________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
उनकी गद्य शैली परिमार्जित , प्रौढ एवं सहज बोधगम्य हैं। उनकी शैली का सुन्दरतम रूप उनके मौलिक ग्रंथ 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' में देखने को मिलता है। उनकी भाषा मूलरूप में ब्रज होते हुए भी उसमें खड़ी बोली का खड़ापन भी है और साथ ही स्थानीय रंगत भी। उनकी भाषा उनके भावों को वहन करने में पूर्ण समर्थ व परिमार्जित है। आपके संबंध में विशेष जानकारी के लिये ‘पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व' नामक ग्रंथ देखना चाहिये।
प्रस्तुत अंश ‘मोक्षमार्ग प्रकाशक' के सप्तम अधिकार के आधार पर लिखा गया है। निश्चय-व्यवहार की विशेष जानकारी के लिये मोक्षमार्ग प्रकाशक' के सप्तम अधिकार का अध्ययन करना चाहिये।
सात तत्त्व सम्बन्धी भूलें __जब तक जीवादि सात तत्त्वों का विपरीताभिनिवेश रहित सही भावभासन न हो, तब तक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं हो सकती है। जैन शास्त्रों का अध्ययन कर लेने पर भी मिथ्यादृष्टि जीव को तत्त्व का सही भावभासन नहीं होता।
जीव और अजीव तत्त्व सम्बन्धी भूल १. जैन शास्त्रों में वर्णित जीव के त्रस-स्थावरादि तथा गुणस्थान, मार्गणा आदि भेदों तथा अजीव के पुद्गलादि भेदों व वर्णादि पर्यायों को तो जानता है, पर अध्यात्म शास्त्रों में वर्णित भेदविज्ञान और वीतराग दशा होने के कारणभूत कथन को नहीं पहिचानता।
२. यदि प्रसंगवश उन्हें जान भी ले तो शास्त्रानुसार जान लेता है, परन्तु अपने को आप रूप जानकर पर का अंश अपने में न मिलाना और अपना अंश पर में न मिलाना - ऐसा सच्चा श्रद्धान नहीं करता।
३. अन्य मिथ्यादृष्टियों के समान यह भी आत्माश्रित ज्ञानादि तथा शरीराश्रित उपदेश, उपवासादि क्रियाओं में अपनत्व' मानता है।
४. शास्त्रानुसार आत्मा की चर्चा करता फिर भी यह अनुभव नहीं करता कि मैं प्रात्मा हूँ और शरीरादि मुझसे भिन्न है, जैसे और ही की बातें कर रहा हो - ऐसे ही शरीरादि और आत्मा को भिन्न बताता है। १ उल्टी मान्यता या उल्टा अभिप्राय २ अन्तरंग ज्ञान ३ अपनापन
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com