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थं माला संग्रह सौराष्ट्र ऋषभदेव के समय में जलमग्न होगा अथवा तो एक अन्तरीय होगा, इसके विपरीत नेमिनाथ के समय में यह सौराष्ट्र भूमि समुद्र के बीच होते हुए भी मनुष्यों के बसने योग्य हो चुकी थी, इसी कारण से जरासंघ के आतंक से बचने के लिए यादवों ने इस प्रदेश का आश्रय लिया था, तथा इन्द्र के आदेश से उनके लिये कुबेर ने वहाँ द्वारिका नगरी का निवेश किया था। भगवान् नेमिनाथ ने उसी द्वारिका के बाहर रैवतक पर्वत के समीप प्रव्रज्या ली थी और बहुधा इसी प्रदेश में विचरे थे, इस वास्तविक स्थिति को दृष्टि में रखते हुए सौराष्ट्र प्रदेश तथा उज्जयन्त (गिरनार) और शत्रुञ्जय पर्वत भगवान नेमिनाथ के विहार क्षेत्र मानेंगे तो हम वास्तविकता के अधिक समीप रहेंगे । (९) मथुरा का देव निर्मित स्तूप___ मथुरा के देव निर्मित स्तूप का यद्यपि मूल आगमों में उल्लेख नहीं मिलता, तथापि छेद-सूत्रों तथा अन्य सूत्रों के भाष्य, चूणि
आदि में इसके उल्लेख मिलते हैं, इसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में कहा गया है कि 'मथुरा नगरी के बाहर वन में एक क्षपक (तपस्वी जैन साधु) तपस्या कर रहा था, उसकी तपस्या और संतोषवृत्ति से वहाँ को वन देवता तपस्वी-साधु की तरफ भक्ति विनम्र हो गई थी। प्रतिदिन वह साधु को वन्दना करती और कहती मेरे योग्य कार्य-सेवा फरमाना, क्षपक कहता मुझे तुम जैसी अविरत देवी से कुछ कार्य नहीं । देवी जब भी क्षपक को कार्य सेवा के लिये वही वाक्य दोहराती तो क्षपक भी अपनी तरफ से वही उत्तर दिया करता था। एक समय देवी के मन में आया, तपस्वी बार-बार मुझे कोई कार्य न होने का कहा करते हैं, तो अब ऐसा कोई उपाय करूं ताकि ये मेरी सहायता पाने के इच्छुक बनें । उसने मथुरा के निकट एक बड़े विशाल चौक में रात भर में एक बड़ा स्तूप खड़ा कर दिया, दूसरे दिन उस स्तूप को जैन तथा बौद्ध धर्म के अनुयायी अपना-अपना मानकर उसका कब्जा करने के लिये तत्पर हुए। जैन, स्तूप को अपना बताते थे तब बौद्ध अपना । स्तूप में लेख अथवा किसी सम्प्रदाय की देव मूर्ति न होने के कारण, उसने जैन बौद्धों के
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