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तीर्थं माला संग्रह
जिसका संक्षिप्त सार पाठकगरण के अवलोकनार्थ नीचे दिया जाता है-
'श्री सुपार्श्वनाथ जिनके तीर्थवर्ती धर्म घोष और धर्मरुचि नामक दो तपस्वी मुनि एक समय विहार करते हुए मथुरा पहुँचे उस समय मथुरा की लम्बाई बारह योजन तथा विस्तार नव योजन परिमित था । उसके चारों तरफ दुर्ग बना हुआ था और पास में दुर्ग को नहलाती हुई यमुना नदी बह रही थी, मथुरा के भीतर तथा बाहर अनेक कूप बावड़ियाँ बनी हुई थीं । नगरी गृह पंक्तियों, हाट बाजारों और देव मन्दिरों से सुशोभित थी, इसकी बाह्य भाग भूमि अनेक वनों, उद्यानों से घिरी हुई थी, तपस्वी धर्म घोष, धर्मरुचि मुनि युगल ने मथुरा के 'भूत रमण' नामक उद्यान में चातुर्मासिक तप के साथ वर्षा चातुर्मासिक को स्थिरता की, मुनियों के तप ध्यान; शांति आदि गुणों से आकर्षित होकर उपवन की अधिष्ठात्री 'कुबेरा' नामक देवी उनके पास रात्रि के समय जाकर कहने लगी मैं आपके गुणों से बहुत ही सन्तुष्ट हूँ, मुझ से वरदान मांगिये, मुनियों ने कहा हम निस्संग श्रमण हैं, हमें किसी भो पदार्थ की इच्छा नहीं, यह कहकर उन्होंने 'कुबेरा' को धर्म का उपदेश देकर जैन धर्म की श्रद्धा कराई ।
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चातुर्मास्य की समाप्ति के लगभग कार्तिक सुदि अष्टमी को तपस्वियों ने अपने निवास स्थान की स्वामिनी जानकर कुबेरा को कहा - हे श्राविका चातुर्मास्य पूरा होने आया है हम यहाँ से चातुर्मास्य की समाप्ति होते ही विहार करेंगे, तुम जिनदेव की पूजा भक्ति तथा जैन धर्म की उन्नति में सहयोग देते रहना | देवी ने तपस्वियों को वहीं ठहरने की प्रार्थना की परन्तु साधु का एक स्थान पर ठहरना आचार विरुद्ध बताकर उसकी प्रार्थना को अस्वीकृत कर दिया । कुबेरा ने कहा यदि आपका यही निश्चय है, तो मेरे योग्य धर्म कार्य का आदेश फरमाइये, क्योंकि देव दर्शन अमोघ होता है । साधुयों ने कहा - यदि तेरा प्राग्रह है, तो हमें संघ के साथ मेरू पर्वत पर ले जाकर जिन चैत्यों का वन्दन करा दे, देवी ने
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