तव धाई । ___ मरुधर संघपति सांभलुए ॥११॥ विहिला विहिला वार मलाउ, जिको महारो सो विहिलु पाउ । मोसग पहिलुभुजिन पूजस्युए॥१२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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