Book Title: Tirth Mala Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Parshwawadi Ahor

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Page 101
________________ १४ तीर्थ माला संग्रह दोहा-- हर्षे जिन पद सेविए, हर्षे दीजे दांन । हर्षे तप जप अनु मोदिये, भाव धरी बहू मान ॥१॥ श्रद्धा विवेकने भावना, व्रतसू धरिये राग। मोह महा मद छांडीइ, चित्त धरिये वयराग ॥२॥ अड नव सतर अठोत्तरी, पूजा विविध प्रकार । श्रावक कुल पांमी करी, नित समरो नवकार ॥३॥ ढाल--सलुणानि ए देशो जिम जिम जिन गुण गाइयेरे, तिम तिम हर्ष अपार । सलुणा नाडोल नगर जाइनेरे, उलट अंग धराय । सलुणा ॥१॥जिम. जिन मंदिर तीन छरे, देखतां हर्ष भराय । सलुणा ॥जिम ।। पद्म प्रभ छट्ठा नमुरे, सुंदर प्रभुदोदार, । सलुणा ॥जिम.।। प्रथम संप्रति देहरीरे, देव भुवन विस्तार । सलुणा ॥२॥जिम. शांति जिनेसर सोलमारे, उपगारि चितलाय । सलुणा । ब्रह्मचारी नेमी सरूरे, गिरनारी सोहाय । सलुणा ॥३॥जिम. बावन जिनालय शोभतारे, वंदू जिनवर बिंब । सलुणा । बार बावने थापनारे, देखतां हो अ अचंभ । सलुणा ॥४॥जिम. धन धन संप्रति रायनेरे, उत्तम काम कराय । सलुणा।। भगते जिन पद सेयतारे दयानंद पदवी थाय । सलुणा ॥५॥जिम. दोहा प्राण अखंडित जिनतणी, विचरी सासन मांही। सुलभ बोंधी प्रांणीया, धरी अंग उछाह ॥१॥ सम्यग् दृष्टि जीवनें, अन्तर दसा लय लीन । आतम भावे प्रेमसु, अनुभव रसज्यु भोन ॥२॥ संवर भावे आतमा, समतासु चित लाय । दया दान ने दीनता, एतरवा नो उपाय ॥३॥ ढाल:--- श्री तीरथ पति वंदिई भवि प्रांणी रे।। वामा नंद न देव सेवो भवि प्राणी रे ॥१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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