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जिससे सदभाव होने पर नियम से विवक्षित कार्य का अभाव (नाश) होता है, उसे प्रध्वंसाभाव कहते हैं। अन्य ( पुद्गल) के स्वभाव ( वर्तमान पर्याय ) में स्व (अन्य पुद्गल) स्वभाव ( वर्तमान पर्याय) की व्यावृत्ति अन्योन्याभाव है तथा कालत्रय की अपेक्षा से जो अभाव हो, वह अत्यन्ताभाव है।
जिज्ञासु - यदि इन चारों प्रभावों को न माना जाय तो क्या दोष है ?
प्राचार्य समन्तभद्र - (१) प्रागभाव न मानने पर समस्त कार्य (पर्याय) अनादि सिद्ध होंगे।
(२) प्रध्वंसाभाव के न मानने पर सर्व कार्य (पर्यायें) अनन्तकाल तक रहेंगे।
(३) अन्योन्याभाव के न मानने पर सब पुद्गलों की पर्यायें मिलकर एक हो जावेंगी अर्थात् सब पुद्गल सर्वात्मक हो जावेंगे।
(४) अत्यन्ताभाव के न मानने पर सब द्रव्य अस्वरूप हो जावेंगे अर्थात् सब अपने-अपने स्वरूप को छोड़ देंगे; प्रत्येक द्रव्य की विभिन्नता नहीं रहेगी, जगत के सब द्रव्य एक हो जावेंगे।
आशा है, चार प्रभावों का स्वरूप तुम्हारी समझ में अच्छी तरह आ गया होगा।
जिज्ञासु - जी हाँ, आ गया।
आचार्य समन्तभद्र - आ गया तो बतायो ? शरीर और जीव में कौनसा प्रभाव है ?
जिज्ञासु - अत्यन्ताभाव। आचार्य समन्तभद्र - क्यों है ? जिज्ञासु - क्योंकि एक पुद्गल द्रव्य है और दूसरा जीव द्रव्य है और दो द्रव्यों के बीच होने वाले प्रभाव को ही अत्यंताभाव कहते हैं।
आचार्य समन्तभद्र - पुस्तक और घड़े में कौनसा प्रभाव है ?
१ “यदभावे हि नियमतः कार्यस्योत्पत्तिः स प्रागभावः, यदभावे च कार्यस्य नियता बिपत्तिः स प्रध्वंसः. स्वभावान्तरात्स्वभावव्यावृत्तिरन्यापोहः कालत्रयापेक्षाऽभावोऽत्यन्ताभावः।"
– अष्टसहस्त्री : विद्यानन्दि , पृष्ठ १०९ ।
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