________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates बाह्य जगत कुछ भी नहिं मेरा, और न बाह्य जगत का मैं / यह निश्चय कर छोड़ बाह्य को , मुक्ति हेतु नित स्वस्थ रमें / / 24 / / अपनी निधि तो अपने में है, बाह्य वस्तु में व्यर्थ प्रयास / / जग का सुख तो मृगतृष्णा है, झूठे हैं उसके पुरुषार्थ / / 25 / / अक्षय है शाश्वत है आत्मा, निर्मल ज्ञानस्वभावी है। जो कुछ बाहर है सब पर है, कर्माधीन विनाशी है / / 26 / / तन से जिसका ऐक्य नहीं, हो सुत तिय मित्रों से कैसे / चर्म दूर होने पर तन से, रोम-समूह रहें कैसे / / 27 / / महा कष्ट पाता जो करता, पर पदार्थ जड़-देह संयोग / मोक्ष-महल का पथ है सीधा, जड़ चेतन का पूर्ण वियोग' / / 28 / / जो संसार पतन के कारण, उन विकल्प जालों को छोड़ / निर्विकल्प निर्द्वद्व आत्मा, फिर फिर लीन उसी में हो / / 29 / / स्वयं किये जो कर्म शुभाशुभ , फल निश्चय ही वे देते / करे आप फल देय अन्य तो, स्वयं किये निष्फल होते / / 30 / / अपने कर्म सिवाय जीव को, कोई न फल देता कुछ भी / ‘पर देता है' यह विचार तज, स्थिर हो छोड़ प्रमादी बुद्धि / / 31 / / निर्मल सत्य शिवं सुंदर है, 'अमितगति' वह देव महान / / शाश्वत निज में अनुभव करते, पाते निर्मल पद निर्वाण / / 32 / / प्रश्न - 1. उपरोक्त भावना में कोई से दो छन्द जो आपको रुचिकर लगे हों, अर्थसहित लिखिए ? 2. प्राचार्य अमितगति के व्यक्तित्व व कर्तृत्व पर प्रकाश डालिये ? 1. सतत रहने वाला, 2. अजीव शरीरादिक, 3. अलग हो जाना , 4. संसार के पचड़ों से रहित, कार्य स्वयं करे और किये कर्म (कार्य) का फल दूसरे के प्राधीन हो तो संसार में पुरुषार्थ करने का कोई महत्त्व ही नहीं रह जाता। 66 Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com