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सुरेश - जब समझौता हो गया था तो फिर लड़ाई क्यों हुई ?
अध्यापक
तुम से कहा था न कि उसका मन साफ नहीं हुआ था । एक बार जब पाण्डव अपने महल में सो रहे थे तो कौरवों ने उनके घर में आग लगवा दी।
-
रमेश - आग लगवा दी ? यह तो बहुत बुरा काम किया उन्होंने । तो क्या पाण्डव उसमें जल मरे ?
अध्यापक - नहीं भाई, सुनो। उन्होंने बुरा काम तो किया ही । इस प्रकार की हिंसात्मक प्रवृत्तियों से ही तो देश और समाज नष्ट होते हैं। पाण्डव तो सुरंग मार्ग से निकल गये पर लोगों ने यही जाना कि पाण्डव जल गये हैं। कौरवों की इस काण्ड से लोक में बहुत निन्दा हुई, पर वे प्रसन्न थे दुर्जनों की प्रवृत्ति ही हिंसा में आनन्द मानने की होती है।
रमेश - फिर पाण्डव लोग कहाँ चले गये ?
था,
अध्यापक - कुछ काल तो वे गुप्तवास में रहे और घूमते-घूमते राजा द्रुपद की राजधानी माकन्दी पहुँचे। वहाँ राजा द्रुपद की पुत्री का स्वयंवर हो रहा जिसमें धनुष चढ़ाने वाले को द्रौपदी वरेगी ऐसी घोषणा की गई थी। उक्त स्वयंवर में दुर्योधनादि कौरव भी आये हुए थे, पर किसी से भी वह देवो - पुनीत धनुष नहीं चढ़ाया गया । आखिर में अर्जुन ने उसे क्रीड़ामात्र में चढ़ा दिया और द्रौपदी ने अर्जुन के गले में वरमाला डाल दी।
रमेश - हमने तो सुना है कि द्रौपदी ने पाँचों पाण्डवों को वरा था ?
अध्यापक - नहीं भाई ! द्रौपदी तो महासती थी। उसने तो अर्जुन के कण्ठ में वरमाला डाली थी। वह तो युधिष्ठर और भीम को जेठ होने से पिता समान एवं नकुल और सहदेव को देवर होने से पुत्र के समान मानती थी।
सुरेश - तो फिर ऐसा क्यों कहते हैं ?
अध्यापक - भाई! बात यह है कि जब द्रौपदी अर्जुन के गले में वरमाला डाल रही थी तो वरमाला का डोरा टूट गया और कुछ फूल बिखर कर पास में स्थित बाकी चार पाण्डवों पर भी गिर गये और उनसे जलन रखने वाले तथा द्रौपदी प्राप्त करने की आशा से आये हुए लोगों ने अपवाद फैला दिया कि उसने तो पाँचों पाण्डवों को वरा है ।
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