Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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. तत्त्वार्थचिन्तामणिः
प्राणियोंका अनुग्रह करनेवाला अभयदान भाव होता है ३ । लाभान्तरायके अत्यन्त क्षयसे क्षायिक लाभ होता है, जिसका कि स्वकर्तव्य परमौदारिक शरीरकी स्थितिके कारणभूत परमशुभ सूक्ष्म अनन्त पुद्गलोंका ग्रहण करना है, अर्थात्-केवल आहारको छोड चुके केवली भगवान्के शारीरिक सम्पत्तिके उपादान कारण असाधारण पुद्गल वर्गणाओंकी प्राति होते रहना क्षायिक लाभ है । बात यह है कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण, दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय ये कर्म आत्माकी पर्यायोंका आवरण करनेवाले हैं । आत्मामें अनाद्यनन्त जडे हुये अन्वयी गुण हो रहे चेतना और वीर्य इन दो गुणोंकी ये उपर्युक्त पर्याय हैं । अतः सूर्यप्रकाशमें गतार्थ हो रहे तारागणोंके प्रकाश समान केवलदर्शनका परिणमन भी युगपत् केवलज्ञान आत्मक हो रहा है, जैसे कि सिद्ध अवस्था हो जानेपर एक वीर्य गुणकी शुद्ध एक अनन्तवीर्य नामक पर्यायमें अनन्तदान, लाभ, भोग, उपभोग इनका अन्तर्भाव या चित्र आत्मक परिणति हो जाती है । क्रोधी, मानी, शोकी, अरतिग्रस्त संसारी जीवोंके भी एक चारित्र गुणकी चितकबरी विभाव परिणति होती रहती है । एक ज्ञानकी अनेक विकल्पनाओंके समान एक गुणकी चित्रात्मक परिणतियां हो जाती हैं । अनन्त प्राणियोंको अनुग्रह देना, शरीर बलाधायक पुद्गलोंका लाभ होना, पुष्पवृष्टि, सिंहासन आदिका भोगोपभोग होना ये तो सब आनुषंगिक फल हैं । सिद्ध अवस्था नहीं भी पाये जाय तो भी क्षायिक भावोंका अनुद्भूत चित्र परिणाम होना अनिवार्य है ४ । तथा भोगान्तराय कौके क्षयसे भगवानके क्षायिक भोगनामक तत्त्व उपजता है ५। परिपूर्ण उपभोगान्तरायके क्षयसे उपभोग भाव प्राप्त होता है ६ । बीर्थान्तरायके क्षयसे अनन्तवीर्य नामक पर्याय शक्ति उपजती है ७ । दर्शन मोहनीयके क्षयसे क्षायिक सम्यग्दर्शन ८ और चारित्र मोहनीयके क्षयसे क्षायिक चारित्र बन जाता है ९ । यद्यपि चौथेसे सातवेंतक किसी भी गुणस्थानमें क्षायिक सम्यग्दर्शन तथा बारहमेंके आदिमें क्षायिक चारित्र अनन्तकालतकके लिये हो चुका है, फिर भी उक्त दो गुणोंमें अन्य घातिया कर्मों के उदयकी सहचरतासे कुछ प्रासंगिक अपरिपूर्णतायें रहीं आती ह तथा उक्त दो गुणोंमें अघाति कर्मोके सम्बंधसे भी त्रुटियां उपज जाती हैं । अतः सम्यग्दर्शन और चारित्रकी परिपूर्णता चौदहवें गुणस्थानके अन्त समयमें मानी गयी है । हां इन दो गुणोंके सिवाय शेष केवल ज्ञान, अनन्त वीर्य, सुख, आदि गुण जब व्यक्त उपजते हैं तभीसे उनकी परिपूर्ण अवस्था हो चुकी रहती है । उत्कृष्ट अनन्तानन्त प्रमाण केवलज्ञानके अविभाग प्रतिच्छेद एक बार उपजकर पुनः घटते बढते नहीं हैं । अगुरुलघु गुणमें अविभाग प्रतिच्छेदोंकी हानि वृद्धियां होती हैं । उसके द्वारा अन्य तदात्मक गुणोंमें भी उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, स्वरूप सत्त्व माना जाता है सर्वत्र छह गुण हानि और वृद्धियां होती रहें ऐसा कोई नियम नहीं है । इसी प्रकार अपने नियत संख्यावाले अविभाग प्रतिच्छेदोंको धारनेवाले वीर्य, सुख आदिसें समझ लेना । इस प्रकार ये नौ क्षायिक भावके भेद बता दिये गये हैं।
कुतः पुनर्ज्ञानावरणादीनां क्षयः सिद्ध इत्याह ।