Book Title: Tattvagyan Pathmala 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 60
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पाण्डव विप्र वेश में थे। अतः वहाँ उपस्थित राजागण व दुर्योधनादि कौरव कोई भी उन्हें पहिचान न पाये, पर दुर्योधन को यह अच्छा न लगा कि उनकी उपस्थिती में एक साधारण विप्र द्रौपदी को वर ले जावे। अत: उसने सब राजाओं को भड़काया कि महाप्रतापी राजाओं की उपस्थिति में एक साधारण विप्र को द्रौपदी वरण करे - यह सब राजाओं का अपमान है। परिणामस्वरूप दुर्योधनादि सहित उपस्थित सब राजागण और पाण्डवों में भयंकर युद्ध हुआ। धनुर्धारी अर्जुन के सामने जब कोई भी धनुर्धारी टिक न सका, तब स्वयं गुरु द्रोणाचार्य उससे युद्ध करने आये। सामने गुरुदेव को खड़ा देख, अर्जुन विनय से नम्रीभूत हो गया और गुरु को नमस्कार कर बाण द्वारा अपना परिचय पत्र गुरुदेव के पास भेजा। ___ गुरु द्रोण को जब यह पता चला कि अर्जुन आदि पाण्डव अभी जीवित हैं तो उन्हें बहुत प्रसन्नता हुई और उन्होंने सबसे यह समाचार कहा। एक बार फिर गुरु द्रोण एवं भीष्मपितामह ने कौरव और पाण्डवों में मेल-मेलाप करा दिया। इस प्रकार पुनः कौरव और पाण्डवों का मिलाप हुआ तथा वे दुबारा प्राधाआधा राज्य लेकर हस्तिनापुर में रहने लगे। सुरेश - गुरुदेव! आपने तो पाण्डवों के जुआ खेलने की बात कही थी वह तो इस कहानी में कहीं आई ही नहीं। अध्यापक - हाँ सुनो, एक दिन दुर्योधन और युधिष्ठर शर्त लगाकर ‘पासों का खेल' खेल रहे थे। उन्होंने पासों के खेल ही में १२ वर्ष के लिये राज्य को भी दाव पर लगा दिया। दुर्योधन कपट से दाव जीत गया और युधिष्ठरादि पाण्डवों को १२ वर्ष के लिये राज्य छोड़कर अज्ञातवास में रहना पड़ा। इसलिये तो कहा है – 'शर्त लगाकर कोई काम करना यानी जुया खेलना सब अनर्थों की जड़ है।' आत्मा का हित चाहने वाले पुरुष को इससे सदा ही दूर रहना चाहिये। महाबलधारी एवं उसी भव से मोक्ष जाने वाले युधिष्ठरादि को भी इसके सेवन के फलस्वरूप बहुत विपत्तियों का सामना करना पड़ा। ५७ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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