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जिज्ञासु - अन्योन्याभाव , क्योंकि पुस्तक और घड़ा दोनों पुद्गल द्रव्य की वर्तमान पर्यायें हैं।
आचार्य समन्तभद्र - ‘आत्मा अनादि केवलज्ञान पर्यायमय है' ऐसा मानने वाले कौनसा प्रभाव नहीं मानते ? __ जिज्ञासु - प्रागभाव, क्योंकि केवलज्ञान ज्ञानगुण की पर्याय है; अतः केवलज्ञान होने से पूर्व की मतिज्ञानादि पर्यायों में उसका अभाव है।
आचार्य समन्तभद्र - ‘यह वर्तमान राग मुझे जीवन भर परेशान करेगा' ऐसा मानने वाले ने कौनसा प्रभाव नहीं माना ? __ जिज्ञासु - प्रध्वंसाभाव, क्योंकि वर्तमान राग का भविष्य की चारित्रगुण की पर्यायों में प्रभाव हैं; अतः वर्तमान राग भविष्य के सुख-दुःख का कारण नहीं हो सकता।
शंकाकार - इन चार प्रकार के प्रभावों को समझने से क्या-क्या लाभ हैं ?
प्राचार्य समन्तभद्र - अनादि से मिथ्यात्वादि महापाप करने वाला आत्मा पुरुषार्थ करे तो वर्तमान में उनका प्रभावकर सम्यक्त्वादि धर्म दशा प्रगट कर सकता है, क्योंकि वर्तमान पर्याय का पूर्व पर्यायों में प्रभाव है; अतः प्रागभाग समझने से 'मैं पापी हूँ, मैंने बहुत पाप किये हैं, मैं कैसे तिर सकता हूँ ?' आदि हीन भावना निकल जाती है। इसी प्रकार प्रध्वंसाभाव के समझने से यह ज्ञान हो जाता है कि वर्तमान में कैसी भी दीन-हीन दशा हो, भविष्य में उत्तम से उत्तम दशा प्रगट हो सकती हैं, क्योंकि वर्तमान पर्याय का आगामी पर्यायों में प्रभाव है, अतः वर्तमान पामरता देखकर भविष्य के प्रति निराश न होकर स्वसन्मुख होने का पुरुषार्थ प्रगट करने का उत्साह जागृत होता है।
जिज्ञासु - अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव से ?
आचार्य समन्तभद्र - एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता-हर्ता नहीं है, क्योंकि उनमें आपस में अत्यन्ताभाव है - ऐसा समझने से दूसरे मेरा बुरा कर देंगे' ऐसा अनन्त भय निकल जाता है एवं 'दूसरे मेरा भला कर देंगे' ऐसी परमुखापेक्षिता की वृत्ति निकल जाती है। इसी प्रकार अन्योन्याभाव के जानने से भी स्वाधीनता का भाव जागृत होता है, क्योंकि जब एक पुद्गल की
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