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पारिणामिक भाव के ३ भेद होते हैं- जीवत्य, भव्यत्व और भव्यत्व । इस प्रकार कुल मिला कर जीव के असाधारण भावों के ५३ भेद होते हैं। जिज्ञासु - इनके जानने से क्या लाभ है व इनसे क्या सिद्ध होता हैं ? प्रवचनकार १. पारिणामिक भाव से यह सिद्ध होता है कि जीव अनादिअनन्त, एक, शुद्ध, चैतन्यस्वभावी है।
२. औदयिक भाव का स्वरूप जानने से यह पता चलता है कि जीव अनादि-अनन्त, शुद्ध, चैतन्यस्वभावी होने पर भी उसकी अवस्था में विकार है, जड़ कर्म के साथ उसका अनादिकालीन सम्बन्ध है; तथा जब तक यह जीव अपने ज्ञातास्वभाव को स्वयं छोड़कर जड़ कर्म की ओर झुकाव करता है, तब तक विकार उत्पन्न होता रहता हैं; कर्म के कारण विकार नहीं होता है ।
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३. क्षायोपशमिक भाव से यह पता चलता है कि जीव अनादि काल से विकार करता हुआ भी जड़ नहीं हो जाता। उसके ज्ञान, दर्शन वीर्य का आंशिक विकास सदा बना रहता है एवं सच्ची समझ के बाद वह जैसे-जैसे सत्य पुरुषार्थ को बढ़ाता है, वैसे-वैसे मोह अंशत दूर होता जाता है।
४. आत्मा का स्वरूप यथार्थतया समझकर जब जीव अपने पारिणामिक भाव का आश्रय लेता है, तब प्रदयिक भाव का दूर होना प्रारम्भ होता है और सर्व प्रथम श्रद्धा गुण का प्रदयिक भाव दूर होता है यह औपशमिक भाव बतलाता है
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५. अप्रतिहत पुरुषार्थ से पारिणामिक भाव का अच्छी तरह आश्रय बढ़ाने पर विकार का नाश होता है ऐसा क्षायिकभाव सिद्ध करता है ।
जिज्ञासु - क्या ये पाँचों भाव सभी जीवों के सदा पाये जाते हैं ?
प्रवचनकार
एक पारिणामिक भाव ही ऐसा है, जो सब जीवों के सदाकाल पाया जाता है। प्रौदयिक भाव समस्त संसारी जीवों के तो पाया जाता है किन्तु मुक्त जीवों के नहीं। इसी प्रकार क्षायोपशमिक भाव भी मुक्त
तत्त्वार्थसूत्र, प्र. २, सूत्र ७
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जीवभव्याभव्यत्वानि च
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