________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
पर्याय, दूसरे पुद्गल की पर्याय से पूर्ण भिन्न एवं स्वतन्त्र है तो फिर यह प्रात्मा से तो जुदी है ही।
इस तरह चारों प्रभावों के समझने से स्वाधीनता का भाव जागृत होता है, पर से आशा की चाह समाप्त होती है, भय का भाव निकल जाता हैं, भूतकाल और वर्तमान की कमजोरी और विकार देखकर उत्पन्न होने वाली दीनता समाप्त हो जाती है और स्वसन्मुख होने का पुरुषार्थ जागृत होता है।
आशा है, तुम्हारी समझ में इनके जानने से क्या लाभ है, यह आ गया होगा?
जिज्ञासु - आ गया! बहुत अच्छी तरह आ गया !!
आचार्य समन्तभद्र - आ गया तो बताओ! ‘शरीर मोटा-ताजा हो तो आवाज भी बुलन्द होती है'- ऐसा मानने वाला क्या गलती करता है ?
जिज्ञासु - वह अन्योन्याभाव का स्वरूप नहीं जानता; क्योंकि शरीर का मोटा-ताजा होना, आहार वर्गणारूप पुद्गल का कार्य है और आवाज बुलन्द होना, भाषा वर्गणा का कार्य है। इस प्रकार आवाज और शरीर की मोटाई में अन्योन्याभाव है।
प्राचार्य समन्तभद्र - ‘ज्ञानावरणी कर्म के क्षय के कारण प्रात्मा में केवलज्ञान होता है' ऐसा मानने वाले ने क्या भूल की ?
जिज्ञासु - उसने अत्यन्ताभाव को नहीं जाना; क्योंकि ज्ञानावरणी कर्म और आत्मा में अत्यन्ताभाव है; फिर एक द्रव्य के कारण दूसरे द्रव्य में कार्य कैसे हो सकता है ?
शंकाकार - शास्त्र में ऐसा क्यों लिखा है कि ज्ञानावरणी कर्म के क्षय से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है ? - आचार्य समन्तभद्र - शास्त्र में ऐसा निमित्त का ज्ञान कराने से लिए असद्भूत व्यवहार नय से कहा जाता है, किन्तु वस्तुतः (निश्चय नय से) विचार किया जाय तो एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के कार्य का कर्ता हो ही नही सकता।
इस तरह हम देखते हैं कि वस्तुस्वरूप तो अनेकान्तात्मक है। अकेला भाव ही वस्तु का स्वरूप नहीं है। प्रभाव भी वस्तु का धर्म है, उसे माने बिना वस्तु
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com