Book Title: Tattvagyan Pathmala 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 62
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates अध्यापक - उसके बाद वे अपने मामा के यहाँ द्वारिका चले गये । द्वारकाधीश कृष्ण के पिता वसुदेव और भगवान नेमिनाथ के पिता समुद्रविजय पाण्डवों के मामा थे। उन्होंने बहिन सहित प्राये अपने भानजों का बहुत आदर-सत्कार किया। सुरेश - गुरुजी ! कौरवों और पाण्डवों का आपस में बड़ा भारी युद्ध भी तो हुआ था ? अध्यापक हाँ! हुआ था, पर वह युद्ध मात्र कौरव और पाण्डवों का ही नहीं रहा था। उस युद्ध में तो सम्पूर्ण भारतवर्ष ही उलझ गया था, क्योंकि उस युद्ध में पाण्डवों के साथ नारायण श्रीकृष्ण एवं कौरवों के साथ प्रतिनारायण जरासन्ध हो गये थे; अत: उस युद्ध में नारायण और प्रतिनारायण के महायुद्ध का रूप ले लिया था। जब उस युद्ध में नारायण श्रीकृष्ण की विजय हुई और वे त्रिखण्डी अर्धचक्रवर्ती राजा हुए तो पाण्डवों को स्वभावतः ही हस्तिनापुर का महामण्डलेश्वर पद प्राप्त हुआ । युधिष्ठर गंभीर प्रकृति के सहज धर्मानुरागी न्यायवंत राजा थे, अतः वे धर्मराज युधिष्ठर के नाम से जाने जाते हैं। भीम में शारीरिक बल अतुलनीय था तथा वे मल्लविद्या में अद्वितीय थे एवं अर्जुन अपनी बाणविद्या में जगत प्रसिद्ध धनुर्धर थे। वे बहुत काल तक शांतिपूर्वक राज्य सुख भोगते रहे। रमेश - फिर ? अध्यापक फिर क्या? बहुत काल बाद द्वारिका - दाह की भयंकर घटना ने उनके हृदय को झकझोर दिया और उनका चित्त संसार से उदास हो गया। एक दिन वे विरक्त-हृदय पाण्डव भगवान नेमिनाथ की वंदना के लिए सपरिवार उनके समवसरण में गये। वहाँ भगवान की दिव्यवाणी को सुनकर उनका वैराग्य और अधिक प्रबल हो गया । दिव्यध्वनि में आ रहा था कि भोगों मे सच्चा सुख नहीं है, सच्चा सुख आत्मा में है। आत्मा का हित तो आत्मा को समझकर उससे भिन्न समस्त पर - पदार्थों से ममत्व हटाकर ज्ञानस्वभावी आत्मा में एकाग्र होने में है । लौकिक लाभ-हानि तो पुण्य-पाप का खेल है, उसमें आत्मा का हित नहीं । यह आत्मा व्यर्थ ही पुण्य के उदय में हर्ष और पाप के उदय में विषाद मानता है। मनुष्य - भव की सार्थकता तो समस्त जगत से ममत्व हटाकर आत्म-केन्द्रित होने में है। - ५९ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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